चित्तौड़गढ़ दुर्ग
- वीरता और शौर्य की क्रीड़ास्थली एवं त्याग व बलिदान का पावन तीर्थ चित्तौड़ का किला राजस्थान का गौरव है।
- रानी पद्मिनी, राजमाता कर्मावती सहस्त्रों वीरांगनाओं के जौहर, वीर गोरा-बादल, जयमल और कल्ला राठौड़ व पत्ता सिसोदिया के अपूर्व पराक्रम और बलिदान का पावन स्थल चित्तौड़ का दुर्ग इतिहास में अपना प्रमुख स्थान रखता है।
- मातृभूमि और स्वाभिमान की रक्षा की गौरव गाथाएँ जो इस किले से सम्बन्धित है वे अन्यत्र दुर्लभ है। इसी कारण यह किला सब किलों का सिरमौर माना जाता है। प्रसिद्ध उक्ति – ‘गढ़ तो चित्तौड़गढ़, बाकी सब गढ़ैया’
- यह दुर्ग चित्तौड़गढ़ जंक्शन से 3-4 किमी. दूर गंभीरी व बेड़च के संगम स्थल के समीप अरावली पर्वतमाला के एक विशाल पर्वत शिखर पर बना है।
- चित्तौड़ का दुर्ग ‘मेसा पठार’ पर स्थित है।
- दिल्ली से मालवा और गुजरात जाने वाले मार्ग पर अवस्थित होने के कारण प्राचीन और मध्यकाल में इस किले का विशेष सामरिक महत्व था।
- मेवाड़ के इतिहास ग्रंथ वीर विनोद के अनुसार मौर्य राजा चित्रांग (चित्रांगद) ने इस किले का निर्माण करके इसका नाम चित्रकोट रखा था, उसी का अपभ्रंश चित्तौड़ है।
- मेवाड़ में गुहिल वंश के संस्थापक बप्पा रावल ने अंतिम मौर्य शासक (मानमोरी) को पराजित कर आठवीं शताब्दी ई. के लगभग इस दुर्ग पर अधिकार कर लिया था।
- कवियों ने चित्तौड़गढ़ की माटी को सोने व चांदी से भी अधिक महंगा माना है-
आवे न सोनों औल में हुए न चांदी होड़,
रगत थाप मंदी रही, माटी गढ़ चित्तौड़।
- एक कवि ने चित्तौड़ के दुर्ग को स्वर्ग की सीढ़ी माना है –
सीधी सीढ़ी सुरनरी जिण री कोयन जोड़,
गढ़ सिरोमणी जय गिणै औ वो हि चित्तौड़।
- क्षेत्रफल की दृष्टि से यह दुर्ग देश का सबसे विशाल दुर्ग है।
- चित्तौड़गढ़ 1560 ई. में राजधानी उदयपुर जाने तक प्रायः 800 वर्ष तक मेवाड़ की राजधानी बना रहा।
- इस दुर्ग का निर्माण प्राचीन शिल्पशास्त्र में वर्णित गिरि दुर्ग के मानक के आधार पर हुआ है।
- दुर्ग में प्रवेश के लिए उत्तर, पूर्व और पश्चिम दिशा की ओर से प्रवेश मार्ग है। पश्चिम दिशा में सात दरवाजों – पांडनपोल, भैरव पोल, हनुमान पोल, गणेशपोल, जोड़लापोल, लक्ष्मणपोल और रामपोल की शृंखला है।
- पूर्व में सूरजपोल है और उत्तर में लखोटाबारी है। सूरजपोल दुर्ग का सबसे प्राचीन दरवाजा हे।
- दुर्ग की पोल के बाहर रावत बाघसिंह का स्मारक है।
- इस दुर्ग का मुख्य दरवाजा ‘सूरजपोल’ है।
- किले का केन्द्रीय और महत्वपूर्ण स्थल गोमुख कुंड है। यहीं पर विजय स्तंभ, समिद्धेश्वर मंदिर, कुंभश्याम मंदिर और महाराणा कुंभा के महल है।
- चित्तौड़ दुर्ग में तीन इतिहास प्रसिद्ध साके हुए। पहला सन् 1303 में हुआ जब दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने राणा रतनसिंह की अनिंद्य सुन्दरी रानी पद्मिनी को पाने की अभिलाषा से आक्रमण किया।
- अलाउद्दीन का दरबारी कवि और लेखक ‘अमीर खुसरो’ इस युद्ध में सुल्तान के साथ था जिसने अपनी कृति ‘तारीख-ए-अलाई’ में इस युद्ध का वृतान्त दिया है।
- महाराणा कुंभा के शासन काल (1433-1468 ई.) में चित्तौड़ अपनी समृद्धि और कीर्ति की परकाष्ठा पर पहुँचा।
- वीरविनोद के अनुसार कुम्भा ने चित्तौड़ के किले में कीर्ति स्तम्भ (विजयस्तम्भ), कुम्भश्याम मंदिर, लक्ष्मीनाथ मंदिर, रामकुण्ड इत्यादि बनवाये।
- इतिहासकार औझाजी ने लिखा है कि पहले चितौड़ के किले में जाने के लिए रथमार्ग नही था इसलिए कुम्भा ने रथमार्ग बनवाया तथा सात प्रवेश द्वार भी बनवाये।
- चितौड़ दुर्ग का दूसरा साका सन् 1534 ई. में हुआ जब गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह ने चितौड़ पर आक्रमण किया तब राजमाता हाड़ी कर्मावती (विक्रमादित्य की संरक्षिका) ने सैकड़ो वीरांगनाओं के साथ जौहर की ज्वाला प्रज्वलित कर अपने प्राणों की आहुति दे दी।
