मौलिक अधिकारपरिभाषा –
– ऐसे अधिकार जो व्यक्ति के जीवन के लिए मौलिक एवं अनिवार्य होते हैं तथा जो संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदान किए जाते हैं, उन्हें मौलिक अधिकार या मूल अधिकार कहते हैं।
नोट –
- मौलिक अधिकार व्यक्ति की न्यूनतम आवश्यकताएँ हैं तथा ये व्यक्ति के व्यक्तित्व विकास की न्यूनतम शर्तें हैं।
- मौलिक अधिकारों का हनन होने पर उच्चतम न्यायालय उनकी रक्षार्थ याचिकाएँ जारी करता हैं।
- मौलिक अधिकारों की अवधारणा अमेरिका से ली गई है।
- भाग-3 को भारतीय संविधान का मैग्नाकार्टा कहा जाता है।
मौलिक अधिकारों की पृष्ठभूमि –
– मौलिक अधिकारों का सर्वप्रथम प्रयोग ब्रिटेन में हुआ था। ब्रिटिश सम्राट जॉन द्वारा 1215 ई. में हस्ताक्षरित अधिकार पत्र मौलिक अधिकार सम्बन्धी प्रथम लिखित दस्तावेज हैं। भारत के मौलिक अधिकार अमेरिका के संविधान से प्रभावित हैं।
– मौलिक अधिकारों की माँग सर्वप्रथम भारत में बाल गंगाधर तिलक ने स्वराज्य विधेयक 1895 ई. के माध्यम से की थी। मौलिक अधिकारों के निर्माण का प्रथम प्रयास वर्ष 1928 में मोतीलाल नेहरू ने ‘नेहरू रिपोर्ट’ के माध्यम से किया था। वर्ष 1931 के कराची अधिवेशन में कहा गया था कि “स्वाधीन भारत के किसी भी संविधान को मौलिक अधिकारों की गारण्टी होनी चाहिए।”
– भारत में सर्वप्रथम मौलिक अधिकारों की स्पष्ट रूप से माँग वर्ष 1935 में जवाहर लाल नेहरू ने की।
भारत का संविधान एवं मौलिक अधिकार –
– भारत के संविधान के भाग-3 में अनुच्छेद-12 से अनुच्छेद-35 तक मौलिक अधिकारों के बारे में वर्णन किया गया है।

मूल अधिकार
1. समता का अधिकार (Right to Equality) (अनुच्छेद – 14-18)
अनुच्छेद-14 | ‘विधि के समक्ष समता’ (Equality before law) एवं ‘विधियों का समान संरक्षण’ (Equal protection of laws)। |
अनुच्छेद-15 | धर्म, मूलवंश (race), जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर विभेद (discrimination) का प्रतिषेध (prohibition)। |
अनुच्छेद-16 | लोक-नियोजन (Public employment) के विषय में अवसर की समता। |
अनुच्छेद-17 | अस्पृश्यता (untouchability) का उन्मूलन। |
अनुच्छेद-18 | उपाधियों का अंत (abolition of titles)। |
2. स्वतंत्रता का अधिकार (Right to Freedom) (अनुच्छेद-19-22)
अनुच्छेद-19 | अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सहित 6 अधिकार- (i) भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, (ii) शांतिपूर्ण सम्मेलन का अधिकार, (iii) संघ, संगठन या सहकारी समिति बनाने का अधिकार, (iv) भारत में कहीं भी अबाध संचरण का अधिकार, (v) भारत में कहीं भी निवास का अधिकार, (vi) कोई वृत्ति (profession), व्यापार (business) आदि करने का अधिकार। |
अनुच्छेद-20 | अपराधों के लिए दोष-सिद्धि के संबंध में संरक्षण। |
अनुच्छेद-21 | प्राण (Life) एवं दैहिक स्वतंत्रता (Personal Liberty) का अधिकार। |
अनुच्छेद-21(क) | प्राथमिक शिक्षा (6-14 वर्ष की आयु तक) का अधिकार। |
अनुच्छेद-22 | कुछ दशाओं में गिरफ्तारी (arrest) और निरोध (detention) से संरक्षण। |
3. शोषण के विरुद्ध अधिकार (Right Against Exploitation) (अनुच्छेद-23-24)
अनुच्छेद-23 | मानव के दुर्व्यापार (human trafficking), बलात् श्रम (forced labour) तथा बेगार का प्रतिषेध। |
अनुच्छेद-24 | कारखानों आदि में बच्चों के नियोजन का प्रतिषेध। |
4. धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार (Right to Freedom of Religion) (अनुच्छेद – 25-28)
अनुच्छेद-25 | अंत:करण (conscience) की स्वतंत्रता और धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार (propagates) करने की स्वतंत्रता। |
अनुच्छेद-26 | धार्मिक कार्यों के प्रबंध की स्वतंत्रता। |
अनुच्छेद-27 | किसी धर्म की अभिवृद्धि के लिए कर नहीं देने की स्वतंत्रता। |
अनुच्छेद-28 | कुछ शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा या धार्मिक उपासना (worship) में उपस्थित होने से स्वतंत्रता। |
5. संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार (Cultural and Educational Rights) (अनुच्छेद-29-30)
अनुच्छेद-29 | भाषा, लिपि और संस्कृति को बनाए रखने का अधिकार। |
अनुच्छेद-30 | शिक्षण संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन करने का अल्पसंख्यक वर्गों (minorities) का अधिकार। |
6. संवैधानिक उपचारों का अधिकार (Right to Constitutional Remedies) (अनुच्छेद-32)
अनुच्छेद-32 | संवैधानिक उपचारों का अधिकार (Right to constitutional remedies) |
इन अधिकारों के अलावा संविधान के भाग-3 में शामिल शेष अनुच्छेदों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है –
अनुच्छेद-12 | संविधान के भाग-3 के प्रयोजन के लिये ‘राज्य’ की परिभाषा। |
अनुच्छेद-13 | संविधान पूर्व या संविधान-पश्चात् निर्मित अन्य विधियों से मूल अधिकारों की सुरक्षा की गारंटी। |
अनुच्छेद-33 | सेना, पुलिस, सुरक्षा बलों, आसूचना (intelligence) संगठनों आदि के मूल अधिकारों को सीमित करने की संसद की शक्ति। |
अनुच्छेद-34 | सेना विधि (Martial law) लागू होने की स्थिति में मूल अधिकारों को सीमित करने की संसद की शक्ति। |
अनुच्छेद-35 | इस भाग (भाग-3) में अपराध घोषित किए गए कार्यों के लिये दंड निर्धारित करने हेतु विधि बनाने की संसद की संसद की शक्ति। |

मौलिक अधिकारों की विस्तृत व्याख्या –
अनुच्छेद-12 – परिभाषा
– इसके अंतर्गत राज्य को परिभाषित किया गया है तथा राज्य में भारत सरकार, राज्य सरकार विधानमण्डल तथा सभी स्थानीय निकाय एवं अन्य ऐसे सभी प्राधिकारी शामिल होंगे जिन्हें संविधान या विधि के अंतर्गत नियम बनाने, कानून बनाने, आदेश जारी करने तथा अधिसूचना जारी करने का अधिकार प्राप्त है।
– अन्य प्राधिकारी के अंतर्गत ऐसे प्राधिकारी या निकाय आते हैं जो संविधान द्वारा सृजित किए जाते हैं और जिन्हें विधि या उपविधि बनाने की शक्ति प्राप्त होती है।
अनुच्छेद-13 – मौलिक अधिकारों से असंगत या उनका अल्पीकरण करने वाली विधियाँ।
– इस अनुच्छेद में मूल अधिकारों से असंगत या उनका अल्पीकरण करने वाली विधियों के संबंध में प्रावधान किए गए हैं।
नोट –मूल संविधान में इसके अंतर्गत 3 धाराएँ थी।
अनुच्छेद-13(i)
– इसमें यह उल्लिखित है कि संविधान के पूर्व की कोई भी विधि संविधान के साथ संगत नहीं होने पर शून्य हो जाएगी ।
अनुच्छेद-13(ii)
- इसमें यह उल्लिखित है कि कोई भी ऐसी विधि जो संविधान के लागू होने के बाद बनाई गई हो। वह विधि संविधान के साथ संगत नहीं होने पर शून्य हो जाएगी।
