राजस्थान इतिहास के स्रोत

  • राजस्थान के इतिहास की जानकारी हमें ऐतिहासिक ग्रंथों, प्रशस्तिया, अभिलेखों, यात्रियों के वर्णन तथा पुरातात्विक सामग्री से प्राप्त होती है।
  • पुरातात्विक सामग्री में उत्खनन से प्राप्त शिलालेख, स्मारक, मूर्तियाँ, भित्तिचित्र, ताम्रपत्र आदि को शामिल किया जाता है।
  • ऐतिहासिक सामग्री में समय-समय पर रचित ग्रंथों एवं लेखाें को शामिल किया जाता है।
  • राजस्थान इतिहास की जानकारी प्राप्त करने का सर्वोत्तम साधन शिलालेख है जिनमें ऐतिहासिक घटनाओं का वर्णन मिलता है।
  • पुरातात्विक स्रोतों के उत्खनन का कार्य भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा किया जाता है जिसकी स्था पना अलेक्जेन्डर कनिंघम के नेतृत्व में 1861 .  में  की गई थी।
  • 1902 ई. में जॉन मार्शल के द्वारा इसका पुनर्गठन किया गया।
  • जिन अभिलेखों में मात्र किसी शासक की उपलब्धियों की यशोगाथा होती है उसे प्रशस्ति कहते हैं।
  • राजस्थान अभिलेखों की शैली गद्य-पद्य है।
  • राजस्थान में पुरातात्विक सर्वेक्षण का कार्य प्रारम्भ करने का श्रेय .सी.एल. कार्लाइल को दिया जाता है।
  • राजस्थान में प्रमुख उत्खननकर्ताओं में एच.डी. सांकलिया, बी.बी. लाल, बी.के. थापर, आर.सी. अग्रवाल, वी.एन. मिश्र, डाॅ. भण्डारकर, दयाराम साहनी, डॉ. हन्नारिड, अक्षयकीर्ति व्यास, डी.पी. अग्रवाल, ए.एन. घोष, एस.एन. राजगुरु, विजय कुमार, ललित पाण्डे, जीवन खरकवाल आदि का नाम प्रमुख हैं।
  • पत्थर या धातु की सतह पर उकेरे गए लेखों को अभिलेख में सम्मिलित किया जाता है।
  • अभिलेखों में शिलालेख, स्तम्भ लेख, मूर्ति लेख, गुहा लेख आदि को सम्मिलित किया जाता है।
  • तिथियुक्त एवं समसामयिक होने के कारण पुरातात्विक स्रोतों के अन्तर्गत अभिलेख सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है।
  • प्रारम्भिक अभिलेखों की भाषा संस्कृत थी जबकि मध्यकाल में इनमें  उर्दू, फारसी व राजस्थानी भाषा का प्रयोग भी हुआ।
  • अभिलेखों के अध्ययन को एपिग्राफी कहा जाता है।
  • भारत में प्राचीनतम अभिलेख सम्राट अशोक मौर्य के हैं जिनकी भाषा प्राकृत एवं मागधी तथा लिपि ब्राह्मी मिलती है।
  • शक शासक रूद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेख भारत का पहला संस्कृत अभिलेख है।
  • राजस्थान के अभिलेखों की मुख्य भाषा संस्कृत एवं राजस्थानी है तथा इनकी लिपि महाजनी एवं हर्षलिपि है।
  • फारसी भाषा मेें लिखा सबसे पुराना लेख अजमेर के ढाई दिन के झोंपड़े के गुंबज की दीवार के पीछे लिखा हुआ मिला है। यह लेख लगभग 1200 ई. का है।

अशोक के अभिलेख (विराट नगर) :- 

  • मौर्य सम्राट अशोक के दो अभिलेख भाब्रू अभिलेख तथा बैराठ अभिलेख बैराठ की पहाड़ी से मिले हैं।
  • भाब्रू अभिलेख की खोज 1840 ई. में केप्टन बर्ट द्वारा बीजक की पहाड़ी से की गई। इस अभिलेख से अशोक के बौद्ध धर्म के अनुयायी होने तथा राजस्थान में मौर्य शासन हाेने की जानकारी मिलती है।
  • अशोक का भाब्रू अभिलेख वर्तमान में कलकत्ता संग्रहालय में सुरक्षित है। इसे कलकत्ता-बैराठ लेख कहा जाता है।
  • दूसरा अभिलेख भी विराट नगर से मिला है।

आमेर का लेख :- 

  • 1612 ई. में संस्कृत तथा नागरी भाषाओं में उत्कीर्ण इस लेख से कच्छवाहा शासकों के बारे में जानकारी मिलती है।
  • इस अभिलेख में कच्छवाहा शासकों पृथ्वीराज से मानसिंह तक की वंशावली, मानसिंह की उपलब्धियाँ, जमवारामगढ़ में निर्माणों का उल्लेख है।
  • आमेर के कच्छवाहा राजवंश के इतिहास को जानने के लिए यह लेख महत्वपूर्ण है।
  • इस लेख में कच्छवाहा वंश को रघुवंश तिलक कहा गया है।
  • इस लेख में निजाम शब्द को प्रांतीय विभाग के रूप में उल्लेखित किया गया है।
  • इसमें मानसिंह को भगवंतदास का पुत्र बताया गया है।
  • इस लेख में दौसा से राजधानी जमवारामगढ़ आई तथा जमवारामगढ़ के दुर्ग का निर्माण मानसिंह ने करवाया आदि का वर्णन मिलता है।

कुंभलगढ़ शिलालेख (1460 .) :- 

  • 1460 ई. को यह लेख चित्ताैड़गढ़ स्थित कुंभश्याम मंदिर (मामादेव मंदिर) में उत्कीर्ण है जिसका रचयिता महेश था। कुछ इतिहासकार इस शिलालेख का रचयिता कान्हा व्यास को मानते हैं।
  • इस शिलालेख की भाषा संस्कृत एवं लिपि नागरी थी।
  • यह शिलालेख पाँच शिलाओं पर उत्कीर्ण था जिसमें से पहली, तीसरी और चौथी िशलाएं उपलब्ध हैं।
  • पहली शिला में 68 श्लोक हैं, दूसरी शिला में चित्रांग ताल, चित्तौड़ दुर्ग तथा चित्तौड़ का वैष्णव तीर्थ रूप होने का वर्णन मिलता है। तृतीय शिला में वंश-वर्णन दर्शाता है।
  • चतुर्थ शिला में हम्मीर के वर्णन में उसके चेलावाट जीतने का उल्लेख है।
  • इसमें खुमाण की विजयों तथा उसके तुलादान का वर्णन है।
  • इस लेख में उस समय के मेवाड़ के चार भागों का पता चलता है जो चित्तौड़, आघाट, मेवाड़ और वागड़ थे।
  • इस लेख में मोकल के वर्णन के साथ सपादलक्ष जीतने तथा फिरोज खाँ को हराने का उल्लेख मिलता है।
  • इस प्रशस्ति में विशेष रूप से कुम्भा का वर्णन तथा विजयों का िवस्तार से उल्लेख है उसके द्वारा की गई विजयों में योगिनीपुर, मड़ोवर, यज्ञपुर, हमीरपुर, वर्धमान, चम्पावती, सिंहपुर, रणस्तम्भ, सपादलक्ष, अभोर, बंबावद, मांडलगढ़, सारंगपुर आदि प्रमुख हैं।
  • इस लेख में गुहिल वंश के शासकों के बारे में उल्लेख है।
  • इसमें बप्पा रावल को विप्रवंशीय ब्राह्मण बताया गया है तथा गुहिल के पुत्र लाट विनोद के नाम का उल्लेख है।
  • इस लेख की चाैथी शिला में हम्मीर को विषमघाटी पंचानन कहा गया है।
  • इस लेख में कुंभा द्वारा निर्मित मंदिरों, बावड़ियों का उल्लेख है।

चीरवा का शिलालेख (1273 .) :- 

  • 1273 ई. का यह शिलालेख उदयपुर के चीरवा गाँव में एक मंदिर के बाहरी द्वार पर नागरी लिपि में उत्कीर्ण है।
  • इस लेख में 36 पंक्तियों एवं देवनागरी लिपि तथा संस्कृत भाषा में लिपिबद्ध 51 श्लोकाें से युक्त यह अभिलेख वागेश्वर और वागेश्वरी की आराधना से प्रारंभ होता है।
  • इस लेख में गुहिल वंश के प्रारम्भिक शासकों की उपलब्धियों के बारे में जानकारी मिलती है।
  • इस लेख में जैत्रसिंह, समरसिंह एवं तेजसिंह आदि को प्रतापी शासक बताया गया है।
  • इस अभिलेख में सर्वप्रथम सती प्रथापाशुपत शैव धर्म के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।
  • इस अभिलेख में चीरवा गाँव की स्थिति, उद्धरण स्वामी विष्णु व योगेश्वर (शिव) व योगेश्वरी मन्दिर की स्थापना व भू-अनुदान, गोचर भूमि का वर्णन मिलता है।
  • इस शिलालेख से टांटेय जाति की उपलब्धियों की जानकारी प्राप्त होती है।
  • इस शिलालेख का रचयिता रत्नप्रभ सूरी तथा उत्कीर्णकर्ता पार्श्वचंद्र था।
  • इस शिलालेख के उत्कीर्णक केलिसिंह और शिल्पी देल्हण ने दिवार पर लगाने का कार्य किया।

