मौर्य काल

– मगध के विकास के साथ मौर्य साम्राज्य का उदय हुआ। मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य का शासन पश्चिम में अफगानिस्तान और ब्लूचिस्तान तक विस्तृत था।

मौर्यकालीन इतिहास के स्रोत :

– मौर्य इतिहास का उल्लेख करने वाले अन्य साहित्यिक स्रोतों में चाणक्य का अर्थशास्त्र, क्षेमेन्द्र की ‘वृहत‌्‌कथा मंजरी’, कल्हण की राजतरंगिणी, विशाखदत्त का ‘मुद्राराक्षस’ तथा सोमदेव का ‘कथासरित्सागर’ आते हैं।

– धार्मिक साहित्यिक स्रोत में पुराणों से मौर्यकालीन इतिहास की जानकारी मिलती है।

– बौद्ध ग्रंथों में जातक, दीर्घनिकाय, दीपवंश, महावंश, वंशथपकासिनी तथा दिव्यावदान से मौर्यकाल के विषय में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। जैन ग्रंथों में भद्रबाहु के कल्पसूत्र एवं हेमचन्द्र के परिशिष्टपर्वन से मौर्यकालीन जानकारी प्राप्त होती है।

– अशोक के वृहत् शिलालेख, लघु शिलालेख, स्तंभ लेख, गुहा लेख आदि।

– रुद्रदामन का गिरनार स्थित जूनागढ़ अभिलेख भी मौर्यकाल के विषय में जानकारी प्रदान करता है।



मौर्यों की उत्पत्ति :

– ब्राह्मण परम्परा के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य की माता शूद्र जाति की मुरा नामक स्त्री थी। बौद्ध परम्परा के अनुसार मौर्य ‘क्षत्रिय कुल’ से संबंधित थे। महापरिनिब्बानसुत्त के अनुसार मौर्य पिपलीवन के शासक तथा क्षत्रिय वंश से संबंधित थे।

अर्थशास्त्र :-

– अर्थशास्त्र, कौटिल्य या चाणक्य (चौथी शताब्दी ईसा पूर्व) द्वारा रचित संस्कृत का एक ग्रन्थ है। इसमें राज्यव्यवस्था, कृषि, न्याय एवं राजनीति आदि के विभिन्न पहलुओं पर विचार किया गया है। अपने तरह का (राज्य-प्रबन्धन विषयक) यह प्राचीनतम ग्रन्थ है। इसकी शैली उपदेशात्मक और सलाहात्मक (instructional) है।

– अर्थशास्त्र कुल 15 अधिकरणों (भागों) में विभक्त है यह “राजनीति” से प्रेरित ग्रन्थ है।

– यह प्राचीन भारतीय राजनीति का प्रसिद्ध ग्रंथ है। इसके रचनाकार का व्यक्तिनाम विष्णुगुप्त, गोत्रनाम कौटिल्य (कुटिल से व्युत्पन्न) और स्थानीय नाम चाणक्य (पिता का नाम चणक होने से) था।

– कौटिल्य को भारत के ‘मैकियावली’ की संज्ञा दी गई है।

– “अर्थशास्त्र” को डॉ. श्याम शास्त्री ने सर्वप्रथम 1909 ई. में प्रकाशित करवाया।

– चाणक्य सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य (322-298 ई.पू.) के महामंत्री थे। उन्होंने चंद्रगुप्त के प्रशासकीय उपयोग के लिए इस ग्रंथ की रचना की थी। यह मुख्यत: सूत्र शैली में लिखा हुआ है और संस्कृत के सूत्रसाहित्य के काल और परंपरा में रखा जा सकता है। यह शास्त्र अनावश्यक विस्तार से रहित, समझने और ग्रहण करने में सरल एवं कौटिल्य द्वारा उन शब्दों में रचा गया है, जिनका अर्थ सुनिश्चित हो चुका है।

– अर्थशास्त्र में समसामयिक राजनीति, अर्थनीति, विधि, समाज नीति, तथा धर्मादि पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है।

– इसकी खोज वर्ष 1905 में तंजौर के एक ब्राह्मण ”भट्ट स्वामी” ने हस्तलिखित पांडुलिपि के रूप में की थी, उन्होंने वर्ष 1906-1909 के दौरान इसका संस्कृत भाषा में प्रकाशन करवाया तथा मद्रास के पुस्तकालय अध्यक्ष प्रो.श्याम शास्त्री को यह पांडुलिपि भेंट की।



