संघवाद

–     भारतीय संविधान के अनुच्छेद-I में कहा गया है कि ‘भारत, राज्यों का संघ होगा।’ (Union of the states)

–     अनुच्छेद-I में संघ शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है, बल्कि ‘यूनियन’ शब्द का प्रयोग किया गया है।

–     भारतीय संविधान की 7वीं अनुसूची में शक्तियों का विभाजन किया गया था तथा इसके अंतर्गत आने वाले विषयों को संघ सूची, राज्य सूची तथा समवर्ती सूची में रखा गया है।

–     भारतीय संघ का निर्माण, कनाडा के मॉडल के आधार पर किया गया है। इसलिए भारतीय संघ के लिए ‘यूनियन’ शब्द का प्रयोग किया जाता है।

–     भारतीय संघवाद में शक्तियाँ संघ की ओर झुकी हुई हैं।

भारतीय संविधान में राज्यों की शासन व्यवस्था की रूपरेखा

     इस व्यवस्था की रूपरेखा भाग-6 में वर्णित है क्योंकि भारत में राज्यों का अपना पृथक् संविधान नहीं है लेकिन भारतीय राज्य, जम्मू एवं कश्मीर इसका अपवाद है।

     जबकि भाग-8 में संघीय व्यवस्था का उल्लेख है।

     भारत में सभी राज्यों एवं संघीय प्रदेशों के नाम संविधान की पहली अनुसूची में दिए गए हैं। लेकिन राज्यों या इकाइयों के संदर्भ में सभी के लिए एक व्यवस्था का उल्लेख नहीं है। उदाहरण- 5वीं, 6वीं अनुसूची में सम्मिलित प्रावधान केवल कुछ विशेष क्षेत्रों एवं राज्यों के लिए हैं।

     जबकि अनुच्छेद-371 के अंतर्गत् कुछ राज्यों के लिए विशेष प्रावधान किए गए हैं।

संघीय शासन (विधायी संबंध)

–     संविधान के भाग-11 में विधायी संबंधों के वितरण का उल्लेख किया गया है। (अनुच्छेद-245 से अनुच्छेद-255 तक)।

–     क्षेत्रीय आधार पर भारतीय संसद को पूरे देश में विधि बनाने की शक्ति है तथा संसद देश के बाहर के भारतीयों के लिए भी विधि का निर्माण कर सकती है। (अनुच्छेद-245)

–     जबकि राज्य, केवल अपने राज्य के लिए विधि बना सकते हैं।

–     संघ सूची-99 विषय, राज्य सूची-61 विषय एवं समवर्ती सूची में-52 विषय दिए गए हैं।

संसद की विधि-निर्माण की शक्ति

–     भारतीय संसद समूचे भारतीय क्षेत्र के लिए विधि-निर्माण कर सकती है।

–     भारतीय संविधान में संसदीय शासन की व्यवस्था है, संसदीय संप्रभुता की नहीं। क्योंकि संविधान में संसद की विधि-निर्माण पर प्रतिबंध भी है।

(i)  कुछ संघ शासित क्षेत्रों के लिए राष्ट्रपति विधि-निर्माण करेंगे।

(ii) अनुसूचित क्षेत्रों के लिए (5वीं, 6वीं अनुसूची) राज्यपाल एवं संसद द्वारा निर्मित विधि को सीमित किया जा सकता है।

–     बाद में संसद, इस विधि को परिवर्तित कर सकती है।

–     अवशिष्ट शक्तियाँ, संघ में निहित होती हैं या अवशिष्ट शक्तियों पर विधि-निर्माण की शक्ति संसद को है, (अनुच्छेद-248)।

विधायी शक्तियों के विभाजन में संघ सरकार की प्राथमिकता

–     अवशिष्ट शक्तियाँ, संघ सरकार को प्रदान की गई हैं, (अनुच्छेद-248)।

–     समवर्ती सूची पर संघ सरकार एवं राज्य सरकार, दोनों को विधि-निर्माण की शक्ति है, (अनुच्छेद-254)। परंतु संघ सरकार एवं राज्य सरकार के मध्य विवाद की स्थिति में संघ द्वारा निर्मित विधि को प्राथमिकता प्राप्त होगी।

