भारतीय संविधान की विशेषताएँ
भारतीय संविधान की प्रकृति/विशेषताएँ
(Nature/Characteristics of Indian Constitution)
इसकी मुख्य विशेषताओं की चर्चा निम्नांकित शीर्षकों के अंतर्गत की जा सकती है-
भारतीय संविधान की प्रमुख विशेषताएँ
– भारत के संविधान निर्माताओं ने इस देश की ऐतिहासिक, सामाजिक, धार्मिक तथा राजनीतिक परिस्थितियों को दृष्टिगत रखकर संविधान का निर्माण किया। भारत के संविधान की अपनी विशेषताएँ हैं जो हमसे विश्व के अन्य संविधानों से अलग करती हैं यद्यपि इसमें विश्व के महत्त्पूर्ण संविधान के सर्वश्रेष्ठ गुणों को समाहित किया गया है तथापि इसमें भारतीय परिस्थितियों के अनुसार आवश्यक परिवर्तन के साथ ही अन्य संविधानों के लक्षणों का समावेश भी किया गया। भारत के संविधान निर्माता डॉ. अंबेडकर ने कहा था कि भारतीय संविधान में व्यावहारिक परिवर्तन की क्षमता है और इसमें शांति काल में, युद्ध काल में, देश की एकता को बनाए रखने का भी सामर्थ्य हैं।
भारत के संविधान की प्रमुख विशेषताएँ
1. लोकप्रिय प्रभुसत्ता पर आधारित संविधान
भारत का संविधान लोकप्रिय प्रभुसत्ता पर आधारित संविधान है अर्थात् यह भारतीय जनता द्वारा निर्मित एक संविधान द्वारा अंतिम शक्ति भारतीय जनता को प्रदान की गई हैं। संविधान की प्रस्तावना में कहा गया हम भारत के लोग दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज दिनांक 26 नवंबर, 1949 को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं इस प्रकार भारत का संविधान भारत शासन अधिनियम 1935 की तरह बाहरी शक्ति की कृति नहीं वरन भारतीय जनता द्वारा निर्मित अधिनियमित अंगीकृत है।
2. उद्देशिका (प्रस्तावना)
– भारत के संविधान के मौलिक उद्देश्य एवं लक्ष्य को संविधान की प्रस्तावना में दर्शाया गया है डॉ. के.एम. मुंशी ने इस संविधान की प्रस्तावना को राजनीतिक कुंडली तथा इसके महत्त्व के कारण इसे संविधान की आत्मा कहा जाता है मूल प्रस्तावना में समाजवादी पंथनिरपेक्ष और अखंडता शब्दों को 42वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976 के द्वारा जोड़ा गया। डॉ. के.एम. मुंशी ने संविधान की प्रस्तावना की मुख्य विशेषताओं का उल्लेख करते हुए कहा था इसमें राष्ट्र की एकता और व्यक्ति की गरिमा को विशेष महत्त्व दिया गया है।
3. विश्व का सबसे विस्तृत संविधान
– संविधान को दो वर्गों में विभाजित किया जाता है– लिखित, जैसे–अमेरिकी संविधान, और अलिखित, जैसे- ब्रिटेन का संविधान। भारत का संविधान विश्व का सबसे लंबा लिखित संविधान है। यह बहुत समृद्ध और विस्तृत दस्तावेज है।
– भारत का संविधान विश्व का सर्वाधिक व्यापक संविधान जिसमें (1949) 395 अनुच्छेद 8 अनुसूचियाँ थीं वर्तमान में इसमें एक प्रस्तावना में संवैधानिक संशोधनों के बाद इसमें 465 अनुच्छेद (25 भागों में विभक्त) और 12 अनुसूचियाँ हैं। विश्व के किसी अन्य संविधान में इतने अनुच्छेद और अनुसूचियाँ नहीं है।
– संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के संविधान में 7, कनाडा के संविधान में 147, ऑस्ट्रेलिया के संविधान में 128, दक्षिण अफ्रीका के संविधान में 153, स्विट्जरलैंड के संविधान में 195 अनुच्छेद है।
भारत के संविधान को विस्तृत बनाने के पीछे निम्न चार कारण हैं-
– भौगोलिक कारण, भारत का विस्तार और विविधता।