सप्तांग सिद्धांत :- राज्य को सुव्यवस्थित रूप से संचालित करने हेतु राज्य के सात अंग बताए गए हैं।



इण्डिका:-

– मेगस्थनीज सेल्युकस निकेटर द्वारा चंद्रगुप्त मौर्य की राज्य सभा में भेजा गया था। यह यूनानी राजदूत था। इसके पूर्व वह आरकोसिया के क्षत्रप के दरबार में सेल्युकस का राजदूत रह चुका था। संभवतः वह 305 से 298 ई. पू. के बीच किसी समय पाटलिपुत्र की सभा में उपस्थित हुआ था।

– मेगस्थनीज ने बहुत समय तक मौर्य दरबार में निवास किया। भारत में रहकर उसने जो कुछ भी देखा सुना, उसे उसने इंडिका (Indica) नामक अपनी पुस्तक में लिपिबद्ध किया। दुर्भाग्यवश यह ग्रंथ अपने मूल रूप में आज प्राप्त नहीं है, तथापि उसके अंश उद्धरण रूप में बाद के अनेक यूनानी-रोमीय (Greco-Roman) लेखकों – एरियन, स्ट्रेबो, प्लिनी की रचनाओं में मिलते हैं।

– मेगस्थनीज के अनुसार सबसे बड़ा नगर पाटलिपुत्र था जिसे उसने ‘पोलीब्रोथा’ कहा है। इण्डिका में मौर्य कालीन प्रशासन को छह समितियों द्वारा चलाने का विवरण है जिसमें प्रत्येक समिति में 5 सदस्य होते थे।

– मेगस्थनीज इण्डिका में “उत्तरापथ” का वर्णन करता है। उसके अनुसार मौर्य काल की सबसे लम्बी सड़क का निर्माण चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा करवाया गया था।

– मेगस्थनीज के अनुसार भारतीय लोग हेराक्लीज (कृष्ण) व डायनोसियस(शिव) की पूजा करते थे।

– डॉ. श्वानवेश ने सर्वप्रथम 1846 में इसको प्रकाशित करवाया तथा 1891 ई. में मैक्रिण्डल महोदय ने इसका अंग्रेजी में अनुवाद करवाया

– मैगस्थनीज के अनुसार राजा कर के रूप में ¼ भाग लेता था जबकि कौटिल्य भू-राजस्व की मात्रा 1/6 भाग बताता है।

– मेगस्थनीज की भ्रामक बातें:-

    1. भारत में अकाल नहीं पड़ते हैं। (महास्थान व सहोगरा से प्राप्त ताम्रपत्राभिलेख से अकाल की जानकारी मिलती है।)

    2. भारतीय लोगों को लिखने का ज्ञान नहीं।

    3. भारत में दास प्रथा नहीं है। (भारत में यूनान के समान दास प्रथा नहीं थी)

    4. बौद्ध धर्म का उल्लेख नहीं मिलता है।

– मेगस्थनीज के अनुसार भारतीय समाज 7 जातियों में विभाजित था-

I. दार्शनिक

II. कृषक                                         

III. शिकारी/पशुपालक

IV. व्यापारी/शिल्पी

V. योद्धा

VI. निरीक्षक (इंस्पेक्टर)

VII. मंत्री

मुदाराक्षस:-

– इसमें चन्द्रगुप्त मौर्य को वृषल कहा गया है।

– मुद्राराक्षस संस्कृत का ऐतिहासिक नायिका विहीन नाटक है, जिसके रचयिता विशाखदत्त हैं। इसकी रचना चौथी शताब्दी में हुई थी।

– इसमें चाणक्य और चन्द्रगुप्त मौर्य संबंधी ख्यातवृत्त के आधार पर चाणक्य की राजनीतिक सफलताओं का अपूर्व विश्लेषण मिलता है।

– इस कृति की रचना पूर्ववर्ती संस्कृत-नाट्य परंपरा से सर्वथा भिन्न रूप में हुई है- लेखक ने भावुकता, कल्पना आदि के स्थान पर जीवन-संघर्ष के यथार्थ अंकन पर बल दिया है। यह भारत का प्रथम जासूसी ग्रंथ माना जाता है।

– इस महत्त्वपूर्ण नाटक को हिंदी में सर्वप्रथम अनुदित करने का श्रेय भारतेंदु हरिश्चंद्र को है।