–     इसका एक अपवाद है। जब किसी राज्य विधेयक को राज्यपाल ने अनुच्छेद-200 के अंतर्गत राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित किया है तथा राष्ट्रपति ने इस पर अपनी अनुमति प्रदान कर दी हो, तब राजय विधि को प्राथमिकता प्राप्त होगी। लेकिन बाद में संघ सरकार द्वारा इसे परिवर्तित किया जा सकता है।

–     यदि राज्य सभा अपने उपस्थित और मतदान करने वाले दो-तिहाई बहुमत से यह संकल्प पारित करे कि राष्ट्रीय हित में संसद द्वारा राज्य सूची के विषय पर विधि-निर्माण किया जाए (अनुच्छेद-249), तब संसद राज्य सूची के विषय पर भारत के समूचे या किसी भाग के लिए विधि-निर्माण कर सकती है। यह विधि एक वर्ष के लिए लागू होगी, जिसे बाद में एक वर्ष के लिए अनिश्चित समय तक के लिए बढ़ाया जा सकता है। विधि समाप्त होने पर 6 महीने तक इसका प्रभाव बना रहेगा।

–     संसद के द्वारा आपातकाल के समय राज्य सूची के विषयों पर भी विधि का निर्माण किया जा सकता है। यह विधि आपातकाल के समाप्त होने के 6 महीने बाद तक लागू रहेगी, (अनुच्छेद-250)।

–     यदि दो या दो से अधिक राजय, संघ सरकार से राज्य सूची के विषय पर विधि-निर्माण का अनुरोध करें, तो संघ सरकार राजय सूची के विषय पर विधि-निर्माण कर सकती है। यह विधि उन्हीं राज्यों पर लागू होगी, जिन्होंने ऐसा अनुरोध किया है, बाद में अन्य राज्य भी इसे स्वीकार कर सकते हैं, (अनुच्छेद-252)।

–     किसी अन्तर्राष्ट्रीय समझौते के मुद्दे पर संघ सरकार द्वारा राज्य सूची के विषय पर विधि-निर्माण किया जा सकता है, (अनुच्छेद-253)। उदाहरण के लिए, भूमि, राज्य सूची का विषय है, परंतु संघ सरकार द्वारा ‘तीन बीघा गलियारा’ बांग्लादेश को सौंप दिया गया।

–     उपरोक्त बिंदुओं को देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि भारतीय संविधान में संघ सरकार ज्यादा शक्तिशाली है। क्योंकि राज्य सूची के विषयों पर भी संघ सरकार के द्वारा विधि का निर्माण संभव है।

–     यह उल्लेखनीय है कि आपातकाल के दौरान संघ एवं राज्य के मध्य शक्ति का विभाजन बिल्कुल समाप्त हो जाता है। भारतीय राजनीतिक व्यवस्था, एकात्मक व्यवस्था के रूप में कार्य करने लगती है।

आपातकाल में संघ एवं राज्य विधायी संबंध

–     अनुच्छेद-352 के अंतर्गत् जब राष्ट्रीय आपात की घोषणा होती है, तो संविधान में शक्तियों का विभाजन निलंबित हो जाता है।

–     लेकिन राज्य विधान मंडल बने रहते हैं, उनका विघटन नहीं होता।

–     राष्ट्रीय आपातकाल में राज्य सूची के सभी विषय, समवर्ती सूची जैसे हो जाते हैं।

–     अनुच्छेद-250 के अंतर्गत राष्ट्रीय आपातकाल में संसद की विधि-निर्माण शक्ति का स्वाभाविक रूप में विस्तार हो जाता है।

–     अनुच्छेद-356 के प्रयोग में राज्य विधान मंडल का विघटन हो जाता है।

–     राष्ट्रपति को उस राज्य के लिए विधि बनाने की शक्ति या किसी अन्य अधिकारी को संसद सौंप सकती है।