अनुच्छेद-13(iii)
- इसमें ‘विधि’ शब्द को परिभाषित किया गया है। इसके अनुसार विधि शब्द में संसद अथवा राज्य विधानमंडल द्वारा बनाए गए कानून, अधिसूचना, परिपत्र, आदेश, नियम, विनियम, अध्यादेश तथा प्रथाएँ आदि शामिल हैं।
अनुच्छेद-13(iv)
- 24वें संविधान संशोधन अधिनियम के द्वारा वर्ष 1971 में अनुच्छेद-13 के अन्तर्गत 13(4) नामक धारा जोड़ी गई।
- अनुच्छेद-368 की प्रक्रिया के तहत किए गए संविधान संशोधन अनुच्छेद-13(iii) के अन्तर्गत परिभाषित विधि शब्द में शामिल नहीं है।
मौलिक अधिकारों से असंगत विधियाँ –
– इसके अंतर्गत न्यायालयों को मौलिक अधिकारों का सजग प्रहरी या अभिभावक बनाया गया है। इसके तहत न्यायालय ऐसे किसी भी विधि को अवैध घोषित कर सकता है, जो मौलिक अधिकारों से असंगत हो। इस प्रकार अप्रत्यक्ष रूप से न्यायिक पुनर्विलोकन की अभिव्यक्ति होती है। इसके अंतर्गत निम्नलिखित सिद्धांत निहित हैं–
ग्रहण या आच्छादन का सिद्धांत –
– संविधान लागू होने से पूर्व निर्मित विधि किसी मौलिक अधिकार से असंगत है, तो वह निष्क्रिय हो जाएगी लुप्त नहीं होगी। यदि मौलिक अधिकारों द्वारा लगाया गया प्रतिबंध हटा दिया जाए तो वह पुन: सक्रिय हो जाएगी।
नोट – अनुच्छेद-13 आच्छादान के सिद्धान्त का आधार है।
अधित्याग का सिद्धांत –
– संविधान में कहा गया है कि कोई व्यक्ति संविधान द्वारा प्राप्त मौलिक अधिकारों को स्वेच्छा से नहीं त्याग सकता है।
पृथक्करणीयता का सिद्धांत –
– यदि किसी अधिनियम का कोई भाग असंवैधानिक या मौलिक अधिकारों के विरुद्ध हैं तो अधिनियम के मौलिक उद्देश्य को समाप्त किए बिना अधिकारों से असंगत वाला भाग ही असंवैधानिक घोषित किया जाएगा, सम्पूर्ण अधिनियम नहीं।
अनुच्छेद-14 – विधि के समक्ष समता
– यह विधि के समक्ष समानता अथवा विधि के समान संरक्षण प्रदान करता है। विधि के समक्ष समानता का प्रावधान ब्रिटिश संविधान से लिया गया है और विधि के समान संरक्षण संयुक्त राज्य अमेरिका से। इस व्यवस्था के अनुसार सभी व्यक्ति बिना किसी विभेद देश के सामान्य कानूनों से शासित होंगे अर्थात् कोई भी व्यक्ति विधि से ऊपर नहीं है। मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980) के वाद में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय के बाद अनुच्छेद-14 में निहित विधि के शासन को संविधान का आधारभूत ढाँचा घोषित किया गया है।
विधि के समक्ष समानता का अपवाद –
विधि के समक्ष समता के कुछ अपवाद भी हैं, जो इस प्रकार हैं–
1. (i) राष्ट्रपति एवं राज्यपाल को विधि के समक्ष समानता से छूट प्रदान की गई है। (अनुच्छेद-361)
(ii) राष्ट्रपति एवं राज्यपाल, दोनों अपने पद की शक्तियों के प्रयोग और कर्तव्यों के लिए न्यायपालिका के प्रति उत्तरदायी नहीं होंगे।
(iii) दोनों के विरुद्ध उनके कार्यकाल के दौरान किसी प्रकार की दाण्डिक अथवा आपराधिक कार्यवाही न तो आरंभ होगी और न ही बनी रहेगी।
(iv) राष्ट्रपति व राज्यपाल पर उनके कार्यकाल के दौरान या बाद में सिविल कार्यवाही आरंभ की जा सकती है।
2.कोई भी व्यक्ति यदि संसद के या राज्य विधानसभा के किसी भी सदन की सत्य कार्यवाही से संबंधित विषय वस्तु का प्रकाशन समाचार-पत्र में (रेडियो या टेलीविजन) करता है तो उस पर किसी प्रकार का मुकदमा, देश के किसी भी न्यायालय में नहीं चलाया जा सकेगा। (अनुच्छेद-361-क)
3.संसद या राज्य के विधानमण्डल या संसदीय समिति या राज्य विधानमण्डलीय समिति के किसी सदस्य द्वारा कही गई बात या दिए गए किसी मत के संबंध में उसके विरुद्ध किसी न्यायालय में कार्यवाही नहीं की जाएगी। (अनुच्छेद-105,194)
4.विदेशी संप्रभु (शासक), राजदूत एवं कूटनीतिक व्यक्ति, दीवानी और फौजदारी मुकदमों से मुक्त होंगे।
5.संयुक्त राष्ट्र संघ एवं इसकी एजेंसियों को छूट प्राप्त है।
अनुच्छेद-15 – धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थल के आधार पर विभेद का प्रतिषेध
अनुच्छेद-15 (i)
– राज्य किसी भी नागरिक के साथ धर्म, नस्ल (मूल वंश), जाति, लिंग तथा जन्म स्थान के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा।
अनुच्छेद-15 (ii)
– राज्य किसी भी नागरिक के साथ धर्म, नस्ल (मूल वंश), जाति, लिंग तथा जन्म स्थान के आधार पर दुकानों, भोजनालयों, मनोरंजन के स्थलों, सार्वजनिक मैदानों, तालाबों, कुओं, स्नानागारों पर कोई भेदभाव नहीं कर सकता है।
अनुच्छेद-15 (iii)
– राज्य महिलाओं एवं बच्चों के लिए विशेष प्रावधान करेगा।
अनुच्छेद-15 (iv)
नोट –चंपाकम दौराइजन बनाम मद्रास राज्य (1950) के मामले में संविधान पीठ ने मद्रास में जाति आधारित आरक्षण को समाप्त किया। इस मामले में दिए गए निर्णय के प्रभाव को समाप्त करने हेतु वर्ष 1951 में प्रथम संविधान संशोधन द्वारा अनुच्छेद-15 के अन्तर्गत 15(iv) नामक धारा जोड़ी गई।
– अनुच्छेद-15 (iv) में उल्लिखित है कि राज्य सामाजिक एवं शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों तथा अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लोगों के लिए शिक्षण संस्थानों में विशेष प्रावधान कर सकेगा।
अनुच्छेद-15 (v)
– 93वें संविधान संशोधन अधिनियम के द्वारा वर्ष 2006 में 15(v) नामक धारा जोड़ी गई।
– अनुच्छेद-15 (v) में उल्लिखित है कि राज्य पिछड़े वर्गों के लिए उच्च शिक्षण संस्थानों, जिसमें निजी अनुदानित तथा गैर अनुदानित शिक्षण संस्थान भी शामिल है, में प्रवेश के समय आरक्षण दिया जाएगा।
नोट –अशोक कुमार ठाकुर बनाम भारत संघ (2008) के मामले में 93वें संविधान संशोधन को आधारभूत संरचना के उल्लंघन के आधार पर चुनौती दी गई। इस चुनौती को खारिज कर दिया गया।
अनुच्छेद-15 (vi)
– 103वें संविधान संशोधन अधिनियम के द्वारा वर्ष 2019 में अनुच्छेद-15 के अन्तर्गत 15(vi) नामक धारा जोड़ी गई।
– अनुच्छेद-15 (vi) में उल्लिखित है कि राज्य सामान्य वर्ग आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हुए लोगों को शिक्षण संस्थानों में प्रवेश के समय 10 प्रतिशत आरक्षण देगा।
– यह मौलिक अधिकार केवल भारतीय नागरिकों के लिए हैं। इसके अंतर्गत समता के आधार को विशेष क्षेत्रों में लागू करने की व्यवस्था है। यह धर्म, मूल वंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर किसी भी प्रकार के विभेद को रोकता है।
अनुच्छेद-16- लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता
– अनुच्छेद-16(i) – प्रत्येक नागरिक को राज्य के अधीन सेवाओं में नियोजन एवं नियुक्ति में अवसर की समानता होगी।