– मुद्रा राक्षस से मौर्यवंश, गुप्तकाल व नंद वंश की जानकारी मिलती है।

राजतरंगिणी:-

– राजतरंगिणी, कल्हण द्वारा रचित एक संस्कृत ग्रन्थ है। ‘राजतरंगिणी’ का शाब्दिक अर्थ है – राजाओं की नदी, जिसका भावार्थ है – ‘राजाओं का इतिहास या समय-प्रवाह’। यह कविता के रूप में है।

– इसमें कश्मीर का इतिहास वर्णित है जो महाभारत काल से आरम्भ होता है। इसका रचना काल 1147 ई. से 1149 ई. तक बताया जाता है । इस पुस्तक के अनुसार कश्मीर का नाम “कश्यपमेरु” था जो ब्रह्मा के पुत्र ऋषि मरीचि के पुत्र थे।

– राजतरंगिणी में अशोक द्वारा झेलम नदी के किनारे “श्रीनगर” नामक नवीन नगर बसाने का उल्लेख मिलता है।

– इसमें कश्मीर का प्रथम मौर्य शासक ‘जालौक’ को बताया गया है।

– यह भारत का प्रथम ऐतिहासिक ग्रंथ माना जाता है।

मौर्य साम्राज्य की स्थापना :-

चद्रगुप्त मौर्य : (322 ई.पू.-298 ई.पू.)

– चन्द्रगुप्त 25 वर्ष की आयु में चाणक्य की सहायता से अंतिम नन्द शासक घनानंद को पराजित कर पाटलिपुत्र के सिंहासन पर बैठा।

– विलियम जोन्स पहले विद्वान थे, जिन्होंने ‘सेंड्रोकोट्स’ की पहचान भारतीय ग्रंथों में वर्णित चन्द्रगुप्त से की।

– मुद्राराक्षस चन्द्रगुप्त मौर्य को शुद्र (वृषल कुल में उत्पन्न) तथा स्पूनर महोदय उसे “पारसीक” मानते हैं।

– सर्वप्रथम ग्रुनवेडेल महोदय ने बताया कि मयूर मौर्यों का राजचिह्न था।

– 305 ई.पू. या उसके आसपास बैक्ट्रिया के शासक सेल्युकस तथा चन्द्रगुप्त के बीच उत्तर – पश्चिमी भारत पर आधिपत्य के लिए एक भीषण युद्ध हुआ जिसमें सेल्युकस की हार हुई। युद्ध का निर्णय मौर्यों के पक्ष में रहा और इसकी समाप्ति के बाद दोनों के मध्य एक संधि हुई।

– संधि की शर्तों का उल्लेख स्ट्रेबो ने किया है। सेल्युकस ने चन्द्रगुप्त को चार प्रान्त एरिया (हेरात), अराकोसिया (कंधार), जेड्रोसिया (मकरान), ब्लूचिस्तान तथा पेरिपेनिसदई (काबुल) दिए।

– सेल्युकस और चन्द्रगुप्त के बीच वैवाहिक संबंध स्थापित हुए।

– चन्द्रगुप्त ने सेल्युकस को 500 हाथी उपहार में दिए।

– सेल्युकस ने चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में अपना एक राजदूत मेगस्थनीज भेजा।

– चन्द्रगुप्त ने अपने साम्राज्य पर राजधानी पाटलिपुत्र से शासन किया, जिसे यूनानी और लैटिन लेखकों ने पालिबोथ्रा, पालिबोत्रा एवं पालिमबोथ्रा नामों से उल्लिखित किया है।

– जैन परम्परा के अनुसार अपने जीवन के अंतिम दिनों में चन्द्रगुप्त ने जैन धर्म स्वीकार कर लिया और अपने पुत्र बिन्दुसार के पक्ष में सिंहासन छोड़ दिया। जैन संत भद्रबाहु के साथ वह मैसूर के निकट श्रवणबेलगोला (कर्नाटक) चला गया जहाँ एक सच्चे जैन मुनि की तरह उपवास द्वारा शरीर त्याग दिया (संल्लेखना विधि)।

– चन्द्रगुप्त मौर्य के जीवन के अंतिम समय में मगध में 12 वर्षों तक भीषण अकाल पड़ा।

बिन्दुसार : (298 ई.पू.-273 ई.पू.)