– ऐतिहासिक, इसके उदाहरण के रूप में भारत शासन अधिनियम, 1935 के प्रभाव को देखा जा सकता है। यह अधिनियम बहुत विस्तृत था। जम्मू-कश्मीर को छोड़कर केंद्र और राज्यों के लिए एकल संविधान।
– संविधान सभा में कानून एक्सपर्ट का प्रभुत्त्व।
4. लिखित एवं निर्मित संविधान
समय-2 वर्ष 11माह 18 दिन
5. सम्पूर्ण प्रभुत्त्व सम्पन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य
– संविधान में यह स्पष्ट किया गया है कि भारत अपने आंतरिक और बाह्य मामलों में संपूर्ण रूप से स्वतंत्र प्रभुसत्ता संपन्न देश है देश की प्रभुसत्ता जनता में निहित होती है। शासन जनता का, जनता के द्वारा, जनता के लिए चलाया जाता है। भारत में लोकतांत्रिक पद्धति को अपनाया गया है भारत गणराज्य है क्योंकि यहाँ का राष्ट्राध्यक्ष वंशानुगत नहीं वरन जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से एक निश्चित अवधि के लिए निर्वाचित किया जाता है।
6. संसदीय शासन व्यवस्था
– भारत में इंग्लैंड की वेस्टमिनिस्टर प्रणाली को अपनाया गया है इस प्रणाली में कार्यपालिका व्यवस्थापिका के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होती है देश के राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद गरिमा एवं प्रतिष्ठा का होता है परंतु इसकी स्थिति संवैधानिक प्रधान की वास्तविक शक्तियों का प्रयोग मंत्रिमंडल द्वारा किया जाता है, संसद का विश्वास समाप्त हो जाने पर मंत्रिमंडल को त्यागपत्र देना होता है। इस व्यवस्था में प्रधानमंत्री मंत्रिमंडल का नेतृत्व करता है, भारत में संसदीय व्यवस्था को केंद्र के साथ राज्य में भी अपनाया गया है। राज्यपाल राज्य का संवैधानिक प्रमुख होता है
7. मौलिक अधिकार तथा मौलिक कर्तव्य
– मानवोचित जीवन तथा व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए भारत के संविधान निर्माताओं ने देश के नागरिकों को सात मौलिक अधिकार प्रदान किए थे किंतु 44वें संविधान संशोधन के बाद अब इनकी संख्या 6 रह गई है
समानता का अधिकार
स्वतंत्रता का अधिकार
शोषण के विरुद्ध अधिकार
धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार
संस्कृति एवं शिक्षा संबंधी अधिकार
संवैधानिक उपचारों का अधिकार
संपत्ति का अधिकार
– संपत्ति का अधिकार मौलिक अधिकारों में सम्मिलित था किंतु अब यह कानूनी अधिकार है। यह सभी अधिकार वाद योग्य है तथा इनका हनन होने पर नागरिक न्यायालय में शरण ले सकते हैं यह अधिकार विधान मंडल एवं कार्यपालिका की शक्तियों को सीमित करते हैं।
– 42वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976 के द्वारा मूल कर्तव्य को निर्धारित किया गया इसमें संविधान का पालन करना, भारत की प्रभुता एकता व अखंडता की रक्षा करना, समान भ्रातृत्व भाव रखना, प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करना। 86 वें संविधान अधिनियम संशोधन 2002 द्वारा से 14 वर्ष तक के बच्चों को शिक्षा प्रदान करने संबंधी मूल कर्तव्यों को जोड़ा गया।
9. राज्य के नीति निदेशक तत्त्व
– राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत आयरलैंड के संविधान से प्रेरित होकर लिए गए हैं संविधान के भाग 4 में नीति निदेशक तत्त्वों का वर्णन किया गया सामाजिक आर्थिक विकास न्याय एवम् समता के उद्देश्यों को सामने रखते हुए निदेशक तत्त्व सरकार के लिए प्रेरणा का कार्य करते हैं।