बिजौलिया शिलालेख (1170 .) :- 

  • इस शिलालेख में सांभर (शाकम्भरी) एवं अजमेर के चौहानों का वर्णन है।
  • 1170 ई. का यह शिलालेख बिजौलिया के पार्श्वनाथ मंदिर के पास एक चट्‌टान पर जैन श्रावक लाेलाक द्वारा बनवाया गया।
  • इस अभिलेख में उत्तम शिखर पुराण की स्थापना जैन श्रावक लोलाकद्वारा पार्श्वनाथ मन्दिर की स्मृति में करवाया गया था, ऐसा इसमें उल्लेख किया गया है।
  • इस अभिलेख में यह भी जानकारी मिलती है कि विग्रहराज चतुर्थ ने ढ़िल्लिका (दिल्ली) को अपने अधीन किया था।
  • इस अभिलेख में चौहानों के लिए विप्र श्री वत्सगौत्रेभूत अंकन मिलता है जिसके आधार पर डॉ. दशरथ शर्मा ने चौहानों को वत्सगौत्र का ब्राह्मण बताया है।
  • गोपीनाथा शर्मा के अनुसार 12वीं सदी के जनजीवन, धार्मिक अवस्था जानने हेतु  इसमें जानकारी मिलती है।
  • बिजौलिया शिलालेख के अनुसार अर्णोराज ने मालवा पर आक्रमण कर परमार वंशीय नरवर्मा को पराजित किया।
  • इस शिलालेख में सांभर तथा अजमेर के चौहानों को वत्सगौत्रीय ब्राह्मण बताया गया है तथा उनके वंशक्रम एवं उपलब्धियों का उल्लेख किया गया है।
  • इस शिलालेख का रचयिता गुणभद्र था। इसमें 93 संस्कृत पद्य है। इस शिलालेख के लेखक केशव कायस्थ एवं उत्कीर्णकर्त्ता गोविन्द है।
  • इस लेख में उस समय दिए गए भूमि अनुदान के वर्णन को डोहली की संज्ञा दी जाती थी और भूमि को क्षेत्रों में बांटा जाता था।
  • इस अभिलेख में ग्राम समूह की बड़ी इकाई के लिएप्रतिगणशब्द का प्रयोग किया गया है।
  • इस अभिलेख में गाँवों तथा प्रतिगणों के अधिकारियों को महत्तमतथा परिग्रही आदि नामों से जाना जाता था।
  • इस लेख में मेवाड़ में बहने वाली कुटिला नदी जैन तीर्थस्थलों का उल्लेख है।
  • इस शिलालेख में बिजौलिया के आस-पास के पठारी भाग को उत्तमादी कहा गया है जिसे वर्तमान में उपरमाल के नाम से जाना जाता है।
  • इस अभिलेख में वासुदेव द्वारा शाकंभरी में चौहान वंश की स्थापना करने तथा सांभर झील बनवाने का उल्लेख है। इसके अनुसार वासुदेव ने अहिछत्रपुर को अपनी राजधानी बनाया।
  • इस लेख में कई क्षेत्रों के प्राचीन नाम दिए गये है – जैसे –जाबालिपुर (जालौर), श्रीमाल (भीनमाल), शाकम्भरी (सांभर), नड्‌डुल (नाडौल), ढ़िल्लिका (दिल्ली), नागह्रद (नागदा), मांडलकर (मांडलगढ़), विंध्यवल्ली (बिजौलिया), उत्तमाद्री (उपरमाल) आदि।
  • यह मूलत: दिगम्बर लेख है।

सांमोली शिलालेख (646 .)  :-

  • यह शिलालेख मेवाड़ के दक्षिण में भाेमट तहसील सांमोली गाँव से प्राप्त हुआ है।
  • यह लेख मेवाड़ के गुहिल राजा शिलादित्य के समय वि.सं. 703 (ई.सं. 646) का है।
  • उदयपुर से प्राप्त यह शिलालेख गुहिल शासक शिलादित्य के समय का है।
  • इस शिलालेख से मेवाड़ के गुहिल वंश की सामाजिक,धार्मिक, साहित्यिक तथा आर्थिक स्थिति के बारे में जानकारी मिलती है।
  • इस शिलालेख में प्रयुक्त शब्द ‘विजयी’, ‘वटनगर’, ‘आगरा आरण्यकगिरी’ तथा ‘अरण्यवासिनी’, ‘महत्तर’ आदि िमलते हैं।
  • इस लेख से यह भी संकेत मिलता है कि जावर के निकट आरण्यगिरी में ताँबे और जस्ते की खानों का काम भी इसी युग से आरंभ हुआ होगा।
  •  इस शिलालेख की भाषा संस्कृत एवं लिपि कुटिल है। वर्तमान में यह शिलालेख अजमेर संग्रहालय में सुरक्षित है।

घटियाला के शिलालेख (861 .) :-

  • यह लेख संस्कृत में चम्पूशैली में है।
  • रोहिंसकूप (घटियाला)  की लिपि उत्तर भारतीय शैली की है।
  • यह शिलालेख चार समूह के रूप में जोधपुर के पास घटियाला में एक स्तम्भ पर उत्कीर्ण है जिसमें प्रतिहार शासक कक्कुक के बारे में उल्लेख किया गया है।
  • इसमें रोहिलिद्ध से कक्कुक तक प्रतिहार शासकों की वंशावली मिलती है।
  • इस शिलालेख से कक्कुक द्वारा आभीरों को परास्त करने की जानकारी मिलती है।
  • इस वंश के हरिश्चंद्र के उत्तराधिकारी नागभट्‌ट ने मेड़ता को अपनी राजधानी बनाया।
  • इसमें हरिश्चंद्र को रोहिल्लद्धि भी कहते थे।
  • यह स्तम्भ एक जैन मन्दिर में स्थित है जिसे माता की साल कहा जाता है।
  • इसमें मग जाति के ब्रह्माणों का उल्लेख मिलता है और इस जाति के लोग मारवाड़ के शाकद्विपीय ब्राह्मण के नाम से भी जाने जाते हैं।
  • इन लेखों से तत्कालीन वर्ण व्यवस्था के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।
  • इस लेख से हमें मारवाड़-जैसलमेर के प्रतिहार वंश के संबंध में जानकारी मिलती है।
  • घटियाला के अन्य दो शिलालेखों से मण्डोर के प्रतिहारों की नामावली तथा उनकी उपलब्धियों के बारे में जानकारी मिलती है।
  • घटियाला से वि.सं. 918 चैत्र शुक्ला द्वितीय के दो लेख उपलब्ध हुए। इनमें से एक लेख महाराष्ट्री भाषा का श्लोकबद्ध और दूसरा उसी का आशय रूप संस्कृत में है।
  • कक्कुक द्वारा यह शिलालेख उत्कीर्ण करवाया गया है जिसका रचयिता मग तथा उत्कीर्णकर्ता कृष्णेश्वर था।

आबू का (अचलेश्वर) अभिलेख (1285 .) :- 

  • इस अभिलेख का समय 1285 ई. का है, इसमें 62 श्लाेक हैं।
  • यह अभिलेख आबू के अचलेश्वर मंदिर के पास के मठ से प्राप्त हुआ है।
  • यह अभिलेख संस्कृत भाषा में अचलेश्वर मंदिर के पास दीवार पर उत्कीर्ण है इसके रचयिता शुभचंद्र तथा उत्कीर्णकर्ता कर्मसिंह थे।
  • इस अभिलेख में यह भी उल्लेखित है कि समरसिंह मठाधीश भावशंकर की आज्ञा से उक्त मठ का जीर्णाेद्धार करवाया और तपस्वी की भोजन व्यवस्था की थी।
  • इस अभिलेख में बप्पा से महाराणा समरसिंह तक की वंशावली का उल्लेख है।
  • इस अभिलेख में परमार वंश के राजाओं की उपलब्धियों  के साथ-साथ वास्तुपाल व तेजपाल के वंशों का उल्लेख मिलता है।
  • इस अभिलेख से ज्ञात होता है कि देलवाड़ा के नेमिनाथ मंदिर में यह प्रशस्ति तेजपाल ने लगवाई थी।
  • इस लेख में मेदपाट का वर्णन करते हुए लिखा गया है कि बप्पा द्वारा यहां दुर्जनों का संहार हुआ और उनकी चर्बी से यहां की भूमि गीली हो जाने से इसे मेदपाट कहा गया है।
  • इस अभिलेख में आबू पर्वत की स्थिति एवं उपज वनस्पति के बारे में बताया गया है।
  • इसमें हारित ऋषि की तपस्या तथा उनके आशीर्वाद से बप्पा को राज्य प्राप्ति का उल्लेख है।

मानमोरी का अभिलेख (713 .) :- 

  • यह मौर्य वंश से संबंधित है और इससे चित्तौड़ की प्राचीन स्थिति की जानकारी प्राप्त होती है।
  • इसे शिलालेख की प्रतिलिपि कर्नल जेम्स टॉड के ग्रंथ एनल्स एंड एंटिक्विटीज ऑफ राजस्थान के प्रथम भाग में प्रकाशित है।
  • 713 ई. का यह अभिलेख मानसरोवर झील (चित्तौड़गढ़) के तट पर उत्कीर्ण है।
  • इस अभिलेख में इसके रचयिता पुष्य तथा उत्कीर्णकर्ता शिवादित्य का उल्लेख है।
  • इस अभिलेख से चित्तौड़गढ़ दुर्ग का निर्माण करने वाले चित्रांगद के बारे में जानकारी मिलती है।
  • राजा भोज के पुत्र मान द्वारा मानसरोवर झील के निर्माण करवाये जाने का उल्लेख भी इसमें मिलता है।
  • यह अभिलेख कर्नल जेम्स टॉड ने इंग्लैण्ड ले जाते समय समुद्र में फेंक दिया था।
  • इस अभिलेख में अमृत मंथन व जनता पर लगाये जाने वाले कर का उल्लेख मिलता है।
  • इसके अतिरिक्त युद्ध में हाथियों का प्रयोग, शत्रुओं को कैद किया जाना तथा उनकी स्त्रियों की देखभाल की उचित व्यवस्था करना, राजाओं में सामुद्रिक नाविक की योग्यता होना आदि विशेषताओं का उल्लेख है।
  • इस अभिलेख में चार मौर्य शासकों (महेश्वर, भीम, भेाज एवं मान) के बारे में जानकारी मिलती है।