–     यदि संसद सत्र में न रहे, तो राष्ट्रपति किसी राज्य के लिए अध्यादेश जारी कर सकता है, (अनुच्छेद-357)।

संघ एवं राज्य के बीच कार्यपालिका संबंध

–     संघ एवं राज्य के  बीच कार्यपालिकीय शक्तियां, विधायी शक्तियों की भांति विभाजित हैं। संघ सरकार को संघ सूची के विषयों पर कार्यपालिकीय शक्तियां प्राप्त हैं। जबकि राज्य सूची के विषयों पर राज्य सरकार को कार्यपालिकीय शक्तियां प्राप्त हैं। समवर्ती सूची के संबंध में संघ एवं राज्यों (दोनों) को कार्यपालिकीय शक्तियां प्राप्त हैं।

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कार्यपालिकीय शक्तियों के विभाजन में संघ सरकार की प्राथमिकता

–     संघ सरकार के द्वारा राज्यों को विभिन्न निर्देश दिए जाते हैं। निर्देश देने का यह प्रावधान भारतीय शासन अधिनियम, 1935 से लिया गया है। निम्नलिखित विषयों के संबंध में संघ सरकार द्वारा राज्यों को निर्देश दिए जाते हैं-

(i)  राज्यों में लागू संघीय विधि का पालन किया जाएगा, (अनुच्छेद-256)।

(ii) राज्य के कार्यपालिकीय शक्ति का प्रयोग करते समय संघ की कार्यपालिकीय शक्तियों में हस्तक्षेप नहीं होगा, (अनुच्छेद-257)।

(iii) राष्ट्रीय या सैनिक महत्त्व के संचार साधनों का राज्य द्वारा निर्माण किया जाएगा तथा उन्हें बनाए रखा जाएगा, (अनुच्छेद-257 (2))।

(iv) राज्य के अंतर्गत् रेल का संरक्षण किया जाएगा।

(v) संघ द्वारा उस राज्य की अनुसूचित जनजातियों के कल्याण के लिए योजनाओं का निर्माण एवं उन्हें लागू करने के लिए निर्देश दिया जाएगा, (अनुच्छेद-339 (2))।

(vi) भाषायी अल्पसंख्यक बच्चों की प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में उपलब्ध कराना, (अनुच्छेद-350 (A))।

(vii) संघ का यह कर्त्तव्य होगा कि हिंदी भाषा का विकास करे, (अनुच्छेद-351)।

(viii) राज्य की सरकार संविधान के प्रावधानों के अनुसार संचालित होनी चाहिए, (अनुच्छेद-355)।

–     भारतीय संविधान में अखिल भारतीय सेवाओं का भी प्रावधान है। इन सेवकों की नियुक्ति राज्यों में होती है, परंतु इन पर नियंत्रण संघ सरकार का होता है। इसलिए राज्य सरकारों पर इन सेवकों के माध्यम से संघ सरकार का नियंत्रण हो जाता है, (अनुच्छेद-312)।

–     राज्य कार्यपालिका के संवैधानिक प्रधान राज्यपाल की नियुक्ति संघ सरकार द्वारा होती है। अत: राज्यपाल के माध्यम से भी संघ सरकार का राज्यों पर नियंत्रण स्थापित हो जाता है।

संघ व राज्य के मध्य वित्तीय संबंध (इसे वित्तीय संघवाद भी कहा जाता है)

–     वित्तीय संबंधों से संबंधित प्रावधान भारत शासन अधिनियम, 1935 द्वारा अत्यधिक प्रभावित है। संघ सरकार को सातवीं अनुसूची में वर्णित विषयों पर कर लगाने की शक्ति है। जबकि राज्य सरकारों को राज्य सूची पर कर आरोपित करने की शक्ति है। कर आरोपण के संबंध में कोई समवर्ती सूची नहीं है। जबकि कर लगाने की अवशिष्ट शक्तियां संघ सरकार में निहित हैं।