– संविधान के भाग 4 में अनुच्छेद 36 से 51 तक नीति निदेशक तत्त्वों का वर्णन किया गया है सामाजिक आर्थिक विकास न्याय एवम समता के उद्देश्यों को सामने रखते हुए निदेशक तत्त्व सरकार के लिए प्रेरणा का कार्य करते हैं इनके क्रियान्वयन के लिए सरकार को बाध्य नहीं किया जा सकता यह वाद-योग्य नहीं है यह सरकार के लिए सकारात्मक निर्देश है जिनकी उपेक्षा किसी भी सरकार के लिए संभव नहीं है यह लोक कल्याणकारी राज्य के लिए आवश्यक तत्त्व हैं।
10. समाजवादी राज्य
– 42वें संविधान संशोधन अधिनियम, द्वारा भारत को समाजवादी गणराज्य घोषित किया गया है मूल संविधान में इस शब्द का प्रयोग नहीं किया गया था क्योंकि संविधान निर्माता भावी पीढ़ियों पर किसी विचारधारा को आरोपित नहीं करना चाहते थे।
11. पंथ निरपेक्ष राज्य
– धार्मिक मामलों में राज्य ने एक तटस्थ दृष्टिकोण अपनाया है यह ना तो किसी धर्म विशेष को राज्य धर्म मानता है नहीं किसी समुदाय विशेष को धार्मिक आश्चर्य देता है धर्म के क्षेत्र में प्रत्येक नागरिक को स्वतंत्रता प्रदान करता है अनुच्छेद 25 प्रत्येक नागरिक को यह स्वतंत्रता है कि वह किसी भी धर्म को माने या उसका पालन करें। धर्म के आधार पर किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं करता राज्य की दृष्टि में सभी धर्म समान है संविधान सभा ने मूल संविधान में पंथनिरपेक्ष शब्द प्रयुक्त नहीं किया था किंतु 42वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा पंथनिरपेक्ष शब्द जोड़ दिया गया।
13. कठोरता व लचीलापन का सम्मिश्रण
– संविधान संशोधन की प्रक्रिया द्वारा उसके कठोर लचीलेपन का निर्धारण किया जाता है भारत में दोनों प्रक्रियाओं को अपनाया गया है संविधान के कुछ भागों का संशोधन सरल व कुछ भागों का जटिल है।
भारत के संविधान में संशोधन की तीन विधियाँ है-
– प्रथम, कुछ विशेष अनुच्छेद संसद के दोनों सदनों के साधारण बहुमत से संशोधित किए जाते हैं जैसे राज्यों का पुनर्गठन।
– दूसरा भारत के संविधान के कुल अनुच्छेदों को संशोधित करने के लिए संसद के दोनों सदनों के पूर्ण बहुमत तथा उपस्थित सदस्यों के दो तिहाई बहुमत की आवश्यकता होती है संविधान के भाग 3 और 4 के अनुच्छेद इस श्रेणी में आते हैं।
– तीसरा संविधान के कुछ अनुच्छेदों में संशोधन के लिए संसद के दोनों सदनों के पूर्ण बहुमत उपस्थित सदस्यों के दो तिहाई बहुमत तथा आधे राज्यों की विधानसभाओं का समर्थन आवश्यक है राष्ट्रपति के निर्वाचन की पद्धति केंद्र व राज्यों के बीच शक्ति विभाजन आदि विषयों के संशोधन के लिए जटिल प्रक्रिया अपनाई जाती है।
18. आपातकालीन उपबंध
– संविधान के भाग 18 में आपातकालीन उपबंधों का उल्लेख किया गया। अनुच्छेद 352 में युद्ध, बाहरी आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह के कारण अनु. 356 राज्य में संवैधानिक तंत्र विफल हो जाने की स्थिति में तथा अनु. 360 वित्तीय संकट के कारण आपातकाल लागू होने पर संपूर्ण देश या देश के किसी भी भाग में राष्ट्रपति शासन के अधीन आ जाता है और देश का संघीय स्वरूप एकात्मक हो जाता है।
21. शान्ति सहअस्तित्व तथा विश्व भ्रातृत्व का लक्ष्य
– संविधान में कई बड़े परिवर्तन करने वाले 42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 को “मिनी constitution” कहा जाता है।
