गुप्त काल

गुप्त की उत्पत्ति-

– गुप्त काल को भारतीय इतिहास का स्वर्णिम युग कहा जाता है।

– मौर्यों के पतन के बाद राजनीतिक एकता समाप्त हो गई थी।

– तीसरी शताब्दी में एक शक्तिशाली राजवंश का उदय हुआ जिन्होंने भारत में एकबार पुन: राजनीतिक एकता की स्थापना की।

– गुप्त कुषाणों के सामन्त थे।

गुप्त कौन?

– गौरी शंकर हीराचन्द ओझा व रमेशचन्द्र मजुमदार ने इन्हें क्षत्रिय तथा प्रो. हेमचन्द्रराय चौधरी व श्रीराम गोयल ने इन्हें ब्राह्मण माना है।

– इस विषय पर विद्वान एकमत नहीं थे इसलिए के.पी. जायसवाल ने इन्हें शूद्र तथा एलन, अल्तेकर रोमिला थापर ने इन्हें वैश्य कहा है।

– चंद्रगोमिन के व्याकरण में गुप्तों को जर्ट या जाट कहा गया है।

गुप्त शासकों का क्रम :

1. श्री गुप्त (संस्थापक, आदिपुरुष, गूढ़पुरुष)

2. घटोत्कच

3. चन्द्रगुप्त प्रथम (वास्तविक संस्थापक)

4. समुद्रगुप्त (महानतम शासक)

5. रामगुप्त

6. चंद्रगुप्त द्वितीय(विक्रमादित्य)

7. कुमारगुप्त प्रथम

8. स्कन्दगुप्त

9. पुष्यगुप्त

10. कुमारगुप्त II

11. बुद्धगुप्त

12. नरसिंह गुप्त “बलादित्य”

13. भानुगुप्त

14. वेन्यगुप्त

15. कुमारगुप्त III

16. विष्णुगुप्त (अंतिम शासक)

श्री गुप्त (275 ई.-300 ई.)

– इसे गुप्तों का आदिपुरुष (गूढ़ पुरुष) कहा जाता है।

– गुप्त वंश के संस्थापक – श्री गुप्त

– गुप्तकालीन अभिलेखों के आधार पर ‘श्री गुप्त’ गुप्तों के आदिराजा थे।

– श्रीगुप्त गुप्त वंश का प्रथम शासक है, जिसने ‘महाराज’ की उपाधि धारण की।

– चीनी यात्री इत्सिंग ने श्री गुप्त को ‘चिलिकितो’ कहा है।

– श्रीगुप्तों ने “श्रीपतनमृगदाय मंदिर” का निर्माण चीनी भिक्षुओं हेतु करवाया।

– श्रगुप्त के पश्चात् उसका पुत्र घटोत्कच शासक हुआ, जिसने 300 ई. से 319 ई. तक शासन किया।

– घटोत्कच ने भी ‘महाराज’ की उपाधि धारण की।

चन्द्रगुप्त – प्रथम (319ई.-350 ई.) :

– चन्द्रगुप्त प्रथम को गुप्त वंश का वास्तविक संस्थापक माना जाता है।

– चन्द्रगुप्त – प्रथम गुप्तवंश का प्रथम प्रसिद्ध राजा हुआ।

– गुप्त वंश का प्रथम शासक जिसने ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की।

– चन्द्रगुप्त ने वैशाली के प्राचीन लिच्छवि वंश की राजकुमारी कुमारदेवी के साथ विवाह किया तथा कुमार देवी प्रकार के सिक्के चलाए ।

– कुमारदेवी भारतीय इतिहास की प्रथम राजकुमारी (महारानी) जिनके नाम के सिक्के चलाए गए।

– इन्होंने अपने राज्यारोहण की स्मृति में 319 ई. में गुप्त संवत् आरम्भ किया।

समुद्रगुप्त (350 ई.-375 ई.) :

– जानकारी : प्रयाग प्रशस्ति (इलाहाबाद स्तंभ लेख)

    रचना : हरिषेण (कवि)

    उत्कीर्ण : तिलभट्ट

    भाषा : विशुद्ध संस्कृत

    शैली : गद्य + पद्य (चम्पू)

    लिपि : ब्राह्मी लिपि

– प्रयाग प्रशस्ति को प्रकाश मे लाने का श्रेय “एन्ट्रायर” को है।

– चन्द्रगुप्त के पश्चात् उसका पुत्र समुद्रगुप्त शासक बना।

– विंसेट स्मिथ ने समुद्रगुप्त को ‘भारत का नेपोलियन’ कहा है।

– समुद्रगुप्त द्वारा जारी किए गए सिक्कों में कुछ पर ‘अश्वमेध पराक्रम’ अंकन है, तो कुछ पर सम्राट को वीणा वादन करते हुए दिखाया गया है।