संघ के कर के विषय

      (i) सीमा शुल्क् (ii) निगम कर (iii) आय कर

राज्यों के कर के विषय

      (i) भूमि राजस्व।

      (ii) अंतर्देशीय जलमार्ग द्वारा ले जाए गए माल और यात्रियों पर कर।

      (iii) बिक्री कर।

      (iv) पथ कर।

      (v) मनोरंजन कर।

राज्यों को दिया गया अनुदान

–     अनुच्छेद-273 में उन राज्यों को अनुदान देने का प्रावधान है, जिसमें असम, बिहार, ओडीशा एवं पश्चिम बंगाल शामिल हैं। राज्यों के राजस्व में सहायता अनुदान प्रत्येक वर्ष भारत की संचित निधि से दी जाएगी।

–     अनुच्छेद-275 में उस अनुदान की व्यवस्था है, जो राज्यों को अनुदान वित्त आयोग की सलाह पर दिया जाता है।

–     अनुच्छेद-280 में वर्णित वित्त आयोग, जो कि एक अर्द्ध-न्यायिक संस्था है। अनुच्छेद-273 व 275 के लिए अनुदान की अनुशंसा तथा सिफारिश करती है।

–     अनुच्छेद-282 के अंतर्गत संघ सरकार, राज्यों को अनुदान, योजना आयोग की अनुशंसा पर देती है।

उधार की शक्ति

–     भारतीय संदर्भ में संविधान में ‘उधार’ को, भारत शासन अधिनियम, 1935 से लिया गया है।

–     राज्य सरकार, भारत से बाहर उधार नहीं ले सकती। यह अधिकार केवल संघ को है। यदि राज्य सरकार का पिछला ऋण बकाया है, तो नए ऋण के लिए भार सरकार, राज्यों के ऋण पर प्रतिबंध लगा सकती है, (अनुच्छेद-292)।

–     संसद द्वारा बनाई गई विधि के द्वारा राज्यों को ऋण दिया जा सकता है, लेकिन राज्य का ऋण किसी कारण से यदि बकाया है, तो संसद, राज्य को ऋण प्राप्त करने पर प्रतिबंध लगा सकती है, (अनुच्छेद-293)।

राज्यों के द्वारा बिक्री कर आरोपित करने पर प्रतिबंध (वित्तीय विषयों में संघ सरकार की प्राथमिकता)

–     अंतर्राज्यीय व्यापार के संदर्भ में राज्य, बिक्री कर आरोपित नहीं कर सकते।

–     वस्तुओं के आयात एवं निर्यात पर भी राज्य बिक्री कर का आरोपण नहीं हो सकता।

–     कुछ वस्तुओं को संसद ने अंतर्राज्यीय व्यापार के संदर्भ में विशेष महत्त्व का घोषित किया है। जिन पर राज्य बिक्री कर नहीं लगा सकते। उदाहरण के लिए चीनी, तंबाकू, कपास एवं सिल्क तथा ऊनी सामान को विशेष महत्व दिया गया है।

–     बिजली का विक्रय भी राज्य सूची का विषय है। लेकिन निम्नलिखित मामलों में बिजली के विक्रय पर राज्य सरकारों द्वारा करारोपण नहीं होगा, जैसे-

      (i) यदि बिजली की खरीदारी भारत सरकार द्वारा रेलवे के संचालन के लिए हो रही है।

      (ii) यदि बिजली का विक्रय, रेल कारखानों के प्रयोग के लिए हो रहा है।

आपातकाल में संघ एवं राज्य के वित्तीय संबंध

–     यदि किसी वित्तीय वर्ष में आपातकाल की घोषणा हो रही है, तो संघ एवं राज्यों के मध्य करों का विभाजन समाप्त हो जाता है। अत: उन करों को संघ पूर्णतया रख सकता है।

–     आपातकाल में संघ द्वारा दिए जा रहे अनुदान भी स्थगित किए जा सकते हैं।

–     अत: राज्यों के पास केवल राज्य के कर बचे रहेंगे। उपरोक्त स्थिति राष्ट्रीय आपात के संदर्भ में है।