बड़वा यूप (स्तम्भ) अभिलेख (238-239 .) :- 

  • यह शिलालेख 3-यूप स्तम्भ में प्राप्त हुआ है।
  • इस शिलालेख में बलवर्धन, सोमदेव और बलसिंह द्वारा त्रिरात्र यज्ञों के आयोजन के उपरांत मौखरी धनत्रात द्वारा अप्तोयाम यज्ञ को संपादित किए जाने का उल्लेख मिलता है।
  • यह अभिलेख मौखरी राजाओं का सबसे पुराना और पहला अभिलेख है।
  • यह बड़वा (कोटा) में स्तम्भ पर उत्कीर्ण मौखरी वंश के शासकों का सबसे प्राचीन अभिलेख है। संस्कृत भाषा में लिखित इस अभिलेख से मोखरी शासकों बल, सोमदेव, बलसिंह आदि की उपलब्धियों की जानकारी प्राप्त होती है।
  • इस अभिलेख में कृत संवत का उल्लेख किया गया है जिसमें कहा गया है कि कृत युग के 295 वर्ष व्यतीत होने पर मौखरी शासकों ने यज्ञ किए थे।
  • बड़वा यूप अभिलेख मौखरी वंश से संबंधित है और मौखरी राजाओं की कई शाखाएं थीं।
  • बड़वा यूप का प्रमुख व्यक्ति बल था जो अन्य शाखाओं से अधिक पुरानी शाखाओं से संबंध रखता था।
  • इसकी उपाधि महासेनापति की होने से अर्थ निकलता है कि वह बहुत शक्तिशाली था।
  • यह प्रतीत होता है कि यह शक-क्षत्रपों के अधीन रहे होंगे।
  • इस अभिलेख में प्रारंभिक मौखरियों की स्थिति (छठी सदी) के बारे में बताया गया है।
  • ये लेख वैष्णव धर्म तथा यज्ञ महिमा के द्योतक हैं।
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आदिवराह मन्दिर का अभिलेख :- 

  • इस लेख में गुहिलों का वर्णन मिलता है।
  • 944 ई. का यह लेख उदयपुर के आदिवराह मन्दिर से प्राप्त हुआ है जो संस्कृत में ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण है।
  • इस लेख के अनुसार आहड़ में आदिवराह मन्दिर का निर्माण आदिवराह नामक व्यक्ति द्वारा करवाया गया था।
  • इस अभिलेख में गंगोद्धव अर्थात् गंगा के अवतरण का भी उल्लेख मिलता है।
  • यह लेख मेवाड़ के शासक भर्तृहरि द्वितीय के समय का है।
  • इसके अनुसार आहड़ एक धर्म स्थल के रूप में प्रसिद्ध था।

श्रृंगी ऋषि का लेख (1428 .) :- 

  • इसका समय विक्रमी संवत 1485 श्र्रावण शुक्ला 5 का है।
  • यह संस्कृत भाषा उत्कीर्ण लेख है और इसमें 30 श्लोक हैं।
  • इस अभिलेख का प्रारंभ विद्यादेवी की प्रार्थना से किया गया है बाद में हम्मीर, क्षेत्रसिंह और मोकल की उपलब्धियों का वर्णन किया गया है।
  • 1428 . का यह लेख मेवाड़ के एकलिंगजी के पास श्रृंगी ऋषि नामक स्थान पर काले पत्थर पर उत्कीर्ण है जिसकी भाषा संस्कृत है। इस लेख के रचनाकार कवि योगेश्वर थे एवं उत्कीर्णकर्त्ता फना थे।
  • यह महाराणा मोकल के समय का है जिसमें राणा हम्मीर से मोकल तक के शासकों की उपलब्धियों का उल्लेख है।
  • इस अभिलेख में महाराणा मोकल द्वारा एकलिंगजी मंदिर के चारों ओर दीवार बनवाने तथा नागौर शासक फिरोज खाँ एवं गुजरात शासक अहमद खाँ को युद्ध में पराजित करने का उल्लेख है
  • इस अभिलेख में राणा लाखा द्वारा काशी, प्रयाग एवं गया की यात्रा करने का उल्लेख भी मिलता है।
  • इस अभिलेख में भीलों के सामाजिक जीवन के बारे में जानकारी मिलती है।
  • इस अभिलेख के द्वारा यह ज्ञात होता है कि हम्मीर ने भीलों से सफलतापूर्वक युद्ध किया और अपने शत्रु राजा जैत्र को पराजित किया था।
  • इस अभिलेख में यह वर्णित किया गया है कि लाखा के (त्रिस्थली, काशी, प्रयाग और गया) से हिन्दुओं से लिए जाने वाले करों को हटवाया था और गया में मन्दिर का निर्माण करवाया था।
  • इस अभिलेख से मेवाड़-गुजरात और मेवाड़-मालवा के राजनीतिक संबंधों की जानकारी प्राप्त होती है।

बर्नाला यूप स्तम्भ लेख (227 .) :- 

  • बर्नाला (जयपुर) से प्राप्त।
  • वर्तमान में आमेर संग्रहालय में सुरक्षित।
  • इस लेख के अनुसार संवत 284 में सोहर्न गौत्रोत्पन्न नामक व्यक्ति ने सात यूप-स्तम्भों की प्रतिष्ठा का पुन्यार्जन किया था।
  • इस अभिलेख में भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए गर्गत्रिरात्रि के आयोजन का उल्लेख मिलता है।

बड़ली का अभिलेख :- 

  • यह राजस्थान का सबसे प्राचीनतम अभिलेख है। 443 ई. पूर्व का यह अभिलेख अजमेर के बड़ली गाँव के मिलोत माता मंदिर से पं. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा को प्राप्त हुआ।
  • यह दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व का है जो प्रियावा अभिलेख (487 ई. पूर्व) के साथ ही भारत के अभिलेखों में प्राचीनतम समझा जाता है।
  • यह अभिलेख ब्राह्मी लिपि में लिखा हुआ है।
  • वर्तमान में यह अजमेर संग्रहालय में सुरक्षित है, अजमेर के साथ मद्यमिका (चित्तौड़) में जैन धर्म के प्रसार का उल्लेख है।

मण्डोर अभिलेख :- 

  • जोधपुर के मंडोर में स्थित 837 ई. के इस अभिलेख में गुर्जर प्रतिहार शासकों की वंशावली तथा शिव पूजा का उल्लेख किया गया है। इस अभिलेख की रचना गुर्जर शासक बाउक द्वारा करवाई गई थी।

कणसवा का अभिलेख :- 

  • 738 ई. का यह अभिलेख कोटा के निकट कणसवा गाँव में उत्कीर्ण है जिसमें मौर्य वंश के राजा धवल का उल्लेख मिलता है।
  • कणसवा व पुठोली (चित्तौड़) के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि मौर्य का राजस्थान से संबंध था।
  • कणसवा का शिलालेख इसलिए महत्वपूर्ण है कि क्योंकि इस शिलालेख के बाद किसी भी अन्य शिलालेख में मौर्य वंशी राजाओं का राजस्थान में वर्णन नहीं मिलता है।

प्रतापगढ़ अभिलेख (946 .) :- 

  • इसमें 10वीं सदी के ग्रामीण जनजीवन और सामंती प्रथा के बारे में जानकारी मिलती है।
  • प्रतापगढ़ में स्थित इस अभिलेख में गुर्जर प्रतिहार शासक महेन्द्रपाल की उपलब्धियों का वर्णन किया गया है।
  • इस अभिलेख में प्रतिहार वंश के अन्य शासकों नागभट्‌ट कुकुस्त, राजभद्र भोज और महेंद्र देव आदि का उल्लेख मिलता है।
  • यह लेख प्रतापगढ़ नगर में चेनराम अग्रवाल की बावड़ी के निकट से प्राप्त हुआ है।
  • इस अभिलेख में संस्कृत भाषा के साथ कुछ प्रचलित देशी शब्दों (अरहट, कुशवाहा, चौसर, पालिका, पाली, घाणा) का उल्लेख मिलता है।

किराडू का लेख (1161 .) :- 

  • 1161 ई. का यह लेख किराडू के शिव मन्दिर में उत्कीर्ण है जिसकी भाषा संस्कृत है।
  • यह शिलालेख बाड़मेर से प्राप्त हुआ है।
  • यह शिलालेख आल्हण देव के समय का है।
  • इस शिलालेख से स्पष्ट होता है कि आल्हण देव द्वारा कुछ निश्चित तिथियों को पशुओं का वध पूर्ण निषेध किया गया था।
  • इस लेख में परमारों की उत्पत्ति वशिष्ठ के आबू यज्ञ से बतायी गई है।
  • इस प्रशस्ति में किराडू की परमार शाखा का वंशक्रम दिया गया है।

भ्रमरमाता का लेख :- 

  • प्रतापगढ़ जिले के छोटी सादड़ी के भ्रमरमाता मंदिर से प्राप्त 490 ई. का शिलालेख 5वीं सदी की राजनीतिक स्थिति एवं प्रारंभिक कालीन सामन्त प्रथा के सम्बन्ध में जानकारी प्रदान करता है।
  • इस शिलालेख में गौर वंश एवं औलिकर वंश के शासकों का उल्लेख मिलता है।
  • इस लेख का रचयिता ब्रह्मसोम तथा उत्कीर्णकर्ता पूर्वा था।
  • इस लेख की अंतिम पंक्तियों में मृत्यु के पश्चात् ब्राह्मण को दान देना कल्याणकारी बताया गया है।