- चितौड़ का तीसरा साका सन् 1567 ई. में हुआ जब मुगल बादशाह अकबर ने चितौड़ के महाराणा उदयसिंह पर आक्रमण किया। इसमें जयमल राठौड़ तथा पत्ता सिसोदिया (सेनापति) शहीद हुए।
- जयमल राठौड़ और पत्ता सिसोदिया की वीरता पर मुग्ध होकर अकबर ने आगरा के किले के प्रवेश द्वार पर उनकी हाथी पर सवार संगमरमर की मूर्तिया स्थापित करवायी थी।
- रावत बाघसिंह चितौड़गढ़ के दूसरे साके के समय मुगल शासक बहादुरशाह से लड़ते हुए शहीद हुए थे।
- इस दुर्ग में जयमल और कल्ला राठौड़ की छतरियाँ बनी हुई है।
- रामपोल (सातवां और अतिम दरवाजा) के सामने मेवाड़ के आमेठ ठिकाने के पत्ता सिसोदिया का स्मारक बना हुआ है।
- महाराणा कुम्भा द्वारा निर्मित विजय स्तम्भ अथवा कीर्ति स्तम्भ इस दुर्ग का प्रमुख आकर्षण है जो नौ खण्डो वाला एवं लगभग 120 फीट ऊंचा है। उसके नौ खण्ड या मंजिले नवनिधियों की प्रतीक है।
- किले की पूर्वी प्राचीर के निकट एक सात मंजिला जैन कीर्ति स्तम्भ है जो जीजाशाह द्वारा निर्मित आदिनाथ का स्मारक बताया जाता है।
- चित्रांग मोरी तालाब, भीमलत तालाब आदि इसी दुर्ग में स्थित है।
- दुर्ग के अन्य महल-भामाशाह की हवेली, हिंगलू आहाड़ा के महल, शृंगार चंवरी, फतह प्रकाश महल, मीरा मंदिर, गोरा-बादल महल।
- झाली बावड़ी (महाराणा उदयसिंह की झाली रानी द्वारा निर्मित) इसी दुर्ग स्थित है।
- कर्नल जेम्स टॉड ने विजय स्तंभ के बारे में लिखा है कि – “दिल्ली की कुतुबमीनार भले ही ऊंची हो, पर विजय स्तंभ की कारीगरी सबसे बढ़कर है।”
- इंजीनियर इतिहासविद् जे. फर्ग्युसन के अनुसार, “यह स्तंभ वीरता के प्रतीक रोम के ट्रोजन टावर से अधिक सुन्दर और वास्तुकला का श्रेष्ठ नमूना हैं।” डा. गौरीशंकर हीराचंद ओझा के अनुसार, “कीर्ति स्तंभ किसी घटना को चिरस्थाई बनाने के लिए निर्मित किए जाते हैं। दिल्ली की कुतुबमीनार की तरह महाराणा कुंभा का बनाया कीर्ति स्तंभ अत्यंत भव्य और अलंकृत स्तंभ हैं। उन्होंने 1437 में मांडू के सुल्तान महमूद को हराने के बाद दुर्ग में गौमुख के समीप विजय स्तंभ का निर्माण (1433-68) कराया था।”
- वर्तमान में यह दुर्ग भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के नियंत्रण में है।
- दुर्ग के बारे में एक ब्रितानी पुराविद् सर ह्यूज केसन के शब्द – “चितौड़ के सुनसान परित्यक्त किले में विचरण करते समय, मुझे ऐसा लगा मानो मैं किसी भीमकाय जहाज की छत पर चल रहा हूँ।”
- जितना साहित्य इस दुर्ग के बारे में रचा गया है, शायद ही विश्व के किसी दुर्ग के बारे में हो।
- चितौड़ दुर्ग के बारे में हिन्दी के यशस्वी कवि श्री श्यामनारायण पांडे के शब्द –
इधर प्रयाग न गंगासागर, इधर न रामेश्वर काशी
यहाँ किधर है तीर्थ तुम्हारा, किधर चले तुम संन्यासी।
तीर्थराज, ‘चितौड़’ देखने को,मेरी आंखे प्यासी।
- महाराणा प्रताप द्वारा चितौड़ के प्रति की गई प्रतिज्ञा लोग भले ही भूल जाएं, पर गाड़िया लौहार नही भूल पाए। देश आजाद होने के बाद प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू ने 6 अप्रेल 1955 ई. को इस दुर्ग में इनको प्रवेश करवाकर इनकी प्रतिज्ञा पूरी कराई। किले के प्रवेश-द्वार पर लगे शिलालेख में कहा गया है, “गाड़िया लौहारों का चित्रकूट में प्रवेश’ चार सौ वर्ष पूर्व जब चित्रकूट (चित्तौड़गढ़) पराधीन हो गया, तब यहां के वीर योद्धाओं- गाड़िया-लौहारों ने दुर्ग छोड़तें समय प्रतिज्ञाएं की थी कि जब तक चित्रकूट स्वतंत्र न हो जाए, तब तक वे- (1) इस दुर्ग पर नहीं चढ़ेंगे, (2) घर बनाकर नहीं रहेंगे, (3) खाट पर नहीं सोएंगें, (4) दीपक नहीं जलाएंगे, और (5) पीने के लिए पानी खींचने का रस्सा नहीं रखेंगे। तब से ये स्वतंत्रता-प्रेमी बैलगाड़ियों में ही घर बनाकर देश के कोने-कोने में भटक रहे हैं।