नोट – इसी अनुच्छेद में प्रतिष्ठा की स्वतंत्रता अंतर्निहित है।
– अनुच्छेद-16(ii) – राज्य लोक नियोजन के क्षेत्र में किसी भी नागरिक को धर्म, जाति, जन्म स्थान, मूलवंश, लिंग, उद्भव व निवास स्थान के आधार पर लोक नियोजन के क्षेत्र में भेदभाव नहीं करेगा।
– अनुच्छेद-16(iii) – राज्य निवास स्थान के आधार पर विशेष प्रावधान कर सकता है। ऐसा करने हेतु कानून केवल संसद द्वारा बनाए जाएंगे।
– अनुच्छेद-16(iv) – इसमें उल्लिखित है कि राज्य सामाजिक एवं शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों तथा अनुसूचित जाति एवं जनजाति के ऐसे लोग जिनका लोक नियोजन में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं हुआ है उनके लिए लोक नियोजन आरक्षण का प्रावधान किया जा सकेगा।
नोट – अनुच्छेद-340 में यह उल्लिखित है कि संविधान के लागू होने के पाँच वर्ष के भीतर राष्ट्रपति सामाजिक एवं शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े हुए लोगों को पता लगाने हेतु एक आयोग का गठन करेगा।
नोट – वर्ष 2001 में 85वें संविधान संशोधन के द्वारा अनुच्छेद-16(iv)A में प्रावधान किया गया कि पदोन्नत में होने वालों को वरिष्ठता प्राप्त होगी।
– मुकेश कुमार बनाम उत्तराखंड (2020) में यह निर्णय दिया गया था कि पदोन्नति में आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं है।
नोट –81वें संविधान संशोधन अधिनियम के द्वारा वर्ष 2000 में अनुच्छेद-16(iv)B नामक नया अनुच्छेद जोड़ा गया। इस अनुच्छेद के तहत यह प्रावधान किया गया कि ‘बैकलॉग भर्ती’ करते समय 50 प्रतिशत की सिमा को पार किया जा सकता है।
नोट – मूल संविधान के अनुच्छेद-335 में यह प्रावधान था कि लोक सेवाओं में आरक्षण देते समय प्रशासनिक दक्षता को ध्यान में रखा जाएगा। वर्ष 2000 में 82वें संविधान संशोधन द्वारा अनुच्छेद-335 के अन्तर्गत यह भी प्रावधान किया गया कि अनुसूचित जाति एवं जनजाति को अर्हता के अंकों में छूट दी जा सकेगी।
- एम. नागराज वाद में उच्चतम न्यायालय ने आरक्षण देते समय निम्न बातों को ध्यान में रखने का निर्णय दिया।
1. पिछड़ापन – (i) सामाजिक
(ii) शैक्षणिक
2. अपर्याप्त प्रतिनिधित्व
3. प्रशासनिक दक्षता
- 117वें संविधान संशोधन विधेयक के द्वारा अनुच्छेद-16(iv) में उल्लिखित अपर्याप्त प्रतिनिधित्व शब्द हटाना प्रस्तावित किया गया था।
- अनुच्छेद-341 में यह प्रावधान है कि किसी भी जाति को राष्ट्रपति अधिसूचना जारी करके अनुसूचित जाति में शामिल कर सकता है। राज्यों के संदर्भ में राष्ट्रपति राज्यपाल से परामर्श करके किसी भी जाति को अनुसूचित जाति में शामिल कर सकता है।
- अनुच्छेद-342 में यह प्रावधान है कि किसी भी जाति को राष्ट्रपति अधिसूचना जारी करके अनुसूचित जनजाति में शामिल कर सकता है। राज्यों के संदर्भ में राष्ट्रपति राज्यपाल से परामर्श करके किसी भी जाति को अनुसूचित जनजाति में शामिल कर सकता है।
- 102वें संविधान संशोधन अधिनियम वर्ष 2018 में 338B तथा 342A नामक दो नए अनुच्छेद जोड़े गए।
- इंदिरा साहनी वाद में दिए गए निर्णय के बाद पिछड़े वर्गों की स्थिति के अध्ययन हेतु वर्ष 1993 में संसदीय अधिनियम के द्वारा राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग की स्थापना की गई।
- 102वें संशोधन अधिनियम के द्वारा राष्ट्रीय वर्ग आयोग को अनुच्छेद-338B के तहत संवैधानिक दर्जा दिया गया।
- अनुच्छेद-338B में यह प्रावधान है कि किसी भी जाति को राष्ट्रपति अधिसूचना जारी करके पिछड़े वर्ग में शामिल कर सकता है। राज्यों के संदर्भ में राष्ट्रपति राज्यपाल से परामर्श करके किसी भी जाति को पिछड़े वर्ग में शामिल कर सकता है।
क्रीमीलेयर्स –
- इंदिरा साहनी वाद में यह निर्णय दिया गया था कि क्रीमीलेयर्स को आरक्षण के दायरे से बाहर किया जाना चाहिए।
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि क्रीमीलेयरर्स के मापदण्ड सरकार करेगी।
- उच्चतम न्यायालय के आदेश से सरकार द्वारा क्रीमीलेयर्स के निर्धारण हेतु पटना उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश रामनंदन प्रसाद की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया। इस समिति ने क्रीमीलेयर्स के निर्धारण हेतु 2 आधार निर्धारित किए।
(i) आय व (ii) पद
- क्रीमीलेयर्स की अवधारणा केवल पिछड़े वर्ग (OBC) पर लागू होती है।
- जननैल सिंह बनाम लक्ष्मीनारायण गुप्ता (2018) में निर्णय दिया गया था कि अनुसूचित जाति व जनजाति पर भी क्रीमीलेयर्स की अवधारणा लागू की जा सकती है। लेकिन यह लागू करना सरकार पर निर्भर है।
अनुच्छेद-16(v) –
- इसमें यह उल्लिखित है कि कुछ पदों के संदर्भ में आरक्षण वाले प्रावधान लागू नहीं होंगे।
अनुच्छेद-16(vi) –
- 103वें संविधान संशोधन अधिनियम के द्वारा वर्ष 2019 में 16(vi) नामक नई धारा जोड़ी गई।
- अनुच्छेद-16(vi) में यह उल्लिखित है कि सामान्य वर्ग के आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हुए लोगों को लोक नियोजन में 10 प्रतिशत आरक्षण प्राप्त होगा।
नोट – 103वें संविधान संशोधन से पहले आर्थिक पिछड़ेपन शब्द का उल्लेख संविधान में नहीं था।
शैक्षणिक आरक्षण –अनुच्छेद-15[4]अनुच्छेद-15[5]अनुच्छेद-15[6]नौकरियों में आरक्षण –अनुच्छेद-16(4)अनुच्छेद-16(4)Aअनुच्छेद-16(4)Bअनुच्छेद-335अनुच्छेद-16(6) | ||
राजनीति आरक्षण – | ||
अनुच्छेद | प्रावधान | |
330 | – | लोक सभा में अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति का आरक्षण |
331 | – | लोकसभा में आंग्ल भारतीयों का प्रावधान |
332 | – | विधानसभा में अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति का आरक्षण |
333 | – | विधानसभा में आंग्ल भारतीयों का प्रावधान |
243 D | – | पंचायतों में अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति को आरक्षण |
243 T | – | नगरपालिकाओं में अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति को आरक्षण |
नोट – 104वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2020 के तहत अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति का आरक्षण और आगे 10 वर्ष तक बढ़़ा दिया गया है।
नोट – 104वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2020 के द्वारा आंग्ल भारतीयों अनुच्छेद-331 व अनुच्छेद-333 के आधार पर मनोनयन का प्रावधान समाप्त कर दिया गया है।
आर्थिक आधार पर आरक्षण
– 124वें संविधान संशोधन विधेयक (103वाँ संशोधन अधिनियम) के माध्यम से दो नए अनुच्छेद-15(6) तथा 16(6) जोड़े गए हैं। यह संविधान संशोधन सामाजिक न्याय को सुनिश्चित करने के लिये आर्थिक आधार पर भी आरक्षण के प्रावधान को सुनिश्चित करता है।