सांभर का लेख (1634 .) :- 

  • यह लेख एक सराय के दरवाजे पर हिन्दी भाषा में उत्कीर्ण है।
  • इसमें अकबर द्वारा इस सराय के निर्माण करने तथा शाहजहाँ द्वारा इसका जीर्णोद्धार करने का उल्लेख है।

सुंडा (सुंधा) पर्वत अभिलेख (1262 .) :- 

  • जालौर स्थित सुंडा पर्वत का यह अभिलेख चौहान शासक चाचिंगदेव के समय का है जिससे इसकी उपलब्धियों तथा शासन के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।

 रसिया की छतरी का लेख (1274 .) :- 

  • यह शिलालेख चित्तौड़ के राजमहल के द्वार पर उत्कीर्ण है।
  • इस शिलालेख का समय 1274 ई. है, यह चित्तौड़ के किले में रसिया की छतरी की ताक से प्राप्त हुआ था।
  • इस शिलालेख में गुिहल वंशीय शासकों की वंशावली तथा तत्कालीन सामाजिक एवं धार्मिक रीति-रिवाजाें की जानकारी मिलती है।
  • इस लेख में बप्पा से लेकर नरवर्मा तक के मेवाड़ के शासकों का वर्णन मिलता है।
  • चित्तौड़ दुर्ग में स्थित इस लेख में 13वीं सदी के मेवाड़ की प्रारम्भिक स्थिति के बारे में तथा दास प्रथा व अस्पृश्यता की स्थिति की जानकारी मिलती है।
  • इस लेख में रानियों के श्रृंगार,  वनवासियों के जीवन चरित्र का वर्णन मिलता है।

घोसुण्डी शिलालेख :- 

  • यह शिलालेख चित्तौड़गढ़ जिले के नगरी के निकट घाेसुण्डी गाँव से प्राप्त हुआ।
  • इस शिलालेख को सर्वप्रथम डॉ. भण्डारकर द्वारा खोजा गया।
  • यह राजस्थान में वैष्णव सम्प्रदाय (भागवत सम्प्रदाय) से सम्बन्धित सबसे प्राचीन शिलालेख है।
  • यह शिलालेख लगभग 200 ई. पूर्व के समय का है तथा इससे यह जानकारी मिलती है कि इस समय राजस्थान में वैष्णव सम्प्रदाय लोकप्रिय हो चुका था।
  • इस लेख में भागवत् की पूजा के निर्मित शिला प्रकार बनवाये जाने का वर्णन है।
  • राजस्थान में भागवत् धर्म के प्रचलन की जानकारी देने वाला सबसे प्राचीन शिलालेख माना जाता है।
  • यह शिलालेख कई टूटे हुए शिला खण्डों में प्राप्त हुआ है।
  • इनमें से सबसे बड़ा खण्ड वर्तमान में उदयपुर के संग्रहालय में स्थित है।
  • भगवान नारायण के पूजा से संबंधित प्रारंभिक पुरालेख के साक्ष्य घोसुण्डी अभिलेख से प्राप्त हुए हैं।
  • घोसुण्डी शिलालेख की लिपि ब्राह्मी एवं भाषा संस्कृत है।
  • घोसुण्डी शिलालेख का महत्व भागवत् धर्म के प्रचार, वासुदेव की मान्यता और अश्वमेघ यज्ञ के प्रचलन के कारण अधिक है।
  • घोसुण्डी शिलालेख में गजवंश के सर्वतात द्वारा अश्वमेघ यज्ञ करने एवं विष्णु मन्दिर की चार दिवारी बनवाने का उल्लेख मिलता है।

हस्तिकुण्डी शिलालेख (996 .) :- 

  • यह शिलालेख उदयपुर-सिरोही मार्ग पर हस्तिकुण्डी से प्राप्त हुआ है।
  • यह शिलालेख वर्तमान में अजमेर संग्रहालय में स्थित है।
  • इस लेख में मन्दिर के लिए दिए गए अनुदानों एवं राज्य द्वारा क्रय-विक्रय के लिए िकए जाने वाले अनेक करों के बारे में जानकारी मिलती है।
  • इसमें प्रयुक्त भाषा संस्कृत है और लिपि हर्षनाथ के लेख जैसी है।
  • इस लेख में धवल के संबंध में लिखा है कि उसने मूलराज चालुक्य की सेना तथा महेंद्र और धरणीवराह को शत्रुओं के विरुद्ध आश्रय दिया।
  • इस शिलालेख के रचयिता सूर्याचार्य थे। इस शिलालेख की खोज कैप्टन बस्ट ने की।
  • इसमें चौहान प्रमुख हरि वर्मा, उसकी पत्नी रची तथा विदग्ध मम्मट व धवल की उपलब्धियों की जानकारी मिलती है।

अपराजित का शिलालेख (661 .) :-  

  • इस शिलालेख की भाषा संस्कृत एवं लिपि कुटिल है।
  • यह लेख नागदा गाँव के निकटवर्ती कुंडेश्वर के मन्दिर की दिवार पर उत्कीर्ण था।
  • इस लेख में मुख्य रूप से गुहिलों की उत्तरोत्तर विजयों के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।
  • इस लेख में सुंदर तथा स्पष्ट भाषा से पता चलता है कि उस समय मेवाड़ में शिल्पकला का विकास हो चुका था।
  • इस प्रशस्ति की रचना दामोदर ने की तथा उत्कीर्णक यशोभट्टथे।
  • यह शिलालेख वर्तमान में उदयपुर में विक्टोरिया हॉल के संग्रहालय में स्थित है।

इंगनौड़ा का शिलालेख (1133 .) :- 

  • प्रतिहार कालीन शिलालेख। इस शिलालेख में गोहड़ेश्वर मंदिर के लिए आगासीया गाँव को भेंट करने का उल्लेख है।
  • इस लेख में राज्य दिए जाने वाले अनुदानों के संबंध में गाँव के समस्त महाजनों के समक्ष सूचना दिए जाने की प्रथा के बारे में जानकारी मिलती है।
  • इस लेख में यह भी प्रमाणित होता है कि उन दिनों सभी जातियां अपनी अलग-अलग बस्तियों में रहा करती थीं।
  • यह लेख 12वीं सदी की धार्मिक और सामाजिक व्यवस्था की जानकारी के बारे में बताता है।
  • इस शिलालेख का लेखक कायस्थ कलहण एवं उत्कीर्णक सूत्रधार साजण था।

बसंतगढ़ अभिलेख (625 .) :-  

  • राजा वर्मलात के समय का यह अभिलेख बसंतगढ़ सिरोही से प्राप्त हुआ है।
  • इससे अर्बुदांचल के राजा रज्जिल तथा उसके पुत्र सत्यदेव के बारे में जानकारी मिलती है।
  • इसका लेखक द्विजन्मा तथा उत्कीर्णकर्ता नागमुण्डी था।
  • दधिमति माता अभिलेख के बाद यह पश्चिमी राजस्थान का सबसे प्राचीन अभिलेख है।
  • इस अभिलेख में सामन्त प्रथा का उल्लेख मिलता है।
  • इसकी भाषा संस्कृत और लिपि कुटिल है।
  • इसके समय में जावर के निकट तांबे और जस्ते की खानों का काम शुरू हुआ था।
  • जावर माता के मंदिर के निर्माण का वर्णन इस शिलालेख में उपलब्ध है।

नांदसा यूप स्तम्भ लेख (225 .) :- 

  • भीलवाड़ा जिले के नांदसा गाँव से प्राप्त स्तम्भ लेख।
  • यह स्तम्भ लेख सोम द्वारा स्थापित है।
  • यह अभिलेख तत्कालीन क्षत्रपों के राज्य विस्तार तथा उत्तरी भारत में प्रचलित पौराणिक यज्ञों के बारे में जानकारी मिलती है।
  • इस अभिलेख में शक्ति गुणगुरु नामक व्यक्ति द्वारा षष्ठिरात्र यज्ञ किए जाने का वर्णन है।

चित्तौड़ का शिलालेख (1438 .) :-

  • 1438 ई. में काले पत्थर पर उत्कीर्ण यह लेख चित्तौड़ के सतबीस देवरी से प्राप्त हुआ है जिसमें 104 श्लोक है।
  • इस लेख में मेवाड़ शासक राणा हम्मीर से महाराणा मोकल तक के शासकों की उपलब्धियों का उल्लेख मिलता है तथा हम्मीर को तुर्कों से जीतने वाला बताया गया है।
  • इस लेख में गुजरात बादशाह के दरबारी गुणराज द्वारा भीषण अकाल में अपनी सम्पत्ति जनता की सहायता के लिए खर्च करने का उल्लेख है।
  • इस प्रशस्ति का रचनाकार चरित्ररत्न गणि तथा उत्कीर्णकर्ता नारद था।

बुचकला शिलालेख (815 .) :- 

  • यह जोधपुर जिले में बिलाड़ा तहसील के समीप बुचकला गाँव के पार्वती मंदिर में स्थित है। इस शिलालेख से प्रतिहार शासक वत्सराज के पुत्र नागभट् के बारे में जानकारी मिलती है।
  • यह लेख संस्कृत भाषा में लिपिबद्ध है और नागभट्‌ट प्रतिहार के समय का है।
  • इस लेख में प्रतिहार वंश के शासकों और सामंतों के संबंध में जानकारी प्राप्त होती है।

चित्तौड़ का शिलालेख (1278 .) :- 

  • 1278 ई. के इस लेख में मेवाड़ के गुहिल शासकों की धार्मिक सहिष्णुता की नीति का उल्लेख मिलता है।
  • इस लेख में राजपरिवार द्वारा जैन मंदिर के निर्माण के लिए दान देने का उल्लेख किया गया है।
  • इस शिलालेख से तेजसिंह की रानी जयतल्ल देवी ने चित्तौड़ में श्यामपार्श्वनाथ मंदिर का निर्माण करवाया था। इस मंदिर के पिछले भाग में महारावल समरसिंह द्वारा गच्छ के आचार्य प्रद्युम्न सूरी को मठ के लिए भूमि दान दिए जाने का भी उल्लेख है।