– समुद्रगुप्त को उसके सिक्को पर लिच्छवी दोहित्र भी कहा जाता है।

– ऐरण अभिलेख में समुद्रगुप्त को प्रसन्न होने पर कुबेर के समान तथा रुष्ट होने पर यमराज के समान बताया गया।

– चीनी स्रोत के अनुसार श्रीलंका के शासक मेघवर्मन ने समुद्रगुप्त से बोधगया में बौद्धमठ बनाने की अनुमति माँगी।

– समुद्रगुप्त को 100 युद्धों का विजेता बताया गया।

– समुद्रगुप्त द्वारा अपनाई गई नीतियाँ-

    (1) आर्यावर्त – प्रसभोद्वरण (जड़मूल से उखाड़ फेंकना)

    (2) दक्षिणापथ – ग्रहणमोक्षानुग्रह

    (3) आटविक राज्य – परिचारकीकृत नीति

    (4) सीमावर्ती राज्य – सर्वकरदान, आज्ञाकरण, प्राणगमन

    (5) विदेशी शक्तियों – गुरुत्मंदक स्वविषय भुक्तिशासन याचना  (शक, कुषाण)

– कृष्णचरित्र का रचयिता समुद्रगुप्त था।

– समुद्रगुप्त द्वारा किए गए अश्वमेघ यज्ञ का उल्लेख प्रयाग प्रशास्ति में नहीं आता है।

– प्रयाग प्रशस्ति पर बीरबल व जहाँगीर का लेख भी मिला है।

समुद्रगुप्त के 6 प्रकार के सोने के सिक्के:

1. गरुड़ :

–   इसके अग्र भाग पर गरुड़ का अंकन है।

–   इसके पृष्ठ भाग पर सिंहसनारूढ़ समुद्र के साथ दत्तदेवी का अंकन है।

–   उपाधि : पराक्रमांक – शब्द उत्कीर्ण

2. धनुर्धारी

–   उपाधि : अप्रतिरथ – जिसके विजयरथ को रोका नहीं जा सके।

    नोट : सम्पूर्ण गुप्तों में केवल समुद्रगुप्त व चन्द्रगुप्त II ने ही यह उपाधि धारण की।

3. परशु :

–   उपाधि : कृतांत परशु

4. अश्वमेध :

–   अग्र भाग पर अश्वमेध पराक्रमांक उपाधि का उल्लेख है।

–   पृष्ठभाग पर दत्तदेवी के साथ अश्वमेध यज्ञ अंकित है।

5. व्याघ्रहनन :

–   इसके मुख भाग पर व्याघ्र पराक्रम: की उपाधि अंकित है।

6. वीणावादिन :

–   इसमें समुद्रगुप्त को वीणा बजाते हुए दिखाया गया है, उपाधि – कविराज।

    नोट : समुद्रगुप्त को उसके सिक्कों पर “लिच्छवी दौहित्र” भी कहा गया है।

समुद्रगुप्त के दो पुत्र :

1. रामगुप्त(375 ई.- 380 ई.) :- उल्लेख गुप्त वंशावली में नहीं मिलता।

2. चंद्रगुप्त II (380 ई.- 412/14 ई.)

रामगुप्त (375 ई.-380 ई.)

– समुद्रगुप्त की मृत्यु के बाद रामगुप्त शासक बना, यह कमजोर व निर्बल शासक था।

– रामगुप्त के शासन के समय शकों का आक्रमण हुआ इसने अपनी पत्नी ध्रुवस्वामिनी को शकों को सौंप दिया।

– चन्द्रगुप्त-II ने ध्रुवस्वामिनी को स्वतंत्र करवाया व भाई रामगुप्त की हत्या कर स्वयं शासक बना।

– इस सम्पूर्ण कथा का उल्लेख विशाखदत्त ने अपने ग्रंथ देवीचन्द्र-गुप्तम में किया है।

– रामगुप्त का उल्लेख बाणभट्ट द्वारा रचित हर्षचरितम् व राजशेखर की काव्यमीमांसा में भी मिलता है।

Note : आधुनिक भारत में राखालदास बनर्जी ने 1924 ई. में सर्वप्रथम रामगुप्त की ऐतिहासिकता को साबित करने का प्रयास किया।