– यह संशोधन आर्थिक पिछड़ेपन की परिभाषा के बारे में कहता है – “राज्य समय-समय पर पारिवारिक आय तथा अन्य आर्थिक वंचनाओं के संकेतकों का उपयोग कर ‘आर्थिक रूप से पिछड़े समुदाय’ का निर्धारण कर सकेगा।” इस प्रकार राज्य ने निम्नांकित आधारों को आर्थिक रूप से पिछड़े समुदाय को आरक्षण के लिये अनिवार्य बनाया है-
– पारिवारिक आय 8 लाख रुपय वार्षिक से कम हो। ध्यातव्य है कि वर्तमान में ओ.बी.सी. क्रिमीलेयर की सीमा भी 8 लाख रुपये ही है।
– 5 एकड़ से कम कृषि भूमि हो।
– रिहायशी आवास का आकार 1000 स्क्वायर फीट से कम हो।
– नगरपालिका अधिसूचित क्षेत्र में रिहायशी प्लॉट 100 यार्ड से कम हो।
– गैर-नगरपालिका अधिसूचित क्षेत्र में रिहायशी प्लॉट 200 यार्ड से कम हो।
– ‘इंद्रा साहनी मामले (1992)’ में सबसे प्रभावी ढंग से 50% की सीमा की बात रखी गई। 103 वें संशोधन के पूर्व प्रदान किया जाने वाला आरक्षण (49.5%) कुल निर्धारित सीमा (50%) के अनुकूल था। 10% अधिक आरक्षण प्रदान करना सर्वोच्च न्यायालय के पूर्ववर्ती निर्णयों के विरुद्ध है।
अनुच्छेद-17– अस्पृश्यता का अंत
– यह भारतीय समाज में व्याप्त कुरीति अस्पृश्यता का अन्त करता है तथा छुआछूत का समर्थन करने वालों को दण्डित करने की व्यवस्था करता है। संसद ने अनुच्छेद-17 के अधीन शक्ति का प्रयोग करते हुए ‘अस्पृश्यता अपराध अधिनियम,1955’ अधिनियमित किया, जिसे सन् 1976 में पुन: संशोधन कर ‘नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955’ नया नाम दिया गया। अनुच्छेद-17 स्वत: क्रियान्वित कानून है अर्थात् इसके उल्लंघन पर न्यायालय सीधे भारतीय दण्ड संहिता के आधार पर दण्ड दे सकता है।
– अस्पृश्यता में निम्नलिखित बिंदु सम्मिलित हैं-
(i) किसी सार्वजनिक संस्था, जैसे-अस्पताल, शैक्षणिक संस्थाओं में किसी व्यक्ति के प्रवेश को प्रतिबंधित करना।
(ii) सार्वजनिक पूजा स्थलों पर किसी व्यक्ति को पूजा से प्रतिबंधित करना।
(iii) किसी भी सार्वजनिक स्थान में प्रवेश से प्रतिबंधित करना।
(iv) अनुसूचित जाति के लोगों को छुआछूत के नाम पर अपमानित करना।
(v) छुआछूत का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में उपदेश देना।
(vi) छुआछूत को ऐतिहासिक, धार्मिक, दार्शनिक या अन्य किसी आधार पर औचित्यपूर्ण बताना।
नोट – अनुच्छेद-17 को ध्यान में रखते हुए ही वर्ष 1989 में अनुसूचित जाति, जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम-1989 बनाया गया है जो कि सितम्बर, 1990 को लागू हुआ।
नोट – एस.के. महाजन बनाम महाराष्ट्र राज्य (2018) मामले का संबंध इसी अधिनियम से हैं।
अनुच्छेद-18- उपाधियों का निषेध
– यह उपाधियों का उन्मूलन करता है। अनुच्छेद-18 के खण्ड(1) में कहा गया है कि राज्य नागरिक व गैर-नागरिकों को सैनिक तथा शैक्षणिक सेवाओं से जुड़ी उपाधियों के अतिरिक्त अन्य उपाधियाँ देने पर प्रतिबंध लगाता है।
– इसके तहत शिक्षा व सेना को छोड़कर अन्य उपाधियों को समाप्त किया गया है।
(i) कोई भी भारतीय नागरिक किसी अन्य देश से कोई उपाधि प्राप्त नहीं कर सकता।
(ii) कोई भी व्यक्ति जो भारत सरकार के अधीन कार्य कर रहा है तो वो उपाधि प्राप्त नहीं कर सकता है।
(iii) कोई भी व्यक्ति सरकार अधीन लाभ के पद पर हैं तो राष्ट्रपति की अनुमति के बिना किसी अन्य देश से उपाधि नहीं ले सकते हैं।
नोट – बालाजी राघवन बनाम भारत संघ (1995) में उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया था कि भारत रत्न अनुच्छेद-18 का उल्लंघन नहीं है।
नोट- अनुच्छेद-18 का उल्लंघन किए जाने पर कोई कानूनी प्रावधान नहीं है।
नोट-H.V. कामथ ने संविधान सभा में उपाधि लेने पर नागरिकता समाप्त करने का प्रस्ताव रखा।
अनुच्छेद-19- वाक्-स्वातन्त्र्य आदि विषयक कुछ अधिकारों का संरक्षण
– स्वतंत्रता लोकतंत्र का आधारभूत लक्षण है एवं अनुच्छेद-19 केवल भारतीय नागरिकों के लिए हैं। अनुच्छेद-19(1) के अन्तर्गत प्रारम्भ में भारतीय संविधान के द्वारा सभी नागरिकों को कुल 7 स्वतंत्रताएँ प्रदान की गई थी परन्तु 44वें संविधान संशोधन, 1978 के माध्यम से अनुच्छेद-19(1)(च) में उपबंधित सम्पत्ति के अर्जन, धारण और व्ययन की स्वतंत्रता को समाप्त कर दिया गया।
– वर्तमान में भारतीय संविधान के द्वारा सभी नागरिकों को अनुच्छेद-19(1) के अन्तर्गत 6 स्वतंत्रताएँ प्रदान की गई हैं–
1. अनुच्छेद-19(1)(क) – वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
2. अनुच्छेद-19(1)(ख) – शांतिपूर्ण व निरायुद्ध सम्मेलन की
स्वतंत्रता
3. अनुच्छेद-19(1)(ग) – संघ, संगठन या सहकारी समिति
बनाने की स्वतंत्रता (97वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2011 के तहत जुड़ा)
4. अनुच्छेद-19(1)(घ) – अबाध संचरण या आगमन की
स्वतंत्रता
5. अनुच्छेद-19(1)(ङ) – निवास की स्वतंत्रता
6. अनुच्छेद-19(1)(च) – निरसित (44वें संविधान संशोधन 1918 द्वारा समाप्त)
7. अनुच्छेद-19(1)(छ) – रोजगार या जीविका की स्वतंत्रता
नोट – सड़कों के किनारे अस्थाई रूप से ठेला लगाना भारतीय नागरिकों का इस अनुच्छेद में अंतर्निहित अधिकार है।
नोट –
– जयश्री लक्ष्मीराव पाटिल बनाम मुख्यमंत्री महाराष्ट्र (2021) को दिए संविधान पीठ ने अपने निर्णय में मराठा आरक्षण को रद्द किया। इस मामले में निम्न निर्णय दिया गया।
(i) आरक्षण 50% से अधिक नहीं हो सकता है। (इंदिरा साहनी वाद)
(ii) 102वाँ संविधान संशोधन संविधान की आधारभूत संरचना का उल्लंघन नहीं करता है। इसलिए ये संवैधानिक हैं।
– अनुच्छेद-19(i) (a) भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लेख प्रस्तावना में भी है।
नोट – प्रेस की स्वतंत्रता का स्पष्ट उल्लेख संविधान के किसी भी अनुच्छेद में नहीं है। इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ही भाग माना जाता है।
नोट –दामोदर स्वरूप सेठ तथा प्रो. के.टी. शाह ने संविधान सभा में प्रेस की स्वतंत्रता का उल्लेख संविधान में करने का प्रस्ताव रखा था।
नोट – ए.डी. आर. बनाम भारत संघ (2002) में यह निर्णय दिया गया कि उम्मीदवारों की पृष्ठ भूमि की जानकारी देना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ही भाग है।
नोट – नवीन जीन्दल बनाम भारत संघ (2004) के मामले में यह निर्णय दिया गया था कि राष्ट्रपति ध्वज तिरंगा लगाना अथवा फहराना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ही भाग है।