सांडेराव का लेख :- 

  • 1164 ई. का यह लेख देसूरी के पास सांडेराव के महावीर जैन मंदिर में उत्कीर्ण है।
  • यह लेख कल्हणदेव के समय का है जिसमें उसके परिवार द्वारा मंदिर के लिए दिये गए दान का उल्लेख मिलता है।
  • इस लेख में उस समय के विभिन्न करों के बारे में जानकारी मिलती है।
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बरबथ का लेख (1613-1614 .) :- 

  • यह लेख मुगल-राजपूत वैवाहिक संबंधों का बोध करवाता है।
  • यह राज्य का सबसे बड़ा लेख है।
  • 1613-14 ई. के इस लेख में मुगल शासक अकबर की पत्नी मरियम उज्मानी द्वारा निर्मित बरबथ बाग एवं बयाना बावड़ी का उल्लेख मिलता है।

पाणाहेड़ा का लेख (1059 .) :- 

  • बाँसवाड़ा के पाणाहेड़ा गाँव से प्राप्त लेख।
  • इस लेख में वागड़ एवं मालवा के परमार राजाओं (मूंज, सिंधुराज एवं भोज) के उपलब्धियों की जानकारी मिलती है।
  • इस लेख में धनिक से मंडलित तक के वागड़ के प्रकारों की वंशावली मिलती है।

नांदसा यूप स्तम्भ लेख (225 .) :- 

  • भीलवाड़ा जिले के नांदसा गाँव से प्राप्त स्तम्भ लेख।
  • यह स्तम्भ लेख सोमद्वारा स्थापित है।
  • यह अभिलेख तत्कालीन क्षत्रपों के राज्य विस्तार तथा उत्तरी भारत में प्रचलित पौराणिक यज्ञों के बारे में जानकारी मिलती है।
  • इस अभिलेख में शक्ति गुणगुरु नामक व्यक्ति द्वारा षष्ठिरात्र यज्ञ किए जाने का वर्णन है।

शंकरघट्टा का लेख (713 .) :- 

  • यह लेख चित्तौड़ के गंभीरी नदी के तट पर शिवजी के मंदिर में उत्कीर्ण है।
  • संस्कृत भाषा में उत्कीर्ण इस लेख में राजा मानभंग का वर्णन मिलता है।
  • इस लेख में राजा मानभंग या मानमौरी ने गगनचुंबी प्रासादों, वापियों एवं मन्दिरों का निर्माण करवाया था।
  • चित्तौड़ में स्थित सूर्य मन्दिर का निर्माण भी इन्हीं की एक कड़ी माना जाता है।

बिचपुरिया यूप स्तम्भ लेख (224 .) :- 

  • यह संस्कृत भाषा में लिपिबद्ध है।
  • यह जयपुर जिले के उणियारा ठिकाने से प्राप्त।
  • वर्तमान में यह टोंक जिले में है।
  • इसमें वैष्णव धर्म एवं यज्ञ की महिमा का उल्लेख है।

अजमेर लेख (1200 .) :- 

  • यह लेख अजमेर के ढाई दिन के झोंपड़े के दूसरे गुम्बद की दीवार की पीछे प्राप्त हुआ है।
  • इस लेख से यह पता चलता है कि अबूबक्र नामक व्यक्ति के निर्देशन में मस्जिद का काम करवाया गया था।

कुंवर पृथ्वीराज का स्मारक लेख :- 

  • कुंभलगढ़ में स्थित इस लेख से कुंवर पृथ्वीराज की सती होने वाली सा  रानियों एवं उनके घोड़े साहण की जानकारी मिलती है।

ओसियाँ का शिलालेख :- 

  • यह संस्कृत भाषा मेें लिपिबद्ध लेख जोधुपर के ओसियाँ गाँव से प्राप्त हुआ।
  • इस लेख में वत्सराज की समृद्धि पर प्रकाश डाला गया है और उसे रिपुदमन की उपाधि दी गई है।

चावण्ड छतरी का लेख (1603 .) :- 

  • यह लेख बांडोली स्थित प्रताप की छतरी पर लगा हुआ है।
  • इस लेख में उदयसिंह की पुत्री ताराबाई के निधन के बाद वहां उसके चरणचिह्न (पगलिया) स्थापित करने का उल्लेख है।

खजूरी गाँव का शिलालेख (1506 .) :- 

  • कोटा जिले के खजूरी गाँव से प्राप्त यह शिलालेख बूँदी के राजाओं के बारे में जानकारी प्रदान करता है।

चित्तौड़ का कुमारपाल का शिलालेख (1150 .) :- 

  • कुमारपाल सोलंकी के समय का शिलालेख चितौड़ के समिद्धेश्वर मंदिर में लगा हुआ है।
  • इसमें शिव, शर्व मृड, समिद्धेश्वर एवं सरस्वती की वंदना की गई है और कवियों की रचना एवं चालुक्य वंश का यशोगान किया गया है।

देलवाड़ा का शिलालेख (1434 .) :- 

  • यह शिलालेख 18 पंक्तियों में लिपिबद्ध है।
  • इस लेख की 8 पंक्तियां संस्कृत भाषा में लिखी हुई हैं और शेष पंक्तियां स्थानीय बोलचाल की भाषा (मेवाड़ी) में हैं।
  • इस शिलालेख में 14वीं सदी के राजनीतिक, धार्मिक एवं आर्थिक व्यवस्था के बारे में बताया गया है।
  • इस लेख में सेहलथनामी स्थानीय अधिकारी उस समय कर लिया करते थे तथा टंक नाम की मुद्रा प्रचलित थी।

बेणेश्वर का लेख (1867 .) :- 

  • बेणेश्वर से प्राप्त इस लेख से शिव मंदिर को लेकर डूंगरपुर तथा बाँसवाड़ा राज्यों के बीच सीमाओं को लेकर झगड़ा हुआ था।
  • सीमा निर्धारण के इस लेख पर मेजर एम.एम. मैकेंजी पॉलिटिकल सुपरिटेंडेंट के हस्ताक्षर है।

जहाँगीरी महल (पुष्कर) का लेख (1615 .) :- 

  • पुष्कर के जहाँगीरी महल से 1615 ई. का एक शिलालेख मिला है।
  • इस लेख में राजा अमरसिंह पर जहाँगीर की विजय के बारे में जानकारी प्राप्त हाेती है।

गुदड़ी बाजार की मस्जिद का लेख (1741 .) :- 

  • डीडवाना (नागौर) से प्राप्त लेख।

तलेटी मस्जिद का लेख (1420 .) :- 

  • बयाना (भरतपुर) से प्राप्त।
  • इस मस्जिद का निर्माण मलिक मौज्जम ने करवाया था।
  • यह औढ़ खाँ के समय का अभिलेख है।

गादीदान की मस्जिद का लेख (1656 .) :- 

  • मेड़ता (नागौर) से प्राप्त।
  • इस मस्जिद का निर्माण फिरोजशाह द्वारा किया गया।

ऐसे अभिलेख जिनमें केवल किसी शासक की उपलब्धियों की यशोगाथा का वर्णन किया जाता है।

जगन्नाथ राय प्रशस्ति :-

  • 1652 . की यह प्रशस्ति उदयपुर के जगन्नाथराय (जगदीश) मंदिर में उत्कीर्ण है।
  • इस प्रशस्ति में इसके रचयिता कृष्णभट् का उल्लेख है।
  • इस प्रशस्ति में मेवाड़ शासक रावल बप्पा से महाराणा सांगा तक के शासकों की उपलब्धियाँ अंकित है।
  • इस प्रशस्ति में हल्दीघाटी युद्ध, महाराणा जगतसिंह के युद्धों, पुण्य कार्याें व मंदिर निर्माण का उल्लेख है।
  • इस प्रशस्ति में राणा कर्णसिंह के समय सिरोंज के विनाश का वर्णन है।
  • इस प्रशस्ति में महाराणा जगतसिंह ने पिछोला के तालाब में मोहन मंदिर का निर्माण करवाया और रूपसागर तालाब का निर्माण करवाया का उल्लेख मिलता है।
  • इस प्रशस्ति से औरंगजेब और राजसिंह के संघर्ष के बारे में जानकारी मिलती है।
  • इसमें उस समय की शिक्षा संबंधी प्रगति के बारे में जानकारी मिलती है।
  • इसमें रायसिंह द्वारा पंचायतन मंदिर बनवाने का भी उल्लेख है।
  • यह पंचायतन शैली की प्रशस्ति है जिसे अर्जुन की निगरानी में तथा सूत्रकार भाणा एवं उसके पुत्र मुकुन्द की अध्यक्षता में बनाई गई थी।