चन्द्रगुप्त द्वितीय (380-412/14 ई.) :

– रामगुप्त के पश्चात् चन्द्रगुप्त द्वितीय राजा बना। उसका दूसरा नाम देवराज तथा देवगुप्त भी था। उसने अपने साम्राज्य को विवाह संबंधों और विजयों द्वारा बढ़ाया। उसने नागवंश की राजकुमारी कुबेर नागा से विवाह किया।

– चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपनी पुत्री प्रभावती गुप्त का विवाह वाकाटक नरेश रुद्रसेन द्वितीय से किया।

– चन्द्रगुप्त द्वितीय ने शकों को पराजित कर ‘विक्रमादित्य’ की उपाधि धारण की। उसने शक शासक “रुद्रसिंह तृतीय” को पराजित किया शक के विरुद्ध विजय के उपलक्ष्य में उसने चाँदी के सिक्के जारी किए। दिल्ली के महरौली लौह स्तम्भ अभिलेख में (संस्कृत भाषा)राजा चन्द्र का समय चन्द्रगुप्त द्वितीय के साथ मिलाया जाता है।

– चन्द्रगुप्त द्वितीय के दरबार में कालिदास और अमरसिंह जैसे अनेक विद्वान थे। फाह्यान (399-414 ई.) इसी के शासनकाल में भारत आया था।

– फाह्यान ने ‘फो-क्यों-की’ नामक ग्रंथ लिखा।

– चन्द्रगुप्त-द्वितीय ने अपने साम्राज्य की दूसरी राजधानी उज्जैन को बनाया तथा प्रथम राजधानी पाटलिपुत्र को।

– विक्रमादित्य की उपाधि धारण करने वाला प्रथम गुप्त शासक।

– चन्द्रगुप्त द्वितीय की उपाधियाँ – देवक्षी, देवगुप्त, देवराज, तत्परिगृहीत, विक्रमादित्य, विक्रमांक, परमभागवत, राजाधिराऋर्षि

– चन्द्रगुप्त द्वितीय के दरबार में नवरत्न।

1. कालिदास

2. वराहमिहिर

3. शंकु

4. धन्वन्तरी

5. क्षपणक

6. अमरसिंह

7. वेताल भट्ट

8. घटकर्पर

9. वर रुचि

* आर्यभट्ट नवरत्नों में शामिल नहीं था।

कुमारगुप्त (414-455 ई.) :

– उपाधियाँ : महेन्द्रादित्य, श्री महेंद्र, अश्वमहेंद्र।

– प्रथम शासक जिसके अभिलेख – बांग्लादेश से भी प्राप्त होते हैं।

– गुप्त शासकों में सर्वाधिक अभिलेख लगाने का श्रेय कुमार गुप्त को जाता है।

– गुप्त शासकों में सर्वाधिक प्रकार के सिक्के (14 प्रकार) चलाने का श्रेय प्राप्त है।

– चीनी यात्री ह्वेनसांग ने कुमारगुप्त का नाम ‘शक्रादित्य’ बताया है।

– इसने बड़ी संख्या में मुद्राएँ जारी करवाई। इसके द्वारा जारी की गई मुद्राओं का एक बड़ा भंडार बयाना (भरतपुर) में मिला, जिसमें चाँदी की मयूरशैली की मुद्राएँ सर्वोत्कृष्ट थी।

– मध्यभारत (पाटलिपुत्र) में चाँदी के सिक्के चलाने का श्रेय जाता है।

– कुमार गुप्त ने अपने सिक्कों पर गरुड़ के स्थान पर मयूर का अंकन करवाया, जिससे इसके शैव अनुयायी होने का प्रमाण मिलता है।

– तुमैन अभिलेख में कुमार गुप्त को शरदकालीन सूर्य की भाँति शांत बताया गया है।

– स्कंदगुप्त के भीतरी स्तम्भ लेख से ज्ञात होता है कि पुष्यामित्रों का आक्रमण कुमारगुप्त के समय हुआ।

– विलसड़ अभिलेख, मन्दसौर प्रशस्ति कुमार गुप्त प्रथम के समय के है।

– मंदसौर अभिलेख के रचयिता- वत्सभट्टि हैं।

नालन्दा बौद्ध विहार

– नालन्दा बौद्ध विहार की स्थापना कुमार गुप्त प्रथम के समय हुई।

– नालन्दा विश्वविद्यालय को बौद्ध धर्म का ऑक्सफोर्ड कहा जाता है।

– यहाँ धर्मगंज नामक पुस्तकालय है जिसके तीन भाग हैं-

    1. रत्नरंजक, 2. रत्नसागर, 3. रत्नोदधी

– चीनी ह्वेनसांग ने नालन्दा से शिक्षा प्राप्त की तथा वापस चीन जाते समय अपने साथ 6000 बौद्ध ग्रंथ ले गया।