– चन्द्रगुप्त मौर्य की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र बिन्दुसार उसका उत्तराधिकारी हुआ।

– बिन्दुसार ने अपने बड़े पुत्र सुसीम को तक्षशिला का तथा अशोक को उज्जयिनी का राज्यपाल नियुक्त किया था।

– दिव्यावदान के अनुसार उत्तरापथ की राजधानी तक्षशिला (पाकिस्तान) में विद्रोह हुआ, जिसे शांत करने के लिए बिन्दुसार ने अपने पुत्र अशोक को भेजा था।

– यूनानी शासक एण्टियोकस (सीरीया) ने बिन्दुसार के दरबार में डाइमेकस नामक राजदूत भेजा था।

– मिस्र के राजा टालेमी द्वितीय फिलाडेल्कस ने डाइनोसियस को बिन्दुसार के दरबार में भेजा था।

– बिन्दुसार आजीवक सम्प्रदाय का अनुयायी था।

– यूनानियों ने बिन्दूसार को “अमित्रचेट्स या अमित्रघात” कहा है।

– इसका अन्य नाम “सिंहसेन” भी था।

अशोक (273 ई.पू.-232 ई.पू.):

– अशोक के प्रारम्भिक जीवन के बारे में अभिलेखों से कोई जानकारी नहीं मिलती है। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार उसकी माता का नाम सुभद्रांगी था। जैन ग्रंथों के अनुसार अशोक ने बिन्दुसार की इच्छा के विरुद्ध मगध के शासन पर अधिकार किया था, पुराणों में अशोक को ‘अशोकवर्धन’ तथा दीपवंश में ‘करमोली’ कहा गया है।

– अशोक को भाब्रु अभिलेख में “प्रियदर्शी” तथा मास्की अभिलेख में “बुद्धशाक्य” कहा गया है।

– कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ के अनुसार अशोक का राज्य कश्मीर तक फैला था।

– अशोक की धम्म नीति- अशोक ने प्रजा के नैतिक उत्थान हेतु राजत्व के नए नियमों की संहिता बनाई थी जिसे इसके अभिलेखों में ‘धम्म’ कहा गया है। अशोक के पाँचवे अभिलेख से पता चलता है कि उसने धम्म के प्रचार हेतु रज्जुकों, प्रादेशिकों, युक्तों एवं धम्म महामात्रकों की नियुक्ति की थी।

– धम्म का उल्लेख – 2 व 7 वें स्तंभ लेख में आता है।

– अशोक ने अपने धम्म की परिभाषा “राहुलोवाद सुत” से ली है।

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– धम्म प्रचारक

नाम

क्षेत्र

महेन्द्र तथा संघमित्र

श्रीलंका

मझान्तिक

कश्मीर एवं गांधार

मज्झिम

हिमालय

महाधर्मरक्षित

महाराष्ट्र

रक्षित

वनवासी

सोन तथा उत्तरा

सुवर्ण भूमि

अशोक के अभिलेख

– अभिलेख उन्हें कहते हैं जो पत्थर, धातु या मिट्टी के बर्तन जैसी कठोर सतह पर खुदे होते हैं। अभिलेखों में उन लोगों की उपलब्धियाँ, क्रियाकलाप या विचार लिखे जाते हैं जो उन्हें बनवाते हैं। इनमें राजाओं के क्रियाकलाप तथा महिलाओं और पुरुषों द्वारा धार्मिक संस्थाओं को दिए गए दान का ब्यौरा होता है।

– अशोक ने भारतीय उपमहाद्वीप में सर्वप्रथम शिलालेख का प्रचलन किया था। शिलालेखों के माध्यम से राज्यादेशों तथा उपलब्धियों को संकलित किया गया था जिनमें वह जनता को संबोधित करता है।

– सर्वप्रथम 1750 ई. में टीफेन्थैलर महोदय ने अशोक के दिल्ली – मेरठ स्तम्भ का पता लगाया था।

– सर्वप्रथम जेम्स प्रिंसेप को 1837 ई. में अशोक के अभिलेखों की खोज को पढ़ने में सफलता प्राप्त हुई सर्वप्रथम दिल्ली-टोपरा लेख को पढ़ा गया।

– अशोक के अभिलेखों की भाषा प्राकृत है।

– अशोक के अभिलेख आरमाइक, खरोष्ठी, यूनानी एवं ब्राह्मी चारों लिपियों में पाए गए हैं। लघमान लेख आरमाइक लिपि में हैं। मानसेहरा एवं शाहबाजगढ़ी से खरोष्ठी लिपि के शिलालेख प्राप्त हुए हैं।

– अशोक के अभिलेख को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है- शिलालेख, स्तम्भलेख एवं गुहालेख।

– शिलालेखों की संख्या 14 है, जो आठ भिन्न – भिन्न स्थानों से प्राप्त किए गए हैं।

अशोक के प्रमुख शिलालेख

शिलालेख

स्थान

लिपि

शाहबाजगढ़ी

पेशावर (पाक)

खरोष्ठी

मानसेहरा

मानसेहरा (हजारा जि.)

