गागरोन गढ़ झालावाड़

  • गागरोण का किला दक्षिण पूर्वी राजस्थान के सबसे प्राचीन और विकट दुर्गों में से एक है। यह झालावाड़ से 4 किमी. की दूरी पर अवस्थित है। 
  • यह प्रसिद्ध दुर्ग अरावली पर्वतमाला की एक सुदृढ़चट्टान पर कालीसिन्ध और आहू नदियों के संगम-स्थल पर स्थित है तथा तीन तरफ से नदियों से घिरा होने के कारण हमारे प्राचीन शास्त्रों में वर्णित जल दुर्ग की कोटि में आता है।
  • गागरोण का भव्य दुर्ग खींची चौहानों का प्रमुख स्थान रहा है जिसके साथ योद्धाओं के शौर्य और पराक्रम तथा वीरांगनाओं के जौहर की गाथा जुड़ी हुई है।
  • ऐतिहासिक परम्परा के अनुसार गागरोण पर पहले डोड (परमार) राजपूतों का अधिकार था, जिन्होंने इस दुर्ग का निर्माण करवाया। उनके नाम पर यह डोडगढ़ या धूलरगढ़ कहलाया। उसके बाद यह खींची चौहानों के अधिकार में आ गया।
  •  ‘चौहान कुल कल्पद्रुम’ के अनुसार गागरोण के खींची राजवंश का संस्थापक देवनसिंह (उर्फ धारु) था, जिसने बीजलदेव नामक डोड शासक को मारकर धूलरगढ़ पर अधिकार कर लिया तथा उसका नाम गागरोण रखा।
  • यहां के शासक जैतसिंह के शासनकाल में खुरासन के प्रसिद्ध सूफी संत हमीदुद्दीन चिश्ती गागरोण आये जिनकी समाधि यहां विद्यमान है। ये सूफी संत ‘मिट्ठे साहब‘ के नाम से लोक में पूजे जाते हैं।
  • गागरोण में जैतसिंह के तीन पीढ़ी बाद पीपाराव (प्रताप सिंह) एक भक्तिपरायण नरेश हुए। वे दिल्ली के सुल्तान फिरोजशाह तुगलक के समकालीन थे। अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में पीपाजी ने राज्यवैभव त्यागकर प्रसिद्ध संत रामानन्द का शिष्यत्व स्वीकार कर लिया था। यहीं पर पीपाजी की छतरी बनी हुई है।
  • गागरोण का सर्वाधिक ख्यातनाम और पराक्रमी शासक भोज का पुत्र अचलदास हुआ, जिसके शासनकाल में गागरोण का पहला साका हुआ। यह अचलदास मेवाड़ के महाराणा मोकल का दामाद था। इनके शासनकाल में सन् 1423 ई. में मांडू के सुल्तान अलपखाँ गोरी (उर्फ होशंगशाह) ने एक विशाल सेना के साथ गागरोण पर आक्रमण कर किले को घेर लिया। तब भीषण संग्राम हुआ जिसमें अचलदास लड़ते हुए वीर गति को प्राप्त हुए तथा लालां मेवाड़ी ने कई ललनाओं के साथ जौहर किया। इसका वर्णन समकालीन कवि शिवदास गाडण ने अपनी कृति ‘अचलदास खींची री वचनिका‘ में किया है।
  • गागरोण दुर्ग को अधिकृत करने के बाद होशंगशाह ने इसे अपने बड़े शहजादे गजनीखां को सौंप दिया।
  • सन् 1444 ई. में महमूद खिलजी ने गागरोण पर एक विशाल सेना के साथ जोरदार आक्रमण किया। तब गागरोण का दूसरा साका हुआ। उस समय यहां का राजा वीर पाल्हणसी था। विजयी सुल्तान ने इस दुर्ग में एक और कोट का निर्माण करवाया तथा उसका नाम ‘मुस्तफाबाद‘ रखा।
  • सन् 1567 ई. में अपने चित्तौड़ अभियान के लिए जाते समय बादशाह अकबर कुछ दिनों तक यहां ठहरे थे। जहां अबुल फजल के बड़े भाई फैजी ने उससे भेंट की थी।
  • अकबर ने गागरोण दुर्ग बीकानेर के राजा कल्याणमल के पुत्र पृथ्वीराज को जागीर में दे दिया जो भक्त, कवि और योद्धा थे।
  • किले के भीतर राव दुर्सनसाल ने भगवान मधुसूदन का भव्य मंदिर बनवाया। कोटा रियासत के सेनापति जालिमसिंह झाला ने गागरोण के किले में विशाल परकोटे का निर्माण करवाया, उन्हीं के नाम पर इसका नाम ‘जालिमकोट‘ रखा गया।
  • तिहरे परकोटे से सुरक्षित गागरोण दुर्ग के प्रवेश द्वारों में सूरजपोल, भैरवपोल तथा गणेशपोल प्रमुख है। इसकी विशाल सुदृढ़ बुर्ज़ों में रामबुर्ज और ध्वजबुर्ज उल्लेखनीय है।
  • गागरोण के किले के भीतर शत्रु पर पत्थरों की वर्षा करने वाला विशाल यंत्र आज भी विद्यमान है।
  • इस किले के पार्श्व में कालीसिंध के तट पर एक ऊंची पहाड़ी को ‘गीध कराई‘ कहते हैं। जनश्रुति है कि पुराने समय में जब किसी राजनैतिक बन्दी को मृत्युदण्ड देना होता था तब उसे इस पहाड़ी पर से नीचे गिरा दिया जाता था।
  • आहू और कालीसिंध नदियों का संगमस्थल स्थानीय भाषा में ‘सामेलजी‘ के नाम से विख्यात है तथा पवित्र माना जाता है।
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