स्कंदगुप्त (455-467 ई.) :

– उपाधियाँ – क्रमादित्य, विक्रमादित्य, शक्रोपम, परमभागवत

– गुप्त वंशावली का अन्तिम प्रतापी शासक माना जाता है।

– अपने पिता कुमार गुप्त के समय पुष्यमित्रों के आक्रमण का सामना किया तथा उनकी मृत्यु के बाद शासक बना।

– राज्यारोहण के तुरन्त बाद इसे हूणों के आक्रमण का सामना करना पड़ा।

– स्कंदगुप्त के भीतरी स्तम्भ लेख तथा जूनागढ़ शिलालेख में हूणों पर स्कंदगुप्त की विजयों का उल्लेख है।

– जूनागढ़ अभिलेख में हूणों को ‘मलेच्छा’ कहा गया है।

– कहौम स्तम्भ लेख में स्कंदगुप्त को ‘शक्रोपम’ कहा गया है। स्कंदगुप्त ने पर्णदत्त को सौराष्ट्र का राज्यपाल नियुक्त किया।

– जूनागढ़ शिलालेख से ज्ञात होता है कि स्कंदगुप्त ने सुदर्शन झील का पुनर्निर्माण करवाया था। इस झील का पुनर्निर्माण पर्णदत्त और उसके पुत्र चक्रपालित की निगरानी में करवाया गया था।

– गढ़वा अभिलेख स्कन्दगुप्त का अंतिम लेख है।

– स्कन्धगुप्त ने अयोध्या को अपनी राजधानी बनाया।

– स्कन्दगुप्त के समय के सिक्कों में मिलावट आना शुरू हो गई थी।

– स्कन्दगुप्त ने नन्दि (बैल) प्रकार की मुदाएँ चलाई।

– बौद्ध धर्म अपनाने वाला प्रथम गुप्त शासक पुरुषगुप्त था जो सर्वाधिक आयु (वृद्धावस्था) में शासक बना।

हूण कौन?

– मध्य एशिया की खानाबदोश जाति जो अपनी अपूर्व युद्ध क्षमता हेतु प्रसिद्ध थे।

– हूण नेता तोरमाण ने स्कन्दगुप्त के समय आक्रमण किया जिसमें स्कन्दगुप्त ने तोरमाण को पराजित किया।

– हूणों को पराजित करने के बाद स्कन्दगुप्त ने ‘विक्रमादित्य’ की उपाधि धारण की।

भानुगुप्त – 510 ई.

– भानुगुप्त के समय मालवा पर तोरमाण के पुत्र मिहिरकुल का अधिकार था, इसने हूणों को पराजित करने हेतु एक विशाल सेना तैयार की।

– भानुगुप्त ने अपनी इस सेना का सेनापति ‘गोपराज’ को बनाया।

– भानुगुप्त, मिहिरकुल को पराजित करने में सफल रहे, परन्तु गोपराज वीरगति को प्राप्त हो गए।

– गोपराज की पत्नी ने ‘सती’ का पालन किया जिसे भारतीय इतिहास में सती होने का प्रमाण माना जाता है।

– सती होने का सर्वप्रथम उल्लेख भानुगुप्त के एरण अभिलेख में मिलता है।

– गोपराज की स्मृति में भानुगुप्त ने मध्य प्रदेश में विजय स्तम्भ का निर्माण करवाया।

– परवर्ती गुप्त शासक नरसिंहगुप्त, कुमारगुप्त द्वितीय, बुद्धगुप्त, वैन्यगुप्त, भानुगुप्त, कुमारगुप्त तृतीय, विष्णुगुप्त आदि ने मिलकर 467 ई. से 550 ई. तक शासन किया।

– नोट: ह्वेनसांग के अनुसार “गुप्त शासक” – नरसिंह बलादित्य ने हूण नेता मिहिरकुल को पराजित कर बंदी बना लिया परन्तु उसकी माता के कहने पर उसे मुक्त कर दिया।

गुप्त साम्राज्य का पतन :

– गुप्त साम्राज्य का पतन विभिन्न कारणों का परिणाम था। इसके पतन के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं-