खरोष्ठी

कलसी

देहरादून (उत्तरांचल)

ब्राह्मी

गिरनार

जूनागढ़ (गुजरात)

ब्राह्मी

एर्रगुड़ी

कुर्नूल (आंध्र प्रदेश)

ब्रुस्टोफेदन

धौली

पुरी (ओडिशा)

ब्राह्मी

जौगढ़

गंजाम (आंध्र प्रदेश)

ब्राह्मी

सोपारा

थाणे (महाराष्ट्र)

ब्राह्मी

– अशोक की रानियों में महादेवी, तिष्यरक्षिता तथा कारूवाकी का नाम आता है।

– सिंहली परम्परा के अनुसार अशोक के पुत्र महेन्द्र एवं पुत्री संघमित्रा विदिशा के श्रेष्ठी पुत्री महादेवी से उत्पन्न हुए थे।

–  अशोक के अभिलेख में उसकी एकमात्र पत्नी कारूवाकी का उल्लेख मिलता है, जो तीवर की माता थी।

– सिंहली अनुश्रुति के अनुसार अशोक ने अपने 99 भाइयों की हत्या कर गद्दी प्राप्त की थी।

– अशोक का वास्तविक राज्याभिषेक 269 ई.पू. में हुआ हालाँकि उसने 273 ई.पू. में सत्ता पर कब्जा कर लिया था।

– कल्हण के अनुसार अशोक ने कश्मीर में ‘श्रीनगर’ नामक नगर की स्थापना की।

– अशोक के शासनकाल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना 261 ई.पू. में कलिंग युद्ध था। कलिंग युद्ध के भीषण नरसंहार को देखकर अशोक इतना द्रवित हुआ कि उसने भविष्य में कभी युद्ध न करने का संकल्प लिया और दिग्विजय के स्थान पर ‘धम्म विजय’ की नीति को अपनाया। कलिंग युद्ध तथा उसके परिणामों के विषय में अशोक के तेरहवें अभिलेख से विस्तृत सूचना प्राप्त होती है।

अशोक के विभिन्न नाम एवं उपाधियाँ

अशोक

व्यक्तिगत नाम, उल्लेख – मास्की, गुर्जरा, नेतुर एवं उडेगोलम अभिलेख में

देवनाम्प्रियदर्शी

राजकीय उपाधि आधिकारिक नाम

अशोकवर्द्धन

पुराण में उल्लेख

स्तम्भ लेख:-

स्तम्भ लेख की संख्या 7 है जो 6 अलग-अलग स्थानों से मिले हैं।

स्तम्भलेख: I

अशोक के राज्याभिषेक के 26 वर्ष बाद लिखित।

धम्म के पालन, सम्मान, उत्साह और आत्मनिरीक्षण द्वारा आनंद प्राप्ति का उल्लेख।

स्तम्भलेख: II

धम्म की विशेषताओं यथा-शुभ, करुणा, उदारता, सत्यता, पुण्यवर्धक, पापनाशक आदि का उल्लेख।

स्तम्भलेख: III

मनुष्य को आत्माचिंतन करने, दुर्गुणों का निदान करने और  सद्गुणों को अपनाने की शिक्षा का उल्लेख।

स्तम्भलेख:- IV

रज्जुकों के कर्तव्यों का उल्लेख।

स्तम्भलेख:- V

कुछ पशु-पक्षियों का वध निषिद्ध एवं 25 कैदियों को मुक्त करने का वर्णन।

स्तम्भलेख:- VI

प्रजा के कल्याण एवं लाभ के लिए धम्मलिपि लिखवाने एवं धम्म का वर्णन।

स्तम्भलेख:- VII

अशोक द्वारा धम्म के अनुपालन में किए गए कार्यों का वर्णन।

– अशोक के 7 स्तंभलेख टोपरा (दिल्ली), मेरठ, इलाहाबाद, रामपूरवा, लौरिया अरेराज (चंपारण), लौरिया नन्दनगढ़ (चंपारण) में पाए गए है। लघु स्तंभ लेख सांची, सारनाथ, रुम्मिनदेई, कौशाम्बी और निगाली सागर में पाए गए है|