कीर्ति स्तंभ प्रशस्ति (1460 .) :- 

  • 1460 ई. की यह प्रशस्ति कीर्ति स्तंभ में कई शिलाओं पर उत्कीर्ण है जिसकी भाषा संस्कृत है।
  • इस प्रशस्ति में मेवाड़ शासक बप्पा से लेकर कुंभा तक का वंशक्रम तथा उनकी उपलब्धियों का उल्लेख है।
  • इसमें कुंभा द्वारा रचित चण्डीशतक, संगीतराज, संगीत मीमांसा व गीत गोविंद की टीका आदि ग्रंथों का उल्लेख मिलता है।
  • कीर्ति स्तंभ प्रशस्ति के रूप में वर्तमान में तीन में से दो ही शिलाएं अवशेष हैं।
  • वर्तमान में 1 से 28 तक तथा 162 से 197 क्रमांक तक के ही श्लोक उपलब्ध हैं।
  • इस लेख की अंतिम पंक्ति में बघेरवाल जाति के सानाय के पुत्र जीजाक द्वारा स्तंभ निर्माण का उल्लेख है।
  • इस प्रशस्ति में इसके रचयिता महेश भट्ट का भी उल्लेख है।
  • इसमें कुंभा द्वारा गुजरात एवं मालवा की सेना पर विजय के उपलक्ष में विजय स्तंभ का निर्माण करवाने का उल्लेख है।
  • इसमें कुंभा द्वारा निर्मित मंदिरों तथा उनके निर्माणों की तिथियाँ अंकित है। कुंभा द्वारा बनवाये गये कुंभश्याम मंदिर की तुलना कैलाश पर्वत तथा सुमेरू पर्वत व डीडवाना की नमक की खान से कर लेने का वर्णन है।
  • इस प्रशस्ति में कुंभा को दानगुरु, राजगुरु,  शैलगुरु, महाराजाधिराज, अभिनव भरताचार्य, हिन्दू सुरताण, रायरायन, राणा रासो, छापगुरु आदि उपाधियों से पुकारा गया है।
  • यह प्रशस्ति 3 दिसम्बर, 1460 को कुंभा के समय उत्कीर्ण की गई।
  • इस लेख में 15वीं सदी के राजस्थान की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक दशा की जानकारी मिलती है।

लूणवसही नेमिनाथ मंदिर की प्रशस्ति :- 

  • 1230 ई. की यह प्रशस्ति माउण्ट आबू के देलवाड़ा के जैन मंदिरों में उत्कीर्ण है।
  • इस प्रशस्ति में आबू, मारवाड़, सिंध, मालवा तथा गुजरात के कुछ भागों पर शासन करने वाले परमारों तथा वस्तुपाल और तेजपाल के वंशों का वर्णन दिया गया है।
  • उक्त प्रशस्ति में उल्लेखित है कि यशोधवल ने कुमारपाल के शत्रु मालवा के राजा बल्लाल को मारा।
  • इस प्रशस्ति में आबू के परमार शासकों की वंशावली एवं उपलब्धियों तथा वस्तुपाल, तेजपाल के बारे में उल्लेख मिलता है।
  • लूणवसही व नेमिनाथ मंदिर  का निर्माण मंत्री वास्तुपाल के छोटे भाई तेजपाल ने अपनी पत्नी अनुपमा देवी के श्रेय के लिए बनवाया था।
  • इस मंदिर की प्रतिष्ठा विजयसेन सूरी द्वारा संपादित की गई थी।
  • नेमिनाथ प्रशस्ति में आबू के शासक धारावर्ष का उल्लेख मिलता है। इसका रचयिता सोमेश्वर तथा उत्कीर्णकर्ता सूत्रधार चण्डेश्वर था।

कुंभलगढ़ प्रशस्ति (1460 .) :- 

  • यह मेवाड़ के महाराणाओं की वंशावली को विशुद्ध रूप में महत्वपूर्ण जानकारी बताता है।
  • इस प्रशस्ति में बप्पा रावल को विप्र वंशीय (ब्राह्मण) का बताया गया है। यह प्रशस्ति तत्कालीन मेवाड़ राज्य के समाज की विशेषताओं (दासता, शिक्षा, यज्ञ एवं तपस्या, वर्णाश्रम व्यवस्था आदि) की जानकारी प्रदान करती है।
  • इस प्रशस्ति में गुहिल वंश का वर्णन एवं उपलब्धियां बताई गई हैं।
  • इसका प्रशस्तिकार कवि महेश था।

मिहिर भोज की ग्वालियर प्रशस्ति  (880 .):- 

  • इस लेख की भाषा संस्कृत है और लिपि उत्तरी ब्राह्मी लिपि है।
  • यह प्रशस्ति ग्वालियर के सागर नामक स्थान से प्राप्त हुई जिसका उत्कीर्णन गुर्जर प्रतिहार शासक मिहिर भोज द्वारा करवाया गया।
  • गुर्जर प्रतिहारों के लेखों में सर्वाधिक उल्लेखनीय मिहिर भोज का ग्वालियर अभिलेख है, जो एक प्रशस्ति के रूप में है।
  • यह लेख प्रतिहार वंश के शासकों की राजनैतिक उपलब्धियों तथा उनकी वंशावली को बताता है।
  • इस लेख में 17 श्लाके हैं।
  • ग्वालियर का उद्देश्य गुर्जर-प्रतिहार शासक भोज द्वारा विष्णु के मन्दिर का निर्माण कराए जाने की जानकारी देता है साथ ही अपनी प्रशस्ति लिखवाना ताकि स्वयं को चिरस्थायी बना सके।
  • इस प्रशस्ति पर कोई तिथि अंकित नहीं है।
  • इसका रचयिता बालादित्य था। इस प्रशस्ति से गुर्जर प्रतिहारों के बारे में जानकारी मिलती है।

त्रिमुखी बावड़ी की प्रशस्ति :-  

  • 1675 . की यह प्रशस्ति उदयपुर के पास देबारी स्थित त्रिमुखी बावड़ी पर उत्कीर्ण है।
  • इस प्रशस्ति में राजसिंह की रानी रामरसदे द्वारा देबारी में त्रिमुखी बावड़ी बनवाने का उल्लेख है।
  • इस प्रशस्ति में एक हल भूमि की इकाई का वर्णन है जो पच्चास बीघा के बराबर होती थी।
  • इसमें जगतसिंह के समय में रत्न एवं सुवर्ण तुलादान, मंदिर निर्माण, श्वेता शवदान, कलपतरुदान एवं सत्पसागर दान आदि के बारे में उल्लेख है।
  • इसमें राजसिंह के समय में निर्मित सर्वऋतु विलास बाग एवं चारुमति के विवाह का वर्णन है।
  • इसमें बप्पा से महाराणा राजसिंह तक के शासकों की वशांवली अंकित है।
  • संपूर्ण प्रशस्ति में 60 श्लोकों में संस्कृत गद्य व मेवाड़ी भाषा का प्रयोग है।
  • इसका प्रशस्तिकार रंणछोड़भट्‌ट तथा मुख्य शिल्पी नाथूगौड़ था।

एकलिंगजी मंदिर के दक्षिण द्वार की प्रशस्ति :- 

  • यह प्रशस्ति महाराणा रायमल द्वारा 1488 ई. में मंदिर के जीर्णाेद्वार के समय उत्कीर्ण करवाई गई।
  • इस प्रशस्ति में मेवाड़ के शासकों की वंशावली तथा उस समय के समाज के बारे में उल्लेख मिलता है।
  • इस प्रशस्ति में क्षेत्रसिंह द्वारा मालवा के अमीशाह को पराजित करने का विवरण दिया गया है।
  • इसमें बप्पा रावल के संन्यास लेने का वर्णन भी है।
  • इस प्रशस्ति का रचयिता महेश भट्ट था।

नाथ प्रशस्ति :- 

  • यह प्रशस्ति वि.सं. 1028 का शिलालेख है।
  • 971 ई. का यह लेख उदयपुर के लकुलीश मन्दिर से प्राप्त हुआ है जिसके रचयिता आम्रकवि थे। इसकी भाषा संस्कृत है।
  • इस प्रशस्ति में मेवाड़ के राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास के साथ-साथ नागदा नगर का वर्णन मिलता है।
  • इस प्रशस्ति में वेदांग मुनि द्वारा जैन तथा बौद्ध धर्म के विचारकों को वाद-विवाद में पराजित करने का उल्लेख है।
  • यह प्रशस्ति नरवाहनके समय लिखी गई।
  • नरवाहन के समय में इस महत्वपूर्ण लेख की 18 पंक्तियों की भाषा संस्कृत व लिपि देवनागरी थी।
  • इस लेख में हर्ष पर्वत के 975 ई. के शिलालेख में पाशुपत संप्रदाय से संबंधित गुरु विश्व रूप का उल्लेख मिलता है।

वैद्यनाथ मंदिर की प्रशस्ति :- 

  • 1719 . की यह प्रशस्ति पिछोला झील के निकट सीसारमा गाँव के वैद्यनाथ मंदिर में उत्कीर्ण की गई है जिसका रचयिता रूपभट्ट था।
  • इस प्रशस्ति में बप्पा से महाराजा संग्रामसिंह द्वितीय जिसने यह मंदिर बनवाया तक का संक्षिप्त इतिहास वर्णित है।
  • इसमें महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय तथा रणबाज खाँ के मध्य हुए बांधनवाड़ा युद्ध का उल्लेख मिलता है।
  • इसमें बप्पा को हरित ऋषि की कृपा से राज्य प्राप्ति का उल्लेख है।

जूनागढ़ प्रशस्ति :- 

  • यह प्रशस्ति बीकानेर दुर्ग के द्वार पर लगाई गई है।
  • 1594 . की यह प्रशस्ति संस्कृत भाषा में बीकानेर शासक रायसिंह द्वारा जूनागढ़ किले में उत्कीर्ण करवाई गई।
  • इस प्रशस्ति में जूनागढ़ दुर्ग के निर्माण की तिथि अंकित है तथा इस दुर्ग का निर्माण मंत्री कर्मचंद्र की देखरेख में होने का उल्लेख है।
  • इस प्रशस्ति का रचयिता जैता नामक जैन मुनि था।
  • इस प्रशस्ति में बीकानेर शासक राव बीका से रायसिंह तक की वंशावली एवं उनकी उपलब्धियों का उल्लेख है।
  • इस प्रशस्ति में रायसिंह को साहित्य एवं काव्य का ज्ञाता, विद्वानों का संरक्षक तथा एक अच्छा कवि बताया गया है।
  • इस प्रशस्ति को राय प्रशस्ति भी कहा जाता है।
  • इसे बीकानेर व रायसिंह प्रशस्ति भी कहते हैं।
  • इस प्रशस्ति में रायसिंह की काबुल विजय का भी उल्लेख है।