नोट – PUCI बनाम भारत संघ (2013) के मामले में Noto की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का भाग है।
नोट – श्याम नारायण चौकसे बनाम भारत संघ (2016) के मामले में ये निर्णय दिया गया था कि सिनेमा घरों में राष्ट्रीय गान बजाना अनिवार्य है। वर्तमान में स्वैच्छिक है।
- अनुच्छेद-19(2) – देश की एकता और अखण्डता, लोक व्यवस्था, सदाचार एवं शिष्टाचार, मानहानि, न्यायालय की अवमानना, विदेशों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध तथा अपराधों को बढ़ावा देने के आधार पर अनुच्छेद 19(1)(क) पर प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं।
- अनुच्छेद-19(3) – देश की एकता और अखण्डता तथा लोक व्यवस्था के आधार पर अनुच्छेद-19(1)(ख) पर प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है।
- अनुच्छेद-19(4) – देश की एकता और अखण्डता, लोक व्यवस्था और सदाचार के आधार पर अनुच्छेद-19(1)(ग) पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है।
- अनुच्छेद-19(5):- साधारण जनता के हित में तथा अनुसूचित जनजाति के हितों के संरक्षण के आधार पर अनुच्छेद-19(1)(घ) तथा अनुच्छेद-19(1)(ड़) पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है।
- अनुच्छेद-19(6) – साधारण जनता के हित में अनुच्छेद-19(1)(छ) पर प्रतिबंध लगया जा सकता है।
- अनुच्छेद-19 में उल्लिखित सीमाओं के कारण संविधान सभा के सदस्य प्रो.के.टी. शाह ने यह कहा था कि दाएँ हाथ से कुछ दिया गया लेकिन तीन-चार बाएँ हाथ से सब कुछ ले लिया गया।
नोट – (घूमने-फिरने) स्वतंत्र विचरण करने तथा रहने या बसने की स्वतंत्रता पर अनुसूचित जनजाति के हितों की रक्षा के लिए रोक लगाई जा सकती है।
नोट – संविधान सभा में एच.वी. कामथ ने हथियार रखने की स्वतंत्रता का प्रस्ताव रखा था।
– वर्ष 1950 के मामले उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय के प्रभाव को समाप्त करने हेतु वर्ष 1951 में प्रथम संशोधन किया गया। इस संशोधन के द्वारा अनुच्छेद-19 में ‘लोक व्यवस्था’ जैसा शब्द जोड़ा गया।
– मूल संविधान के अनुच्छेद-19 में एकता व सम्प्रभुता शब्द का उल्लेख नहीं था वर्ष 1963 में 16वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा एकता व सम्प्रभुता शब्द अनुच्छेद-19 में जोड़ा गया।
अनुच्छेद-20- अपराधों के लिए दोषसिद्धि के संबंध में संरक्षण
– अनुच्छेद-20 के अन्तर्गत व्यक्तियों को राज्य के विरुद्ध अपराध के संबंध में निम्नलिखित संवैधानिक संरक्षण प्राप्त हैं।
– कार्योंत्तर विधियों से संरक्षण अनुच्छेद-20(1) –
अनुच्छेद-20(1) में कहा गया है कि किसी व्यक्ति को प्रवृत्त विधि के अतिक्रमण या उल्लंघन के आधार पर ही अपराधी ठहराया जाएगा।
– दोहरे दण्ड से संरक्षण– अनुच्छेद-20 के खण्ड (2) में कहा गया है कि किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए एक बार से अधिक ‘दण्डित’ या ‘अभियोजित’ नहीं किया जाएगा।
– आत्म-अभिशंसन से संरक्षण अनुच्छेद-20(3) में कहा गया है कि किसी व्यक्ति को, जो कि अपराधी है, स्वयं अपने विरुद्ध साक्ष्य देने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा।
नोट –सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य (2010) के मामले में अनुच्छेद-20 के आधार पर नार्को/नारको, ब्रेन मैपिंग, लाई डिक्टेक्टर के प्रयोग पर रोक लगाई गई है।
अनुच्छेद-21- प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण
– अनुच्छेद-21 में कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति को उसके प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता से कानून अथवा विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार से वंचित नहीं किया जा सकता। ‘ए.के. गोपालन बनाम मद्रास राज्य, ए.आई.आर. 1950’ मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा, कि अनुच्छेद-21 विधान मण्डल विधि द्वारा किसी व्यक्ति को प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित कर सकता है।
– ‘मेनका गाँधी बनाम भारत संघ ए.आई.आर. 1978’ मामले में उच्चतम न्यायालय ने गोपालन मामले में दिए अपने निर्णय को उलट दिया तथा निर्णय दिया कि अनुच्छेद-21 के तहत प्राप्त संरक्षण केवल कार्यपालिका की मनमानी कार्यवाही के विरुद्ध ही नहीं बल्कि विधानमण्डलीय कार्यवाही के विरुद्ध भी उपलब्ध है अर्थात् विधायिका विधि द्वारा किसी व्यक्ति को उसके प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित नहीं कर सकती है।
– अनुच्छेद-21 की महत्ता के कारण डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने इसे ‘संविधान का मेरुदण्ड’ तथा ‘मैग्नाकार्टा’ कहा है। 44 वें संविधान संशोधन अधिनियम-1978 में संसद ने अनुच्छेद-359 में संशोधन करके स्पष्ट किया कि अनुच्छेद-20 तथा 21 में प्रदत्त स्वतंत्रता के अधिकार को आपातकाल में भी निलम्बित नहीं किया जा सकता।
नोट – बेगम हुश्न आराँ खातून बनाम बिहार राज्य (1978) के मामले में यह निर्णय दिया गया था कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने मामलों की शीघ्रता से सुनवाई का अधिकार है।
– बंधुआ मुक्ति मोर्चा बनाम भारत संघ (1983) के मामले में यह निर्णय दिया गया था कि स्वास्थ्य का अधिकार भी अनुच्छेद-21 का भाग है।
– परमानन्द कटारा बनाम भारत संघ (1989) के मामले में यह निर्णय दिया गया कि सभी व्यक्तियों को उचित समय पर इलाज करवाना अनुच्छेद-21 का भाग है।
नोट – विशाखा बनाम राजस्थान (1997) के मामले में ये निर्णय दिया गया था कि कार्यस्थल पर महिलाओं की यौन उत्पीड़न से सुरक्षा अनुच्छेद-21 का भाग है।
नोट – PUCL बनाम भारत संघ, 2001 के मामले में यह निर्णय दिया गया कि भोजन का अधिकार अनुच्छेद-21 का भाग है।
नोट – PUCL बनाम भारत संघ (2004) के मामले में यह निर्णय दिया गया कि निजता का अधिकार अनुच्छेद-21 का भाग है।
नोट – एम.सी. मेहता बनाम भारत संघ के मामलों में ये निर्णय दिया गया था कि शुद्ध पर्यावरण प्रदान करना भी अनुच्छेद-21 का भाग है।
नोट – के.एस. पुट्टास्वामी बनाम भारत संघ (2017) के मामले का संबंध आधार कार्ड से हैं। इस मामले का संबंध भी निजता के अधिकार (अनुच्छेद-21) से है।
नोट – रामलीला मैदान वाद (2012) के मामले में यह निर्णय दिया गया था कि गहरी नींद लेने का अधिकार भी अनुच्छेद-21 का भाग है।
नोट – अरुणा शानबाग बनाम भारत संघ (2011) के मामले में मरने के अधिकार को अनुच्छेद-21 का भाग मानने से इनकार कर दिया गया लेकिन यह निर्णय दिया गया कि मेडिकल बोर्ड के निर्णय लेने के पश्चात् मरने दिया जा सकता है।