अन्य स्तंभलेख

– रुम्मिनदेई स्तंभलेख: इस स्तंभलेख में अशोक की लुम्बिनी यात्रा और लुम्बिनी के लोगों को कर में दी गई छूट का वर्णन। उसने कर की दर को घटाकर 1/8 कर दिया।

– निगालीसागर स्तंभलेख: यह स्तंभलेख मूलतः “कपिलवस्तु” में स्थित था। इस स्तंभलेख में कहा गया है कि अशोक ने “कनकमुनि बुद्ध” के स्तूप की ऊँचाई को बढ़ाकर दुगुना कर दिया था।

– अकबर ने कौशांबी में स्थित प्रयाग स्तम्भ लेख को इलाहाबाद के किले में स्थापित कराया।

– दिल्ली – टोपरा तथा दिल्ली – मेरठ स्तम्भ लेख को फिरोजशाह तुगलक ने दिल्ली में स्थापित करवाया।

लघु स्तम्भ लेख :

– लघु स्तम्भ लेख पर अशोक की “राजकीय घोषणाओं” का उल्लेख है। साँची (रायसेन, मध्य प्रदेश), कौशांबी (इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश), सारनाथ (वाराणसी, उत्तर प्रदेश), रुम्मिनदेई (नेपाल), निग्लीवा (निगाली सागर, नेपाल) तथा इलाहाबाद से लघु स्तम्भ लेख मिले हैं।

– इलाहाबाद स्तम्भ लेख को ’रानी का लेख‘ भी कहा जाता है।

अशोक और बौद्ध धर्म  (कौशाम्बी स्तम्भ लेख):

– प्रारम्भ में अशोक ब्राह्मण धर्म में विश्वास करता था। अशोक के इष्टदेव शिव थे।

– अभिलेखों के अनुसार अशोक को बौद्ध धर्म में दीक्षित करने का श्रेय उपगुप्त को जाता है।

– भाब्रु शिलालेख में अशोक ने बौद्ध, संघ और धम्म में विश्वास व्यक्त किया है (अशोक के बौद्ध होने का प्रमाण)

– अशोक का ‘धम्म’ बौद्ध धर्म नहीं था। तीसरे एवं सातवें स्तम्भ लेख में अशोक ने युक्त, रज्जुक तथा प्रादेशिक नामक पदाधिकारी को जनता के बीच धर्म एवं प्रचार का उपदेश करने का आदेश दिया।

– अनुश्रुतियों के अनुसार अशोक ने 84000 स्तूपों का निर्माण करवाया था।

– बराबर पहाड़ी पर अशोक ने आजीवकों के लिए कर्ण, चौपार, सुदामा व विश्व झोपड़ी गुफा का निर्माण करवाया था।

– अशोक के पौत्र दशरथ ने नागर्जुनी पहाड़ियों में आजीवक सम्प्रदाय के लिए गोपी, लोमर्षि तथा वडथिका गुफा का निर्माण करवाया।

– पुराणों के अनुसार अशोक ने कुल 37 वर्षों तक शासन किया तथा उसके बाद कुणाल गद्दी पर बैठा। दिव्यावदान में उसे ‘धर्मविवर्धान’ कहा गया है।

– बृहद्रथ मौर्य वंश का अंतिम शासक था।

मौर्य प्रशासन :

– मौर्यकालीन प्रशासन की जानकारी हमें मुख्यत: मेगस्थनीज की इंडिका, कौटिल्य की अर्थशास्त्र और अशोक के अभिलेखों से मिलती है।

– इस काल में राजतंत्र का विकास हुआ तथा गणतंत्र का  हृास हुआ।

– मौर्य प्रशासन केन्द्रीकृत प्रकृति का था लेकिन यह लोक-कल्याणकारी राज्य की अवधारणा पर आधारित था।

– यह भारत की प्रथम केन्द्रीकृत प्रशासन प्रणली की शुरुआत थी।

– कौटिल्य का अर्थशास्त्र मौर्यकालीन प्रशासनिक व्यवस्था को समझने का सबसे सरल स्त्रोत है। इसके अनुसार उच्चाधिकारी को ‘तीर्थ’ कहा जाता था, जो वर्तमान में केन्द्रीय मंत्रियों के समकक्ष होते थे।