– आनुवंशिक शासकीय पद।

– अयोग्य तथा दुर्बल अधिकारी।

– शासन व्यवस्था का सामंतीकरण।

– बाह्य आक्रमण।

– आर्थिक संकट।

गुप्त काल में कला व संस्कृति

गुप्तकालीन प्रशासन:-

– गुप्त काल को हिन्दू संस्कृति का स्वर्ण-युग व क्लासिकल युग कहा गया है।

– गुप्त साम्राज्य उत्तर में हिमालय से दक्षिण में विंध्य पर्वत तक तथा पूर्व में बंगाल की खाड़ी से लेकर पश्चिम में सौराष्ट्र तक था।

– गुप्त साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र थी।

– गुप्त साम्राज्य की शासन व्यवस्था राजतन्त्रात्मक थी।

– गुप्त प्रशासन में मौर्यकाल के विपरीत विकेन्द्रीकरण की प्रवृति बढ़ने लगी।

– गुप्त सम्राटों को ‘महाराजाधिराज’, परमभट्टारक, एकाधिराज, महाराजाधिराज पृथ्वीपाल, परमेश्वर, सम्राट, परमदेवता, चक्रवर्तिन आदि उपाधियाँ थी।

केन्द्रीय अधिकारी:-

1. प्रतिहार – सुरक्षा अधिकारी

2. महाप्रतिहार – सुरक्षा अधिकारियों का मुखिया

3. महाबलाधिकृत – सेनापति (महासेनापति)    

4. महादण्डनायक – मुख्य न्यायाधीश

5. महासंधिविग्राहिक – सामान्य दिनों में विदेशी मंत्री तथा युद्धकाल में शांति/संधि करना

6. कुमारामात्य    – सर्वोच्च प्रशासनिक अधिकारी (वर्तमान IAS जैसा)

7. अमात्य – गुप्तकालीन नौकरशाह

8. पुस्तपाल – भूमि का लेखा-जोखा रखने वाला

9. दण्डपाशिक – गुप्तकालीन पुलिस अधिकारी (वर्तमान SP के समान)

10. गोल्मिक – वन अधिकारी

11. विनयस्थिति स्थापक – सर्वोच्च धार्मिक अधिकारी

12. महाअक्षपटलिक – आय-व्यय का ब्यौरा रखने वाला (वित्त मंत्री), लेखाधिकारी

13. शोल्किक – सीमा शुल्क वसूलने वाला अधिकारी

14. ध्रुवाधिकारणिक – राजस्व संग्रह करने वाला अधिकारी

15. रणभंडागारिक – सेना की सामग्री जुटाने वाला अधिकारी

16. महा भंडाराधिकृत – कोषाध्यक्ष (राजकोषीय अधिकारी)

17. अग्रहारिक – दान विभाग का प्रमुख

18. करणिक – लिपिक

– समुद्र गुप्त के समय महादण्डनायक, महासंधिविग्रहक व कुमारामात्य-तीनों पद ‘हरिषेण’ नामक कवि के पास थे, जबकि चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय यह तीनों पद हरिषेण के पुत्र ‘वीरषेण’ के पास थे।

– गुप्तों का राज्य चिह्न – गरुड़ था।

– राजा को विष्णु के रूप में पूजा जाता था।

प्रान्तीय शासन

– गुप्त काल में प्रान्त को भुक्ति, अवनी, देश कहा जाता था।

– प्रांतपति को ‘गोप्ता’ या ‘उपरिक’ कहा जाता था

– गुप्त प्रशासन के प्रमुख प्रान्त थे-

      काल

प्रान्त

प्रान्तीय शासन

चन्द्रगुप्त द्वितीय

तीरभुक्ति

गोविंद गुप्त

कुमार गुप्त प्रथम

पूर्वी मालवा (एरण)

घटोत्कच गुप्त

कुमार गुप्त प्रथम

उत्तरी बंगाल (पुण्ड्रवर्द्धन)

चिरादत्त

स्कन्द गुप्त

सौराष्ट्र

पर्णदत्त

अन्य प्रान्त पश्चिमी मालवा (अवन्ति), मगध आदि।

– गुप्त साम्राज्य की इकाई विभाजन 

– जिला को ‘विषय’ कहा जाता था, जिसका प्रधान अधिकारी ‘विषयपति’ (कुमारामात्य) होता था।

– गुप्तकाल में प्रमुख नगर में नगरपालिकाएँ चलती थी और नगर का प्रधान अधिकारी ‘पुरपाल’ होता था।

– जूनागढ़ के लेख से जानकारी मिली कि गिरनार नगर का ‘पुरपाल चक्रपालित’ था, जो सौराष्ट्र के उपरिक (राज्यपाल) पर्णदत्त का पुत्र था।