नोट – निखिल सोनी बनाम राजस्थान राज्य (2015) के मामले में राजस्थान उच्च न्यायालय ने जैन धर्म में प्रचलित ‘संथारा’ प्रथा पर रोक लगाई थी। वर्ष 2015 में ही इसके विरुद्ध की गई अपील पर उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के निर्णय पर रोक लगाई।
नोट – नवतेज कौर बनाम भारत संघ (2018) के मामले में समलैंगिकता संबंधों को निजता के अधिकार का भाग मानते हुए इसे अनुच्छेद-21 का भाग माना।
नोट – इस मामले में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 377 पूर्णत: समाप्त नहीं हुई है बल्कि समलैंगिकता को अपराध घोषित करने वाला भाग समाप्त हुआ है।
– जोसेफ साइन बनाम भारत संघ (2018) के मामले में यह निर्णय दिया गया कि IPC (भारतीय दण्ड संहिता) धारा-497 अनुच्छेद-14 व 21 का उल्लंघन करती है।
– तहसीन पूनावाला बनाम भारत संघ (2018) के मामले का संबंध मॉब लिंचिंग से हैं। इस मामले में मॉब लिंचिंग को अनुच्छेद-21 का उल्लंघन मानते हुए लोकतंत्र तथा विधि के शासन हेतु धब्बा कहा गया।
– कॉमन कॉज बनाम भारत संघ (2018) के मामले में निर्णय दिया गया कि अनुच्छेद-21 में गरिमा युक्त मरने का अधिकार भी शामिल है। अर्थात् मरने के बाद सम्मान के साथ दाह संस्कार करने का अनुच्छेद-21 का भाग है।
अनुच्छेद-21(क) – शिक्षा का मौलिक अधिकार
– 86वें संविधान संशोधन अधिनियम-2002 द्वारा संविधान में एक नया अनुच्छेद-21(क) जोड़ा गया जिसमें प्रारंभिक शिक्षा का अधिकार सम्मिलित है। अनुच्छेद-21(क) में कहा गया है कि राज्य का यह कर्तव्य होगा कि वह 6 से 14 वर्ष की आयु के सभी बालकों को नि:शुल्क व अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराए। शिक्षा के मौलिक अधिकार के क्रियान्वयन के लिए संसद ने ‘शिक्षा का अधिकार विधेयक-2009’ पारित किया जो 1 अप्रैल, 2010 से लागू हो गया। राजस्थान ने इसे 1 अप्रैल, 2011 से लागू किया गया।
नोट – अटल जी की सरकार द्वारा वर्ष 2002 में जोड़ा गया।
नोट – अटल जी की सरकार द्वारा वर्ष 2000 में उच्चतम न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एम.एन. वेंकट चलैया की अध्यक्षता में संविधान समीक्षा आयोग का गठन किया गया। वर्ष 2002 में इस आयोग ने अपना प्रतिवेदन दिया। हालाँकि आयोग ने 6 वर्ष से 18 वर्ष के बीच ही शिक्षा को नि:शुल्क करने की अनुशंसा की थी।
अनुच्छेद 22- गिरफ्तारी और निरोध से संरक्षण
– अनुच्छेद-22 गिरफ्तारी एवं निरोध के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करता है। गिरफ्तारी दो प्रकार की होती हैं-
(i) सामान्य दण्ड विधि के अधीन
(ii) निवारक निरोध विधि के अधीन
– अनुच्छेद-22 सामान्य दण्ड विधि के अधीन गिरफ्तारी के संबंध में निम्नलिखित अधिकार प्रदान करता है-
(क) 24 घंटे से अधिक बिना मजिस्ट्रेट के आदेश के विरुद्ध गिरफ्तार नहीं किया जा सकता।
(ख) गिरफ्तारी के कारणों से यथाशीघ्र अवगत कराया जाने का अधिकार।
(ग) अपनी रुचि के विधि-व्यवसायी से परामर्श एवं बचाव का अधिकार।
अपवाद-
– यह अधिकार शत्रु विदेशी को प्राप्त नहीं है।
– निवारक निरोध विधि के अधीन गिरफ्तार व्यक्तियों को भी उपर्युक्त अधिकार प्राप्त नहीं हैं।
नोट – अनुच्छेद-22 में यह उल्लिखित है कि अधिकतम 3 महीने तक गिरफ्तार रखा जा सकता है। यदि उच्च न्यायालय का न्यायाधीश, न्यायाधीश रह चुका अथवा न्यायाधीश बनने की योग्यता रखने वाला व्यक्ति की अध्यक्षता वाली समिति अनुमति दे तो इस अवधि को बढ़ाया जा सकता है।
अनुच्छेद-23- मानव के दुर्व्यापार और बलात् श्रम का प्रतिषेध
– अनुच्छेद-23 में मानव का दुर्व्यापार और बेगार तथा इसी प्रकार का अन्य बलात् श्रम निषिद्ध ठहराया गया है। अनुच्छेद-23 राज्य व निजी व्यक्तियों दोनों के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करता है।
– ‘मानव-दुर्व्यापार’ में मनुष्यों (स्त्री-पुरुष) का वस्तुओं की भाँति क्रय-विक्रय, स्त्रियों व बच्चों का अनैतिक व्यापार (वेश्यावृत्ति) करना तथा दास प्रथा शामिल हैं। मानव दुर्व्यापार से संबंधित कानून बनाने की शक्ति संसद को प्राप्त है। अनुच्छेद-23 व्यक्तियों को बेगार व अन्य इसी प्रकार के बलपूर्वक लिए जाने वाले श्रम अर्थात् बलात् श्रम से संरक्षण प्रदान करता है।
अनुच्छेद-24- कारखानों आदि में बालकों के नियोजन का प्रतिषेध
– अनुच्छेद-24 के अंतर्गत 14 वर्ष से कम आयु के बालकों को कारखानों, खनन अथवा अन्य किसी जोखिम पूर्ण कार्य में नियोजन का निषेध किया गया है।
नोट – अनुच्छेद-24 के उद्देश्यों को पूरा करने हेतु बाल श्रम (निषेध एवं विनियमन) अधिनियम, 1986 बनाया गया है।
अनुच्छेद-25- अंत:करण की और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता
– अनुच्छेद-25(1) के अनुसार सभी व्यक्तियों को अंत:करण की स्वतंत्रता का और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का समान हक होगा। इसके प्रभाव हैं–
– अंत:करण की स्वतंत्रता – किसी भी व्यक्ति को भगवान या उसके रूपों के साथ अपने ढंग से अपने संबंध को बनाने की आंतरिक स्वतंत्रता।
– मानने का अधिकार – अपने धार्मिक विश्वास और आस्था की सार्वजनिक और बिना भय के घोषणा करने का अधिकार।
– आचरण का अधिकार – धार्मिक पूजा, परंपरा, समारोह करने और अपनी आस्था और विचारों के प्रदर्शन की स्वतंत्रता।
– प्रचार का अधिकार – अपनी धार्मिक आस्थाओं का अन्य को प्रचार और प्रसार करना या अपने धर्म के सिद्धांतों को प्रकट करना।
अपवाद-
पहला- कृपाण धारण करना और लेकर चलना। सिख धर्म के मानने का अंग समझा जाएगा।
दूसरा- इस संदर्भ में हिंदुओं में सिख, जैन और बौद्ध सम्मिलित हैं।
नोट – धर्म परिवर्तन करने की स्वतंत्रता अनुच्छेद-25 का ही भाग है। हालाँकि इसका स्पष्ट उल्लेख संविधान में नहीं है।
नोट – अनुच्छेद-25 में ये भी उल्लिखित हैं कि राज्य आर्थिक, राजनीतिक तथा पंथनिरपेक्ष गतिविधियों को नियमित कर सकता है।
नोट – मूल संविधान से ही अनुच्छेद-25 में पंथनिरपेक्ष शब्द का उल्लेख है।
नोट – सिखों के द्वारा कृपाण का धारण करना अनुच्छेद-25 में उल्लिखित धर्म के अनुरूप आचरण है।
नोट – शायरा बानो बनाम भारत संघ (2017) के मामले में तीन तलाक (तलाक-ए-विद्दत) पर रोक लगाई गई।
नोट – अनुच्छेद-25 में ये भी उल्लिखित हैं कि सभी हिन्दू धार्मिक संस्थान सभी वर्गों के लिए खुले रहेंगे। यहाँ हिन्दू शब्द में जैन, बौद्ध एवं सिख भी शामिल हैं।
नोट – इंडियन यंग लॉयर्स एसो. बनाम केरल राज्य (2018) के मामले का संबंध केरल के सबरी माला मंदिर से हैं। इस मामले में अनुच्छेद-14, 17, 21 तथा 25 को आधार बनाकर महिलाओं के मंदिर प्रवेश पर लगी रोक को हटाया गया था।