– कौटिल्य की अर्थशास्त्र में 18 तीर्थों व 26 अध्यक्षों (विभागाध्यक्ष) का उल्लेख आता है।

सामाजिक स्थिति :

– कौटिल्य ने चर्तुवर्णीय सामाजिक व्यवस्था को सामाजिक संरचना का आधार माना है।

– कौटिल्य ने शुद्रों को आर्य कहा है और इन्हें मलेच्छों से भिन्न बतलाया है।

– मेगस्थनीज ने भारतीय समाज को सात वर्गों में विभाजित किया है।

– स्त्रियों को पुनर्विवाह तथा नियोग की अनुमति थी। स्त्रियाँ प्रायः घर के अंदर रहती थीं। ऐसी स्त्रियों को कौटिल्य ने ‘अनिष्कासिनी’ कहा है।

– मेगस्थनीज ने उल्लेख किया है कि भारत में कोई दास नहीं है।

आर्थिक व्यवस्था :

– कृषि मौर्यकाल का प्रमुख व्यवसाय था।

– कृषि, पशुपालन एवं व्यापार को अर्थशास्त्र में सम्मिलित रूप से ‘वार्ता’ कहा गया है।

– ’सीता भूमि’ सरकारी भूमि होती थी।

– भूमि पर उपज का 1/4  से 1/6 भाग कर के रूप में लिया जाता था।

– राज्य की ओर से सिंचाई का पूर्ण प्रबंध था, जिसे सेतुबंध कहा गया है।

– सोहगौरा और महास्थान अभिलेख में दुर्भिक्ष के समय राज्य द्वारा अनाज वितरण का उल्लेख है।

– कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में काषार्पण, पण या धारण (चाँदी निर्मित सिक्के), माषक तथा काकिणी (ताँबे से निर्मित सिक्कों) का उल्लेख किया है।

– मौर्यकाल में गुप्तचरों को गूढ़पुरुष, सर्पमहामात्य, कहा गया है।

महिला गुप्तचरों को ‘वृषली’ कहा जाता था।

– मौर्यकालीन न्यायालय – धर्मस्थीय (दीवानी), कंटकशोधन (फौजदारी)

मौर्य साम्राज्य के पतन के कारण :

– दुर्बल व अयोग्य उत्तराधिकारी,

– साम्राज्य विभाजन,

– केन्द्रीकृत व्यवस्था,

– आर्थिक संकट व सांस्कृतिक समस्याएँ

– अशोक की धार्मिक नीति,

– अशोक की अतिशांतिवादिता नीति, नौकरशाही का अधिकाधिक अनुत्तरदायी होना,

– वित्तीय करों की अधिकता

– भौतिक संस्कृति पर प्रसार

– प्रांतीय शासकों की महत्त्वाकांक्षाएँ

मौर्यकालीन कला व संस्कृति

मौर्य साम्राज्य (322 ई.पू. – 185 ई.पू.) :-

– मगध साम्राज्य के उन्नति की जो प्रक्रिया बिम्बिसार से शुरू हुई, वह मौर्य राजाओं के अधीन पूर्णता को प्राप्त हुई। प्राचीन भारत देश में प्रथम बार एक विशाल चक्रवर्ती साम्राज्य की स्थापना हुई, राजधानी पाटलिपुत्र नगर बनी।

1. साहित्य :-

– ब्राह्मण, बौद्ध तथा जैन साहित्य से मौर्य कालीन कला व संस्कृति की जानकारी मिलती है।

(i) ब्राह्मण साहित्य में पुराण, कौटिल्य का ‘अर्थशास्त्र’, विशाखदत्त का ‘मुद्राराक्षस’ नाटक प्रमुख हैं। इसमें कौटिल्य (चाणक्य) के ‘अर्थशास्त्र’ में मौर्य शासन की प्रमुख जानकारी मिलती है।

(ii) बौद्ध ग्रन्थों में दीपवंश, महावंश, महावंश टीका, महाबोधिवंश, दिव्यावदान आदि से प्रमुख जानकारी मिलती है। इनसे चन्द्रगुप्त मौर्य, बिन्दुसार, अशोक आदि शासकों के बारे में सूचना मिलती है।