रणकपुर प्रशस्ति :- 

  • 1439 ई. की यह प्रशस्ति रणकपुर के चौमुखा मंदिर में संस्कृत एवं नागरी भाषाओं में उत्कीर्ण है।
  • इस प्रशस्ति में बप्पा एवं कालभोज को अलग-अलग व्यक्ति बताया गया है।
  • इस प्रशस्ति से चित्तौड़ की सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक जीवन के बारे में जानकारी मिलती है।
  • इसमें महाराणा कुम्भा की विजयों का वर्णन करते हुए उसे न्यायप्रिय एवं प्रजापालक शासक बताया गया है।
  • इस अभिलेख में महाराणा कुम्भा की प्रारंभिक विजयों बूंदी, गागरीन, सारंगपुर, नागौर, चाकसू, अजमेर, मंडोर, मांडलगढ़ आदि का वर्णन है।
  • इसका प्रशस्तिकार देपाक था।
  • इस प्रशस्ति में गुहिल वंश का आदि पुरुष बप्पा रावल को बताया गया है।
  • इस प्रशस्ति में नाणक शब्द का प्रयोग मुद्रा के लिए किया गया है।
  • नाणक एक मुद्रा थी जो 15वीं शब्तादी में मेवाड़ में प्रचलित थी।
  • इस प्रशस्ति में मेवाड़ के राजवंश एवं धरणक सेठ के वंश एवं शिल्पी का परिचय दिया गया है।
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हर्षनाथ की प्रशस्ति :-  

  • 973 . की संस्कृत भाषा के पद्य में लिपिबद्ध यह प्रशस्ति सीकर के हर्षनाथ मन्दिर में उत्कीर्ण है।
  • इस मन्दिर का निर्माण अल्लट द्वारा किये जाने का उल्लेख इस प्रशस्ति में मिलता है।
  • यह प्रशस्ति चौहान शासक विग्रहराज के समय की है जिसमें चौहानों की वंशावली तथा उनकी उपलब्धियों का उल्लेख मिलता है।
  • इस प्रशस्ति में वागड़ क्षेत्र के लिएवार्गटशब्द का प्रयोग किया गया है।

सारणेश्वर प्रशस्ति :-  

  • 953 ई. की यह प्रशस्ति उदयपुर के सारणेश्वर शिवालय में संस्कृत भाषा व नागरी लिपि में उत्कीर्ण की गई है।
  • इस प्रशस्ति में केवल छ: पंक्तियां हैं।
  • इस प्रशस्ति में आहड़ की स्थिति व्यापारिक मार्ग पर होने के कारण संपन्न नगर के रूप में वर्णित है।
  • आहड़ से मिलने वाली यह एकमात्र पूर्णत: सुरक्षित प्रशस्ति है।
  • इस प्रशस्ति से गुहिल शासक अल्लट के शासन काल और कर व्यवस्था के बारे में जानकारी मिलती है।
  • इस प्रशस्ति के रचयिता कायस्थ पाल तथा वेलक थे।
  • इस प्रशस्ति में मेवाड़ का इतिहास तथा महाराणा अल्लट एवं उसकी माता महालक्ष्मी एवं उनकी मंत्रियों के नाम मिलते हैं।
  • मेवाड़ के गुहिल वंश के शासक राजा अल्लट तथा उसके पुत्र नरवाहन और मुख्य कर्मचारियों के नाम तथा उनके पदों का वर्णन मिलता है।

आर्थूणा के शिव मन्दिर की प्रशस्ति :- 

  • 1079 ई. की यह प्रशस्ति बांसवाड़ा के आर्थूणा में एक शिवालय में उत्कीर्ण है जिसका रचयिता विजय व सूत्रधार गंदाक थे।
  • इस लेख से वागड़ के परमार शासकों के बारे में जानकारी मिलती है। इसके अनुसार वागड़ के परमार मालवा के परमार शासक डँवरसिंह के वंशज थे।
  • इसके अनुसार परमार शासक चामुण्डराज ने अपने पिता मण्डलीक की स्मृति में आर्थूणा के महामण्डलेश्वर शिवालय का निर्माण करवाया था।
  • इस प्रशस्ति में उस समय की द्रम, रूपक, बिंशोपक आदि मुद्राओं का उल्लेख मिलता है।

  बेड़वास गाँव की प्रशस्ति (1668 .) :- 

  • बेड़वास गाँव की बावड़ी में लगी यह प्रशस्ति महाराणा राजसिंह प्रथम के समय की है जो मेवाड़ी भाषा व लिपि नागरी में उत्कीर्ण है।
  • इसमें महाराणा जगतसिंह प्रथम द्वारा प्रधानमंत्री भागचंद भटनागर को दी गई जागीर का उल्लेख है।
  • इस प्रशस्ति में राम एवं रहमान का उल्लेख है।
  • उस समय देश, नगर, गाँव आदि पर चुंगी लगती थी जिसे देशदाण कहते थे।
  • प्रशस्तिकार सूत्रधार हम्मीर जी तथा प्रति तैयार करने वाला भवानी शंकर था।

डूंगरपुर की प्रशस्ति :- 

  • 1404 ई. की यह प्रशस्ति डूंगरपुर के उपरगाँव नामक गाँव में जैन मंदिर में उत्कीर्ण है जिसकी भाषा संस्कृत है।
  • इस प्रशस्ति से वागड़ के राजवंश के बारे में जानकारी मिलती है।
  • इससे वागड़ में मेवाड़ के गुहिल वंश की शाखा का शासन होने की जानकारी मिलती है।

चाकसू की प्रशस्ति :- 

  • 813 ई. का यह लेख चाकसू जयपुर से प्राप्त हुआ है। इसमें गुहिल वंशीय शासकों की वंशावली तथा उनकी विजयों के बारे में उल्लेख किया गया है।
  • इस लेख का रचयिता करणिक भानु तथा उत्कीर्णकर्ता भाइल था।
  • इस प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि यहाँ गुहिल वंश के शासक बड़े योद्धा थे और वे प्रतिहार वंश के शासकों के सामंत थे।

नौलखा बावड़ी की प्रशस्ति (1587 .) :- 

  • 1587 ई. की यह प्रशस्ति डूंगरपुर स्थित नौलखा बावड़ी पर उत्कीर्ण है।
  • इस प्रशस्ति में डूंगरपुर महारावल आसकरण की रानी प्रेमलदेवी द्वारा नौलखा बावड़ी के निर्माण का उल्लेख है।
  • इस प्रशस्ति से वागड़ के चौहान शासकों के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।

नगरी प्रशस्ति (424 .) :- 

  • यह शिलालेख नगरी नामक स्थान से प्राप्त हुआ है।
  • यह लेख अजमेर संग्रहालय में स्थित है।
  • इस लेख में उस काल के तीन भाइयों सत्यशूर, श्रीगंध एवं दास का समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों के रूप में चित्रण किया गया है।
  • संस्कृत में लिखित इस प्रशस्ति में भगवान विष्णु की पूजा का उल्लेख किया गया है।
  • किसी शासक द्वारा दिये जाने वाले दान का उल्लेख तांबे के पत्तर पर उत्कीर्ण किया जाता था जिन्हें ताम्रपत्र कहते है।
  • इस ताम्रपत्र में अनुदान देने वाले का नाम, पाने वाले का नाम, अनुदान देने का कारण तथा भूमि आदि के विवरण का उल्लेख किया जाता था।
  • भारत में सर्वप्रथम सातवाहन शासकों ने ब्राह्मणों तथा बौद्ध भिक्षुओं को भूमिदान देने की शुरूआत की थी।
  • राजस्थान में प्रारंभ में ताम्रपत्रों में संस्कृत भाषा का प्रयोग किया जाता था। कालांतर में स्थानीय भाषा का प्रयोग किया जाने लगा।
  • ताम्रपत्र को दानपत्र भी कहा जाता है।

चीकली ताम्रपत्र (1483 .) :- 

  • यह ताम्रपत्र बागड़ी भाषा में लिखा हुआ है।
  • इस ताम्रपत्र में किसानों से ली जाने वाली लागबाग एवं करों के बारे में उल्लेख मिलता है।
  • इसमें पटेल, ब्राह्मण तथा सुथारों द्वारा कृषि कार्य किए जाने का उल्लेख है।

बेगूं का ताम्रपत्र (1715 .) :- 

  • यह ताम्रपत्र महाराणा संग्राम सिंह के समय का है।
  • इसमें प्रहलाद नामक व्यक्ति को बेगूं से एक गाँव दान में देने का उल्लेख मिलता है।
  • यह अनुदान भूमि के सभी वृक्ष, कुएँ तथा नींवाण सहित किया गया था।

रंगीली ग्राम का ताम्रपत्र (1656 .) :- 

  • यह ताम्रपत्र मेवाड़ महाराणा राजसिंह के समय का है।
  • इसमें गाँव में लगने वाली खड़, लाकड़ और टका की लागत को भी छोड़े जाने की जानकारी मिलती है।
  • इसमें गंधर्व मोहन काे रंगीला नामक गाँव दान में देने का उल्लेख है।

आहड़ ताम्रपत्र (1206 . ):-  

  • यह ताम्रपत्र गुजरात के साेलंकी शासक भीमदेव द्वितीय के समय का है।
  • इस ताम्रपत्र में गुजरात के सोलंकी शासक मूलराज से भीमदेव द्वितीय तक की वंशावली का उल्लेख है।
  • इस ताम्रपत्र में लिखा है कि परमभट्टारक, महाराजाधिराज, परमेश्वर, अभिनव सिद्धराज, श्री भीमदेव ने अपने अधीन के मेदपाट (मेवाड़) मंडल (जिले) के आहड़ में एक अरहर गाँव एवं उससे संबंध रखने वाली भूमि तथा कड़वा के बीच वीहड़ के पुत्र रतिदेव को दान किया।