नोट – दबाव अथवा आर्थिक प्रलोभन के आधार पर धर्म परिवर्तन पर राज्य द्वारा रोक लगाई जा सकती है।
अनुच्छेद-26- धार्मिक कार्यों के प्रबंधन की स्वतंत्रता
– अनुच्छेद-26 के अनुसार, प्रत्येक धार्मिक संप्रदाय या उसके किसी अनुभाग को निम्नलिखित अधिकार प्राप्त होंगे-
1. धार्मिक एवं मूर्त प्रयोजनों के लिए संस्थाओं की स्थापना और पोषण का अधिकार।
2. अपने धर्म विषयक कार्यों का प्रबंध करने का अधिकार।
(iii) जंगम (चल) एवं स्थावर (अच्चल) सम्पत्ति के अर्जन तथा स्वामित्व का अधिकार।
(iv) इस सम्पत्ति का समुचित उपयोग करने का अधिकार होगा।
– अनुच्छेद-26 में ये भी उल्लिखित हैं कि उपर्युक्त सभी अधिकार लोक व्यवस्था, सदाचार तथा स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए प्राप्त होंगे।
– अनुच्छेद-26 के आधार पर ही धार्मिक संस्थाएँ आयकर के दायरे में नहीं आती है।
अनुच्छेद-27- किसी विशिष्ट धर्म की अभिवृद्धि के लिए कर भुगतान के बारे में स्वतंत्रता
– किसी भी व्यक्ति को किसी विशिष्ट धर्म या धार्मिक संप्रदाय की अभिवृद्धि या पोषण में व्यय करने के लिए करों के संदाय हेतु बाध्य नहीं किया जाएगा। करों का प्रयोग सभी धर्मों के रख-रखाव एवं उन्नति के लिए किया जा सकता है।
अनुच्छेद-28- कुछ शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा या धार्मिक उपासना में उपस्थित होने के बारे में स्वतंत्रता
– अनुच्छेद-28 के अंतर्गत राज्य-निधि से पूर्णत: पोषित किसी शिक्षा संस्था में कोई धार्मिक शिक्षा न दी जाए। हालाँकि यह व्यवस्था उन संस्थाओं में लागू नहीं होती, जिनका प्रशासन तो राज्य कर रहा हो लेकिन उनकी स्थापना किसी विन्यास या न्यास के अधीन हुई हो।
नोट –अरुणा राय बनाम भारत संघ के मामले में यह निर्णय दिया गया कि पंथ निरपेक्षता संविधान की विशेषता है तथा एस.आर. बोम्मबई बनाम कर्नाटक राज्य (1994) के मामले में पंथ निरपेक्षता को संविधान की आधारभूत संरचना का भाग माना गया।
अनुच्छेद-29- अल्पसंख्यक वर्गों के हितों का संरक्षण
- यह मौलिक अधिकार अल्पसंख्यकों के अधिकार से संबंधित हैं।
- संविधान के किसी भी अनुच्छेद में ‘अल्पसंख्यक’ शब्द परिभाषित नहीं है।
- उच्चतम न्यायालय के आदेश के (अश्विनी कुमार उपाध्यक्ष बनाम भारत संघ 2020), अनुसार अल्पसंख्यक का निर्धारण देश की जनसंख्या के आधार पर किया जाता है न की राज्य की जनसंख्या के आधार पर।
नोट –भारतीय संविधान में अल्पसंख्यक वर्ग स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं हैं परन्तु उनके संरक्षण के लिए विशेष व्यवस्था की गई है। भारतीय संविधान में भाषायी व धार्मिक आधारों पर अल्पसंख्यकों का निर्धारण होता है।
अनुच्छेद-29 (i)
– सभी अल्पसंख्यकों को अपनी भाषा लिपि एवं संस्कृति को बनाए रखने का अधिकार होगा।
नोट – संविधान के तहत अल्पसंख्यक दो प्रकार के होते हैं। (A) भाषा (B) धर्म
अनुच्छेद-29 (ii)
- इसमें ये उल्लिखित हैं कि किसी भी व्यक्ति को धर्म, जाति मूल वंश तथा भाषा के आधार पर शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश से नहीं रोका जा सकता है।
अनुच्छेद-30- शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन करने का अल्पसंख्यक वर्गों का अधिकार
- अनुच्छेद-30(i) के तहत सभी अल्पसंख्यकों को अपनी शिक्षण संस्थाओं की स्थापना करने तथा उसका प्रबंधन करने का अधिकार होगा।
नोट – अनुच्छेद-30 के कारण ही मदरसों में इस्लामिक शिक्षा दी जाती है। तथा अनुच्छेद-30 के कारण ही शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थाओं पर लागू नहीं होता है।
- अनुच्छेद-30 (2) में यह स्पष्ट उल्लिखित है कि राज्य वित्तीय अनुदान देते समय किसी अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान में कोई भेदभाव नहीं करेगा।
अनुच्छेद-31- संपत्ति के अधिकार (निरस्त)
अनुच्छेद-31क- संपदा के अधिग्रहण के लिए कानून की सुरक्षा
– इसमें यह उल्लिखित है कि राज्य संपत्ति के समुचित प्रबंधन तथा लोकहित में इसके उपयोग हेतु वह संपत्ति अधिगृहीत कर सकता है।
अनुच्छेद-31ख- कुछ अधिनियमों और विनियमों की वैधता।
– इसमें यह उल्लिखित है कि राज्य ऐसी विधि का निर्माण कर सकता है जो भाग-3 से असंगत तथा उसे न्यायालय में चुनौती नहीं दी जाएगी। उन विधियों का उल्लेख 9वीं अनुसूची में है।
नोट – संविधान सभा में बेगम अयाज रसूल ने अनुच्छेद-31 को संविधान पर काला धब्बा की संज्ञा दी थी।
नोट – संविधान सभा के प्रो. शिब्बन लाल सक्सेना ने अनुच्छेद-31 को पूँजीवाद का “घोषणा-पत्र कहा”। उनके अनुसार अनुच्छेद-31 के कारण नीति-निदेशक तत्त्वों को लागू करने की कठिनाई आएगी।
अनुच्छेद-31ग- नीति निदेशक सिद्धांतों पर प्रभाव डालने वाले कानूनों की सुरक्षा।
– इसमें यह उल्लिखित किया गया कि अनुच्छेद-39 (b) व (c) को मौलिक अधिकारों पर प्राथमिकता दी जाएगी।
नोट – 25वें संविधान संशोधन के द्वारा वर्ष 1971 में 31C नामक नया अनुच्छेद जोड़ा गया।
नोट – 42वें संविधान संशोधन द्वारा वर्ष 1976 में अनुच्छेद-31C में यह प्रावधान किया गया कि सभी नीति-निदेशक तत्त्वों को मौलिक अधिकारों पर प्राथमिकता दी जाएगी।
नोट – मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980) के मामले में 42वें संशोधन अधिनियम को चुनौती दी गई।
मिनर्वा मिल्स वाद में अनुच्छेद-31 C के अन्तर्गत 42वें संशोधन के द्वारा जो संशोधन किया गया उसे रद्द कर दिया गया।
अनुच्छेद-31घ- राष्ट्र विरोधी गतिविधियों से संबंधित कानूनों की सुरक्षा (निरस्त)
- 42वें संशोधन अधिनियम द्वारा वर्ष 1976 में 31D नामक नया अनुच्छेद जोड़ा गया। इसमें यह प्रावधान था कि राष्ट्र विरोधी गतिविधियाँ एवं राष्ट्र विरोधी संगठनों को नियंत्रित करने के लिए बनाए गए कानूनों को चुनौती नहीं दी जाएगी।
- 43वें संशोधन अधिनियम द्वारा (मोरारजी) वर्ष 1978 में अनुच्छेद-31D को समाप्त कर दिया गया।
- नोट – 26वें संविधान संशोधन द्वारा वर्ष 1971 में राजा-महाराजाओं की पेंशन तथा प्रिवीपर्स को समाप्त किया गया।
- नोट – केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य (1973) के मामले के तहत 24वें, 25वें, 26वें संशोधन अधिनियम को चुनौती दी गई, चुनौती खारिज कर दी गई लेकिन न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि संविधान की आधारभूत संरचना का उल्लंघन किए जाने पर संविधान संशोधनों को भी न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है।
अनुच्छेद-31 | संपत्ति के अधिकार |