(iii) जैन ग्रन्थों में प्रमुख भद्रबाहु का ‘कल्पसूत्र’ तथा हेमचन्द्र का ‘परिशिष्ट पर्वन’ है।

2. विदेशी विवरण :-

– क्लासिकल (यूनानी-रोमन) लेखकों के विवरण से मौर्यकालीन कला एवं संस्कृति का ज्ञान प्राप्त होता है। यूनानी लेखकों ने चन्द्रगुप्त मौर्य के लिए ‘सेन्ड्रोकोटस’ (जस्टिन) व ’एन्ड्रोकोटस’ (प्लूटार्क) के नाम का प्रयोग किया है।

चन्द्रगुप्त मौर्य सिकन्दर का समकालीन था। यूनानी लेखकों में मेगस्थनीज का नाम प्रमुख है, इनकी पुस्तक ‘इंडिका’ (Indica) मौर्य कला व संस्कृति का प्रमुख स्रोत है, यह ग्रन्थ अपने मूलस्वरूप में प्राप्त नहीं है।

3. पुरातत्व :- मौर्य कालीन पुरातात्विक साक्ष्यों में सर्वाधिक महत्त्व अशोक के लेखों का है, अशोक के लेखों के अलावा शक महाक्षत्रप व रुद्रदामन के जूनागढ़ (गिरनार) शिलालेख से जानकारी मिलती है।

शासन प्रबन्ध – चन्द्रगुप्त मौर्य

– मौर्य शासन व्यवस्था का जनक चन्द्रगुप्त मौर्य को माना जाता है।

– चन्द्रगुप्त मौर्य की शासन व्यवस्था की महत्त्वपूर्ण जानकारी हमें कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ व मेगस्थनीज की ‘इण्डिका’ से मिलती है। पश्चिमी भारत के मौर्य प्रशासन की जानकारी रुद्रदामन के ‘गिरनार शिलालेख’ से मिलती है।

सम्राट :-                      

– मौर्य काल की शासन व्यवस्था का स्वरूप राजतन्त्रात्मक था।

– सम्राट अपने कार्यों में अमात्यों, मन्त्रियों तथा अधिकारियों से सहायता प्राप्त करता था। सम्राट अमात्यों में से मंत्री नियुक्त करता था। ये मंत्री एक छोटी उपसमिति के सदस्य थे, जिसे “मन्त्रिण:” कहा जाता था। इसमें कुल तीन या चार सदस्य होते थे।

– कुछ विषय में तुरन्त निर्णय लेना हो (आत्ययिक विषय), उसके लिए ‘मन्त्रिण:’ से परामर्श किया जाता था। इनमें युवराज, प्रधानमंत्री, सेनापति व सन्निधाता (राजकीय कोषाध्यक्ष) आदि सम्मिलित थे। ‘मन्त्रिण:’ के अलावा एक नियमित ‘मन्त्रिपरिषद्’ भी होती थी।

– मन्त्रिपरिषद् के सदस्यों को वार्षिक वेतन 12,000 पण मिलता था।

– मन्त्रिण के सदस्यों को वार्षिक वेतन 48,000 पण मिलता था।

केन्द्रीय अधिकारी – प्रशासन :-

– कौटिल्य के अर्थशास्त्र में मौर्य साम्राज्य के केन्द्रीय प्रशासन की विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। केन्द्रीय प्रशासन अनेक विभागों में बँटा हुआ था। प्रत्येक विभाग को ‘तीर्थ’ कहा जाता था। अर्थशास्त्र में 18 तीर्थों के प्रधान पदाधिकारियों का उल्लेख हुआ है-

1. मन्त्री – प्रधानमंत्री

2. समाहर्ता – राजस्व विभाग का प्रधान अधिकारी होता था। (वित्तमंत्री)

3. पुरोहित – प्रधान परामर्शदाता

4. सन्निधाता – राजकीय कोषालय का प्रमुख अधिकारी होता था।

5. सेनापति – युद्ध विभाग का प्रमुख अधिकारी था।

6. युवराज – राजा का उत्तराधिकारी होता था।

7. प्रदेष्टा – फौजदारी न्यायालय का न्यायाधीश।

8. नायक – नगर रक्षा का अध्यक्ष

9. कर्मान्तिक – राज्य के उद्योग-धन्धों का मुख्य निरीक्षक।

10. व्यावहारिक – दीवानी न्यायालय का न्यायाधीश।

11. मन्त्रिपरिषदाध्यक्ष – मन्त्रिपरिषद् का

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