डीगरोल गाँव का ताम्रपत्र (1648 .) :- 

  • यह ताम्रपत्र महाराणा जगतसिंह के समय का है।
  • इस ताम्रपत्र में मेवाड़ के कई परगने बना दिए गए थे जिसमें से अंगरिया भी एक था, की जानकारी मिलती है।
  • इसमें गढ़वी मोहनदास काे आंगरिया परगने का डोगरोल गाँव अनुदान में देने का उल्लेख मिलता है।
  • इसमें महाराणा द्वारा प्रतिवर्ष स्वर्ण तुलादान करने तथा भूमिदान करने की व्यवस्था का भी उल्लेख है।

धुलेव का दानपत्र (679 .) :-

  • इस दानपत्र में किष्किंधा के शासक भेटी द्वारा उब्बरक नामक गाँव को भट्टिनाग नामक ब्राह्मण को अनुदान के रूप में देने का उल्लेख है।
  • इसका समय 23वां वर्ष अर्थात् हर्ष संवत है। इसमें संवत को अश्वाभुज संवत्सर कहा गया है।

पारसोली का ताम्रपत्र (1473 .) :- 

  • यह ताम्रपत्र महाराणा रायमल के समय का है।
  • इसमें भूमि की विभिन्न किस्मोंपीवल, गोरमो, मगरा, माल आदि का उल्लेख मिलता है।
  • इस ताम्रपत्र से जौहर की प्रथा का उल्लेख मिलता है तथा चित्तौड़ के द्वितीय शाके का ठीक समय निर्धारित होता है।

राजसिंह का ताम्रपत्र (1678 .) :-  

  • इस ताम्रपत्र में महाराणा राजसिंह के समय राजसमुद्र झील के किनारे रानी बड़ी पँवार द्वारा वेणा नागदा को दो गाँवों में तीन हल की भूमि दान करने का उल्लेख है।

प्रतापगढ़ का ताम्रपत्र (1817 .) :- 

  • महारावल सामंतसिंह के समय के इस तामप्रत्र में ब्राह्मणों पर लगने वाले कर टंकी को समाप्त करने का उल्लेख है।
  • टंकीएक कर था जो प्रति रुपया एक आना लिया जाता था।

कीटखेड़ी (प्रतापगढ़) का ताम्रपत्र (1650 .) :- 

  • यह दान-पत्र कीटखेड़ी गाँव भट्ट विश्वनाथ को दान देने के संबंध है।
  • इसमें राजमाता चौहान द्वारा बनवाए गए गोवर्धन नाथ जी के मंदिर की प्रतिष्ठा का समय दिया गया है।
  • इस ताम्रपत्र के अंत में दो श्लोक दिए गए हैं जिसमें विश्वनाथ को दीक्षागुरुकहा गया है।

कड़ियावद (प्रतापगढ़) का ताम्रपत्र (1663 .) :- 

  • इस ताम्रपत्र में रावत हरिसिंह द्वारा बाटीराम को नेगवसूल करने का अधिकार दिये जाने का उल्लेख है।
  • इस ताम्रपत्र से यह प्रमाणित होता है कि नेगवसूल करने का अधिकार चारणों को सूरजमल के समय से था।

पुर के ताम्रपत्र (1535 .) :- 

  • यह ताम्रपत्र महाराणा विक्रमादित्य के समय का है।
  • यह ताम्रपत्र में हाड़ी रानी कर्मावती द्वारा जौहर में प्रवेश करते समय दिए गए भूमि अनुदान की जानकारी मिलती है।
  • इस ताम्रपत्र में बहादुरशाह ने चित्तौड़ पर दूसरी बार आक्रमण किया था उस समय राजपूतों ने किले की रक्षा के लिए अपना बलिदान दिया था और राजपूत स्त्रियों ने जौहर के द्वारा अपने सतीत्व की रक्षा की थी।
  • इस ताम्रपत्र से चित्तौड़ के द्वितीय शाके की जानकारी मिलती है।

गडबोड गाँव का ताम्रपत्र (1719 .) :- 

  • यह ताम्रपत्र महाराणा संग्रामसिंह के समय का है।
  • इसमें बाईजीराज तथा कुंवर जगतसिंह द्वारा चारभुजा मंदिर के लिए गाँव अनुदान में देने का उल्लेख किया गया है।

लावा गाँव का ताम्रपत्र (1558 .) :- 

  • इस ताम्रपत्र में महाराणा उदयसिंह द्वारा भोला ब्राह्मण को कन्याओं के विवाह के अवसर पर लिये जाने वाले मापानामक कर लेने की मनाही करने का उल्लेख है।
  • इसके अनुसार उस क्षेत्र में कन्याओं के विवाह संबंधी उसके अधिकार यथावत् रखे गये।

पारणपुर ताम्रपत्र (1676 .) :-

  • यह ताम्रपत्र महाराणा रावत प्रतापसिंह के समय का है।
  • इसमें उस समय के पठित वर्ग तथा शासक वर्ग के नामों एवं धार्मिक अनुष्ठान करने की परम्परा का उल्लेख मिलता है।
  • इस ताम्रपत्र में लाग, टकी तथा रखवाली आदि करों का उल्लेख किया गया है।

 

मथनदेव का ताम्रपत्र (959 .) :- 

  • इस ताम्रपत्र में मथनदेव द्वारा देवालय के लिए भूमिदान देने का उल्लेख है।

बाँसवाड़ा के दानपत्र (1747 . तथा 1750 .) :- 

  • यह दानपत्र महारावल पृथ्वीसिंह के शासनकाल का है।
  • इस दानपत्र में पृथ्वीसिंह द्वारा उज्जैन में शिप्रा नदी के तट पर जानी वसीहा को 1  रहँट दान देने का उल्लेख मिलता है।

मोरड़ी गाँव का ताम्रपत्र (1873 .) :-  

  • यह ताम्रपत्र डूंगरपुर महारावल उदयसिंह के समय का है।
  • इसमें निहालचंद को मोरड़ी नामक गाँव दान देने का उल्लेख है।

पाटण्या गाँव का दानपत्र (1677 .) :-  

  • यह दानपत्र प्रतापगढ़ के महारावत प्रतापसिंह के समय का है।
  • इसमें प्रतापसिंह द्वारा महता जयदेव को पाटण्या गाँव अनुदान में देने का उल्लेख है।
  • इस दानपत्र में प्रारंभिक गुहिल शासकों के नाम तथा प्रतापगढ़ के  क्षेमकर्ण से हरिसिंह तक शासकों का उल्लेख मिलता है।

ढोल का ताम्रपत्र (1574 .) :- 

  • यह ताम्रपत्र  हाराणा प्रताप के समय का है।
  • इस ताम्रपत्र में प्रताप द्वारा ढोल नामक गाँव के प्रबंधक को भूमि अनुदान देने का उल्लेख मिलता है।

खेरादा ताम्रपत्र (1437 .) :-  

  • यह ताम्रपत्र महाराणा कुंभा के समय का है।
  • इसमें शंभू को 400 टका के दान का उल्लेख है।
  • इसमें एकलिंगजी मंदिर में कुंभा द्वारा प्रायश्चित कर भूमि का दान दिये जाने तथा उस समय की धार्मिक स्थिति का वर्णन है।

सखेड़ी का ताम्रपत्र (1716 .) :- 

  • यह ताम्रपत्र महारावत गोपाल सिंह का है।
  • इस ताम्रपत्र में कथकावल नामक कर का उल्लेख लागत-विलगत के साथ दिया गया है।

बोच गुर्जर ताम्रपत्र (978 .) :-

  • इस ताम्रपत्र के आधार पर कनिंघम ने राजपूतों की उत्पत्ति यूची जाति से मानी है।
  • इस ताम्रपत्र में गुर्जर जाति के कबीले का सप्तसैंधव भारत से गंगा कावेरी तक के अभियान का उल्लेख है।

वीरपुर का ताम्रपत्र (1185 .) :- 

  • यह दान-पत्र वि.सं. 1242 का है जो जयसमंद के निकटवर्ती वीरपुर गाँव से प्राप्त हुआ था।
  • इस ताम्रपत्र में गुजरात के चालुक्यों द्वारा सामंतसिंह से वागड़ का क्षेत्र छीनकर गुहिल वंश के अमृतपाल को देने का उल्लेख है।
  • इस ताम्रपत्र में गुजरात चालुक्य (सोलंकी), राजा भीमदेव के सामंत वागड़ के गुहिल वंशीय राजा अमृतपालदेव के सूर्य पर्व पर भूमिदान का उल्लेख है।

गाँव बटेरी का ताम्रपत्र (1525 .) :- 

  • यह ताम्रपत्र महाराणा सांगा के समय का है।
  • इस ताम्रपत्र में राणा की राजनीतिक स्थिति के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है।
  • इस ताम्रपत्र में महाराणा सांगा ने श्रीधर को बटेरी गाँव पुण्यार्थ में दिया था।

िवजन गाँव का ताम्रपत्र (1539 .) :- 

  • यह ताम्रपत्र महाराणा उदयसिंह के समय का है।
  • इस ताम्रपत्र में महाराणा उदयसिंह के राज्यकाल के प्रारभिंक वर्षाें के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है।

वरखेड़ी ताम्रपत्र (1739 .) :-  

  • यह ताम्रपत्र प्रतापगढ़ के महारावल गोपाल सिंह के समय का है जिससें कान्हा को लाख पसाव में वरखेड़ी गाँव तथा लखणा की लागत देने की जानकारी प्राप्त होती है।
  • लाख पसाव सम्मानपूर्वक दिए गए इनाम का सूचक है जो कवीश्वरों तथा विद्वानों को दिया जाता था।

बेड़वास का ताम्रपत्र (1599 .) :-  

  • इस ताम्रपत्र में उदयपुर बसाने के संवत् 1616 का उल्लेख मिलता है।

 

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