– गुप्तकाल में राजा द्वारा सीधे संचालित प्रान्त प्रदेश जिनको ‘देश’ कहते थे, इसी देश के राज्यपाल, को ‘गोप्ता’ कहा जाता था। गुप्त काल में ग्राम सभा को मध्य भारत में ‘पंचमण्डली’ कहते थे।

– नगरश्रेष्ठि – व्यापारी /श्रेणियों का प्रधान

– सार्थवाह – व्यवसायियों का प्रधान

गुप्त काल न्याय-प्रशासन-

– गुप्त काल में सम्राट सर्वोच्च न्यायाधीश होता था।

– सम्राट के अलावा एक मुख्य न्यायाधीश होता था-महादण्डनायक।

– स्मृति ग्रन्थों में ‘पूग’ तथा ‘कुल’ नामक न्याय करने वाली संस्थाओं का भी उल्लेख है।

गुप्तकालीन सैनिक संगठन-

– महाबलाधिकृत- सेना का सर्वोच्च अधिकारी

– महापीलुपति -हाथियों की सेना का प्रधान अधिकारी

– भटाश्वपति -घुड़सवारों की सेना का प्रधान अधिकारी।

– रणभाण्डागरिक – सेना में साजो-सामान की व्यवस्था करने वाला अधिकारी।

– प्रयाग प्रशस्ति में गुप्त काल के प्रमुख अस्त्र-शस्त्रों के नाम-शर, तोमर, मिन्दिपाल, नाराच, परशु, शंकु आदि मिले हैं।

भूमि व राजस्व-

– मन्दिरों, ब्राह्मणों को जो भूमि दान में दी जाती थी उसे ‘अग्रहार’ कहा जाता था। यह भूमि सभी करों से मुक्त होती थी।

– गुप्तकाल में भूमि – कर संग्रह करने के लिए भू-आलेखों को सुरक्षित रखने के लिए ‘महाक्षपटलिक’ और ‘करणिक’ नाम के अधिकारी होते थे।

– गुप्त अभिलेखों में भूमिकर को ‘उद्रंग तथा भागकर’ कहा जाता था। स्मृति ग्रन्थों में इसे राजा की वृत्ति कहा गया है।

– गुप्तकाल में राजस्व उपज का छठा भाग लिया जाता था।

– गुप्तकाल में नगर की वस्तुओं के आयात-निर्यात पर ‘भूतोवात प्रत्याय’ नामक कर का उल्लेख है।

– स्कन्द गुप्त के बिहार लेख में ‘शौल्किक’ नामक अधिकारी का उल्लेख है वह सीमा शुल्क विभाग का प्रधान होता था।

– गुप्तकाल में कर की दर 1/4 से 1/6 के बीच होती थी। कृषक हिरण्य (नकद) या मेय (अन्न) दोनों रूप में कर जमा कर सकते थे।

सामाजिक जीवन

– गुप्तकाल में वर्णव्यवस्था में अनेक जातियाँ थी।

– चार वर्णों- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र थे।

– गुप्तकाल में ‘मृच्छकटिम’ रचना में चारुदत्त नामक ब्राह्मण को ‘सार्थवाह’ (व्यापारी) कहा गया है।

– स्मृति ग्रन्थों व फाह्यान के विवरण से जानकारी मिली है कि गुप्तकाल के समाज में अस्पृश्यता मौजूद थी।

– फाह्यान ने अछूतों को ‘चाण्डाल’ कहा है।

– गुप्तकालीन समाज में ब्राह्मण व क्षत्रिय जाति की सर्वाधिक प्रतिष्ठा थी।

गुप्तकालीन आर्थिक जीवन

– गुप्त काल शासनकाल आर्थिक दृष्टि से समृद्ध व सम्पन्न था।

– कालिदास ने कृषि व पशुपालन को महत्त्व दिया है।

– गुप्त काल में व्यवसाय व उद्योग संचालन का कार्य श्रेणियाँ (Guilds) करती थी जो समिति थी।

– मंदसौर अभिलेख में रेशमी सूत बुनने वालों की समिति – पट्वाय श्रेणी का उल्लेख है।

– इन्दौर अभिलेख में ‘तैलिक श्रेणी’ का उल्लेख है।

– गुप्त काल में श्रेणियाँ बैंकों का भी काम करती थी।

– गुप्त काल में सोने व चाँदी के सिक्कों का अनुपात क्रमश: 1:16 था।

– गुप्त काल में उज्जयिनी, भड़ौच, प्रतिष्ठान, विदिशा, पाटलिपुत्र, प्रयाग, ताम्रलिप्ति, वैशाली, अहिच्छत्र, कौशाम्बी, मथुरा आदि प्रमुख व्यापारिक नगर थे।