अनुच्छेद-31A | राज्य संपत्ति को अधिगृहीत कर सकता है। |
अनुच्छेद-31B | विधि को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती है। |
अनुच्छेद-31C | अनुच्छेद-39b व अनुच्छेद-39c को मौलिक अधिकारों पर प्राथमिकता दी जाएगी। |
अनुच्छेद-31D | राष्ट्र विरोधी गतिविधियों वाले कानून को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती। |
संवैधानिक उपचारों का अधिकार(अनुच्छेद-32)
– अनुच्छेद-32 (i) – मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होने पर उच्चतम न्यायालय इनकी रक्षा हेतु याचिकाएँ जारी करता हैं।
– अनुच्छेद-32 (ii) – इसमें उल्लिखित है कि उच्चतम न्यायालय मौलिक अधिकारों की रक्षा हेतु पाँच प्रकार की याचिकाएँ जारी करता हैं।
– अनुच्छेद-32 संवैधानिक उपचारों के अधिकार को डॉ. अम्बेडकर ने ‘भारतीय संविधान की आत्मा’ और ‘संविधान की प्राचीर’ कहा है। सम्पूर्ण भारतीय क्षेत्र से कोई भी व्यक्ति अपने मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए सीधे सर्वोच्च न्यायालय में अपील कर सकता है।
– रिट जारी करने की शक्ति सर्वोच्च न्यायालय को अनुच्छेद-32 के अन्तर्गत जबकि उच्च न्यायालय को अनुच्छेद-226 के अन्तर्गत प्राप्त है। उच्च न्यायालय विधिक अधिकार (कानूनी अधिकार) के सम्बन्ध में अन्तरिम राहत प्रदान करने हेतु “इन-जक्सन” नामक रीट भी जारी कर सकता है। इसी कारण रिट जारी करने के सम्बन्ध में उच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार व्यापक है।
नोट – विधिक अधिकारों का उल्लंघन होने पर उच्चतम न्यायालय किसी भी प्रकार की रिट जारी नहीं करता है।
प्रमुख रिट या प्रलेख निम्न हैं–
– बन्दी प्रत्यक्षीकरण (Habeas corpus) – इसका शाब्दिक अर्थ है ‘को प्रस्तुत किया जाए’ यह रिट ऐसे व्यक्ति या प्राधिकारी के विरुद्ध जारी की जाती है, जिसने किसी व्यक्ति को अवैध रूप से निरुद्ध किया है। इसके अनुसार न्यायालय निरुद्ध या कारावासित व्यक्ति को अपने समक्ष उपस्थित कराता है।
– परमादेश (MANDAMUS) – इसका शाब्दिक अर्थ है- ‘हम आदेश देते हैं।’ इस रिट का प्रयोग ऐसे अधिकारी को आदेश देने के लिए किया जाता है जो सार्वजनिक कर्तव्यों को करने से इंकार या उपेक्षा करता है।
यह रिट राष्ट्रपति एवं राज्यपाल के विरुद्ध जारी नहीं की जा सकती है।
– प्रतिषेध (Prohibition) – इसका अर्थ है- ‘मना करना या रोकना।’ इसके अनुसार ऐसी अधिकारिता का प्रयोग करने से निषिद्ध किया जाता है, जो उसमें निहित नहीं है। यह रिट सिर्फ न्यायिक या अर्द्धन्यायिक कृत्यों के विरुद्ध जारी की जाती है। जिस तरह परमादेश सीधे सक्रिय रहता, प्रतिषेध सीधे सक्रिय नहीं रहता है।
– उत्प्रेषण (CERTIORARI) – इसका शाब्दिक अर्थ है- ‘सूचना देना या प्रमाणित होना।’ उत्प्रेषण प्रलेख प्रतिषेध प्रलेख के समान ही है क्योंकि दोनों अधीनस्थ न्यायालयों के विरुद्ध जारी की जाती हैं किन्तु दोनों प्रलेखों में मुख्य अन्तर यह है कि प्रतिषेध रिट कार्यवाही के दौरान, कार्यवाही को रोकने के लिए जारी की जाती है जबकि उत्प्रेषण रिट कार्यवाही की समाप्ति पर निर्णय को रद्द करने हेतु जारी की जाती है।
नोट – दोनों याचिकाएँ न्यायिक संस्थाओं को जारी की जाती है।
नोट – प्रतिषेध याचिका कार्य के दौरान जबकि उत्प्रेषण याचिका कार्य समाप्ति के बाद जारी की जाती है।
अधिकार पृच्छा (Quo warranto) – इसका शाब्दिक अर्थ ‘किसी प्राधिकृत या वारंट के द्वारा है।’ यदि किसी व्यक्ति के द्वारा गैर वैधानिक तरीके से किसी भी पद को धारण किया गया हो तो न्यायालय इस रिट के माध्यम से उसके पद का आधार पूछती है। अन्य चार रिटों से हटकर इसे किसी भी इच्छुक व्यक्ति द्वारा जारी किया जा सकता है, न कि पीड़ित द्वारा। इसे मंत्रित्व और निजी कार्यालय के लिए जारी नहीं किया जा सकता।
नोट – अनुच्छेद-32(iii) में उल्लिखित है कि संसद विधि बनाकर अन्य न्यायालय को भी याचिका जारी करने का अधिकार दे सकती है।
नोट – डॉ. अम्बेडकर ने अनुच्छेद-32 को भारतीय संविधान की आत्मा कहा।
नोट – याचिका जारी करने के मामले उच्चतम न्यायालय की तुलना में उच्च न्यायालय ज्यादा शक्ति है। इसके दो कारण है-
(i) अनुच्छेद-226 के आधार पर उच्च न्यायालय 6 याचिकाएँ जारी करता है। तथा अनुच्छेद-226 के तहत उच्च न्यायालय इंजक्शन नाम की याचिका भी जारी करते हैं। इस याचिका के अन्तर्गत व्यक्ति ‘अन्तरिम राहत’ उपलब्ध कराई जाती है।
(ii) उच्चतम न्यायालय केवल मौखिक अधिकारों की रक्षा के लिए याचिका जारी करता है जबकि उच्च न्यायालय मौलिक अधिकारों के साथ-साथ अन्य विधि अधिकारों के लिए भी याचिकाएँ जारी करते है।
नोट – याचिकाएँ जारी करने का अधिकार उच्चतम न्यायालय व उच्च न्यायालय दोनों को है।
अनुच्छेद-33
– अनुच्छेद-33 में उल्लिखित है कि अनुशासन बनाए रखने के लिए सेना, अन्वेषण लोक व्यवस्था से जुड़े लोगों के मौलिक अधिकारों में संसद विधि बनाकर कमी कर सकती है।
अनुच्छेद-34
– मार्शल लॉ अथवा सैन्य शासन स्थापित हो जाने पर नागरिकों के मौलिक अधिकारों के हुए नुकसान की भरपाई हेतु संसद विधि बना सकता है।
अनुच्छेद-35
– इसमें यह उल्लिखित है कि अनुच्छेद-16 (iii), अनुच्छेद-32 (iii), अनुच्छेद-33 तथा अनुच्छेद-34 के सन्दर्भ में विधि बनाने का अधिकार केवल संसद को है। राज्य विधानमण्डल को नहीं है।
नोट – अनुच्छेद-15, अनुच्छेद-16, अनुच्छेद-19, अनुच्छेद-29 तथा अनुच्छेद-30 केवल भारतीय नागरिकों को ही प्राप्त है।
जनहित याचिका/लोकहितवाद
(1)लोगों के मौलिक अधिकारों की रक्षा हेतु उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय द्वारा याचिका स्वीकार करना जनहित याचिका या लोकहित वाद कहलाता है।
(2)लोकहित वाद जैसा शब्द संविधान में उल्लिखित नहीं है। यह अवधारणा अमेरिका से ली गई है।
पी.एन. भगवती भारत के 17वें मुख्य न्यायाधीश थे। इन्हें भारत में लोकहित वाद का जनक कहा जाता है।
नोट – लोकहित वाद के सन्दर्भ में वी.आर. कृष्णन अय्यर का भी महत्त्वपूर्ण योगदान है। वे उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीश थे। वे एकमात्र व्यक्ति हैं, जो व्यवस्थापिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका तीनों के सदस्य रह चुके हैं।
नोट – बेगम हुश्न आरा खातुन बनाम बिहार राज्य (1978) के मामले से भारत में P.I.L. की शुरुआत मानी जाती है। इस मामले में अधिवक्ता कपिला हिंगोरानी थी, जिन्हें भारत में लोकहित की जननी कहा जाता है।
नोट – S.P. गुप्ता बनाम भारत संघ (1982) के मामले में लोकहित वाद (PIL) को भारतीय सन्दर्भ