– संविधान में न सिर्फ शासन के मौलिक सिद्धान्त बल्कि विस्तृत रूप में प्रशासनिक प्रावधान भी विद्यमान है। इसके अतिरिक्त अन्य आधुनिक लोकतंत्रों में जिन मामलों को आम विधानों अथवा स्थापित राजनीतिक परिपाटी पर छोड़ दिया गया है, उन्हें भी भारत के संवैधानिक दस्तावेज में शामिल किया गया है।
भारत में लोकतंत्र
– 15 अगस्त, 1947 को भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक राज का अंत हो गया और स्वतंत्रता के उपरांत एक प्राचीन संस्कृति वाले देश भारत में एक नए युग का प्रारम्भ हुआ।
– आर्थिक व सामाजिक असमानताओं को घटाने, जनसाधारण की गरीबी, बेरोजगारी और अल्परोजगार के उन्मूलन, मानव गरिमा की पुनर्स्थापना नागरिक अधिकारों की गारंटी, साम्प्रदायिक सौहार्द की पुनर्स्थापना तथा सभी को न्याय दिलाने के संबंध में स्वतंत्र भारत के नेताओं का एक स्पष्ट दृष्टिकोण था।
– इन अपेक्षाओं को संविधान में सम्मिलित कर 26 जनवरी, 1950 को इसे अंगीकार किया गया। यह दृष्टिकोण मुख्यतया प्रस्तावना, मौलिक अधिकारों और नीति निदेशक तत्त्वों के भागों में परिलक्षित होता है।
– इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए संविधान निर्माताओं की लोकतंत्र में भरपूर आस्था थी। यही कारण है कि भारत में सरकार का निर्माण जन–निर्वाचित प्रतिनिधियों के द्वारा होता है और वे लोगों के प्रति उत्तरदायी होते हैं।
– लोकतंत्र में उनकी इतनी गहरी आस्था थी कि स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत बाद उन्होंने सार्वभौम वयस्क मताधिकार अर्थात् प्रत्येक वयस्क नागरिक को बिना भेदभाव के मतदान का अधिकार प्रदान किया।
– नए संविधान के अंतर्गत वर्ष 1952 का प्रथम आम चुनाव करोड़ों निरक्षर लोगों के देश के लिए एक महान् उपलब्धि थी।
– परंतु भारतीय लोकतंत्र में कई कमियाँ भी हैं। अभी तक भारत में राष्ट्रीय एकता स्थायी नहीं हो पाई है तथा राजनीतिक प्रणाली समस्त समूहों, श्रेणियों एवं वर्गों की अपेक्षाओं को पूरा करने में असफल रही है। भारतीय जनसाधारण का एक बहुत बड़ा भाग अत्यंत निर्धनता, निरक्षरता तथा बेरोजगारी का शिकार है। 60 प्रतिशत से भी अधिक लोग आधारभूत स्वच्छता एवं सफाई की सुविधाओं से वंचित हैं।
निष्कर्षत :
– स्वतंत्रता के विगत 60 वर्षों में भारत ने लोकतंत्र की प्रक्रिया की सफलताओं और असफलताओं को देखा है। हमारे देश ने कई क्षेत्रों में सफलताएँ अर्जित की हैं। भारत एक टिकाऊ संविधान, एक व्यावहारिक राजनीतिक प्रणाली, कार्यात्मक संघीय व्यवस्था और सशक्त लोकतांत्रिक परंपरा विकसित हुई है। देश की सीमा तक आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर हो चुका है। जीवन की गुणवत्ता में सुधार हुआ है। भारत ने विज्ञान और प्रौद्योगिकी अनुसंधान में पर्याप्त विकास किया है। विभिन्न जातियों और मानव जातीय भाषायी समूह अपनी पहचान खोए बिना एकता के सूत्र में बंधे हुए हैं। मोटे तौर पर, एक वृहद् बहु–धार्मिक, बहु–जातीय, बहु–सांस्कृतिक देश भारत एकजुट रहा है।
– भारत में मतदान विश्व का सबसे बड़ा महोत्सव है। इससे अधिक संख्या में विश्व की किसी दूसरी गतिविधि में लोगों की भागीदारी नहीं होती है। 83.41 करोड़ लोग मतदान करते हैं।
– केन्द्र एवं राज्यों की सरकारें, न्यायपालिका, स्वतंत्र प्रेस, कानून का शासन, सतर्क सैन्य बल, 30 लाख चुने गए प्रतिनिधि, 10 लाख महिलाओं के लिए आरक्षित सीट आदि अनेक ऐसी परिस्थितियाँ हैं जो भारतीय प्रजातंत्र को विश्व में गौरव प्रदान करती हैं।