– चन्द्रगुप्त द्वितीय ने उज्जैन को अपनी दूसरी राजधानी के रूप में विकसित किया था।

– इस काल में भारतीय मालवाहक जहाजों का निर्माण करने लगे। गंगा, नर्मदा, कृष्णा, गोदावरी व ब्रह्मपुत्र नदियों से व्यापार होता था।

– गुप्त काल में बंगाल में ताम्रलिप्ति व पश्चिमी भारत में भृगुकच्छ (भड़ौच) प्रमुख बन्दरगाह थे।

– गुप्त काल में व्यापारी एक जगह से दूसरी जगह वस्तुओं को लेकर जाते थे तो वे समूह में चलते थे। इसे ‘सार्थ’ और इनके मुखिया को ‘सार्थवाह’ कहते थे।

– गुप्त काल में व्यापारियों की एक समिति होती थी जिसे ‘निगम’ कहते थे, निगम के मुखिया को ‘श्रेष्ठि’ कहते थे।

गुप्तकालीन धार्मिक जीवन

– गुप्त सम्राट वैष्णव धर्म के अनुयायी थे इनकी उपाधि ‘परमभागवत’ थी।

– गुप्त काल ब्राह्मण (हिन्दू) धर्म की उन्नति के लिए प्रख्यात है।

– समुद्र गुप्त ने बौद्ध विद्वान वसुबन्धु को अपने पुत्र की शिक्षा-दीक्षा के लिए नियुक्त किया था।

– गुप्त काल के उत्तर भारत में वैष्णव धर्म अत्यधिक प्रचलित था।

– गुप्त काल में भगवान विष्णु के मन्दिरों के निर्माण का उल्लेख है।

– गुप्त काल में विष्णु के अलावा नाग, सूर्य, शिव, यक्ष, दुर्गा, गंगा-यमुना आदि की उपासना होती थी।

गुप्तकालीन साहित्य और विज्ञान :

– साहित्य, विज्ञान, कला व संस्कृति के चहुँमुखी विकास के दृष्टिकोण से गुप्तकाल को भारतीय इतिहास का स्वर्णिम युग कहा जाता है।

– इसी काल को क्लासिकल युग या पेरीक्लीन युग के नामों से भी जाना जाता है।

– गुप्त काल में संस्कृत भाषा की उन्नति हुई तथा गुप्त काल की राजभाषा ‘संस्कृत’ बनी।

– गुप्त शासक संस्कृत भाषा व साहित्य के प्रेमी थे।

– प्रयाग प्रशस्ति समुद्र गुप्त को ‘कविराज’ कहती है।

– हरिषेण की प्रसिद्ध कृति ‘प्रयाग-प्रशस्ति’ है, जिसे इसमें ‘काव्य’ कहा गया है, इसका आधा भाग पद्य में तथा आधा भाग गद्य में है।

– वीर सेन ‘शाब’ की रचना – उदयगिरि गुहालेख है।

– कुमार गुप्त का प्रथम दरबारी कवि वत्सभट्टि था। वह संस्कृत का प्रकाण्ड विद्वान था।

– मालव प्रदेश के दशपुर में सूर्य मंदिर स्थित है, इसका उल्लेख मंदसौर प्रशस्ति में है।

– कवि कालिदास चन्द्रगुप्त द्वितीय के समकालीन था।

– कवि कालिदास ने सात ग्रन्थों की रचना की – कुमार संभव, रघुवंश, ऋतुसंहार, मेघदूत, विक्रमोर्वशीय, मालविकाग्निमित्र तथा अभिज्ञान शाकुन्तलम्।

– कालिदास को ‘भारत का शेक्सपीयर’ कहा जाता है।

– ‘रघुवंश’ 19 सर्गों का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य है।

– कुमार संभव में 17 सर्ग हैं।

– सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य का सर्वोत्कृष्ट नाटक ‘अभिज्ञान-शाकुन्तलम्’ है। ‘किरातार्जुनीय’ महाकाव्य 18 सर्गों का भारवि ने लिखा।

– ‘मृच्छकटिकम’ नाटक शूद्रक ने लिखा जिसमें कुल 10 अंक हैं।

– ‘मुद्राराक्षस’ व ‘देवीचन्द्रगुप्तम्’ नाटक की रचना विशाखदत्त ने की।

– ‘वासवदत्ता’ की रचना सुबन्धु ने की।

– ‘चन्द्रव्याकरण’ नामक संस्कृत व्याकरण ग्रन्थ की रचना बंगाली विद्वान चन्द्रगोमिन् ने की।

– ‘पंचतंत्र’ कथा संग्रह की रचना विष्णु वर्मा ने की। सर्वाधिक 50 भाषाओं में अनुवादित ग्रंथ है।

– ‘अमरकोष’ की रचना अमरसिंह ने की।

– कामन्दक का नीतिसार और वात्स्यायन का कामसूत्र गुप्त काल की रचना है।

– ‘रावणवध’ या ‘भटि्टकाव्य’ की रचना भट्टि ने की थी।

– वराहमिहिर की रचनाएँ ‘वृहत्संहिता और अग्निपुराण’ है।

विज्ञान एवं तकनीकी विकास

– गुप्त काल के आर्यभट्ट, वराहमिहिर एवं ब्राह्मगुप्त संसार के प्रसिद्ध नक्षत्र वैज्ञानिक और गणितज्ञ थे।

– आर्य भट्ट ने अपने ग्रंथ ‘आर्यभट्टीयम्’ (आर्यभट्टीयान) में सर्वप्रथम प्रस्तुत किया कि पृथ्वी गोल है, वह अपनी धूरी पर घूमते हुए सूर्य का चक्कर लगाती है जिससे सूर्य ग्रहण और चन्द्र ग्रहण होते हैं।

– आर्य भट्ट ने दशमलव प्रणाली का विकास किया।

– वराहमिहिर की ‘वृहत्संहिता’ खगोल शास्त्र, वनस्पति विज्ञान तथा प्राकृतिक इतिहास का विश्वकोष है।

– पंचसिद्धान्तिका के टीकाकार भटोत्पल थे इसके पाँच ज्योतिष

सिद्धान्त– पितामह, वशिष्ठ, रोमक, पोलिश, सूर्य हैं।

– चन्द्रगुप्त द्वितीय के दरबार का प्रसिद्ध आयुर्वेदाचार्य धन्वंतरि था।

– आर्यभट्ट चन्द्रगुप्त द्वितीय के नवरत्नों में शामिल नहीं थे।

– आर्यभट्ट ने गणित को ज्योतिष से अलग किया, ऐसा करने वाले ये प्रथम व्यक्ति थे।

आर्यभट्ट ने आर्यभट्टीयम नामक गणित की पुस्तक लिखी आर्यभट्‌टीयम के चार भाग है-

(1) दशगीतिकापाद (2) गणितपाद (3) कालक्रियापाद (4) गोलापाद

– 800 ई. में आर्य भट्ट के ग्रंथ ‘आर्य भट्टीयम्’ का अरबी भाषा में अनुवाद ‘जीज-अल-बहर’ के नाम से जॉर्ज बूलर के द्वारा किया गया।

– वराहमिहिर प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने कहा कि पृथ्वी में कोई ऐसी शक्ति है, जो चीजों को अपनी ओर आकर्षित करती है।

– ब्रह्मगुप्त प्रथम ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त प्रतिपादित किया।

– चन्द्रगुप्त द्वितीय का महरौली लौह स्तम्भ लेख (दिल्ली) गुप्तकालीन धातु-विज्ञान का अद्‌भुत नमूना है।

– बिहार के सुल्तानगंज से प्राप्त बुद्ध की खड़ी हुई ताँबे की प्रतिमा, एक टन वजनी और 71/2 फीट ऊँची है, धातु विज्ञान का उत्कृष्ट नमूना है।

– चन्द्रगुप्त द्वितीय के दरबारी नवरत्न- कालिदास व धन्वन्तरी, वराहमीहिर, अमरसिंह, क्षपणक, शंकु, वेतालभट्‌ट, घटकर्पर तथा वररुचि।

– बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन गुप्त काल में रसायन व धातु विज्ञान का विद्वान था।

– नागार्जुन ने सोना, चाँदी, ताँबा, लोहा आदि में रोग प्रतिरोधक क्षमता की सहायता से व उनकी भस्म से रोग निवारण किया व पारे की खोज की।

– ‘रस चिकित्सा सिद्धांत’ की रचना नागार्जुन ने की।

– प्रख्यात ज्योतिषाचार्य वराहमिहिर की सर्वप्रमुख रचना ‘वृहज्जातक’ है।

– ‘पंचसिद्धान्तिका’, वृहत्

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