–     अनुच्छेद-360 के अंतर्गत् कुछ वित्तीय सिद्धांतों के पालन करने का निर्देश संघ, राज्यों को दे सकता है।

–     राज्य सरकार में सेवा करने वाले व्यक्तियों के वेतन एवं भत्तों में कटौती भी की जा सकती है। इसमें राज्य के उच्च न्यायालय के न्यायाधीश भी शामिल हैं।

–     राज्य के विधान मंडल द्वारा पारित धन, वित्त विधेयकों को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित किया जा सकता है।

संघ व राज्यों के मध्य करों का बंटवारा व कर लगाना-

1.   राज्य सरकार द्वारा लगाए जाने वाले कर, जिसे राज्य अपने विकास के लिए रखते हैं : जिसमें भू-राजस्व, भूमि पर आयकर, उत्तराधिकार व संपदा शुल्क, भवनों पर कर, जीव-जंतुओं व नौकाओं पर कर, सड़क, मकानों, विज्ञापनों पर कर, मनोरंजन तथा बिजली के उपभोग एवं विकास की वस्तुओं पर कर, बिक्री कर एवं पथ कर इतयादि।

2.   संघ द्वारा लगाए जाने वाले कर, जो कि राज्यों द्वारा वसूली व प्रयोग किए जाते हैं : उदाहरण विनिमय पत्रों पर लगने वाले स्टांप शुल्क तथा औषधियों तथा सौन्दर्यकृत वस्तुओं पर लगने वाले उत्पाद शुल्क इत्यादि।

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3. संघ द्वारा लगाए गए व एकत्र किए गए कर, जो कि राज्यों को दे दिए जाते हैं : इसमें मुख्य कर कृषि, भूमि के अलावा उत्तराधिकार से संबंधित कर, कृषि से अलग संपदा शुल्क, रेलों, समुद्र व वायु मार्ग द्वारा ले जाने वाले माल व यात्रियों पर लगने वाले सीमा कर, रेल भाड़ों व माल भाड़ों पर कर, स्टॉक एक्सचेंज पर लगने वाला कर, समाचार-पत्रों के क्रय-विक्रय व उनमें प्रकाशित होने वाले विज्ञापनों पर लगने वाले कर, ऐसी वस्तुओं का क्रय व विक्रय, जो अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्य एवं व्यापार की वस्तु हो इत्यादि।

4.   चौथी श्रेणी में ऐसे कर हैं, जो संघ सरकार द्वारा लगाए जाते हैं व एकत्र किए जाते हैं। लेकिन उनका संघ व राज्य सरकारों में वितरण कर दिया जाता है : अनुच्छेद-270 के अंतर्गत् कृषि आय से भिन्न आय पर कर, संघ सूची में सम्मिलित उत्पाद शुल्क, सीमा शुल्क, निगम कर इत्यादि।

     80वें संविधान संशोधन के बाद दसवें वित्त आयोग की सिफारिशों के आधार पर अनुच्छेद-269, 270 और 272 में संशोधन से सभी केंद्रीय कर संघ और राज्यों के बीच विभाजित किए जाते हैं।

     परंतु केंद्रीय करों पर लगाया गया अधिभार (सरजार्च) तथा उपकर (Cess) केवल संघ के पास रहेंगे। इनका बंटवारा नहीं होगा।

     सेवा कर : 88वें संविधान संशोधन के द्वारा सेवा कर लागू किया गया है, जिसके अंतर्गत् सेवा कर को लगाने का अधिकार संघ को है। लेकिन इसकी वसूली एवं उपभोग करने का अधिकार संघ व राज्य दोनों को है।

राज्यों की स्वायत्तता की मांग

–     भारत, एक विविधतापूर्ण विशाल देश है। ऐसे देश में क्षेत्रीय आकांक्षाओं का उत्पन्न होना, स्वाभाविक है। स्वतंत्रता के पश्चात् लोगों ने भाषायी आधार पर राज्यों की मांग की। इन राज्यों की मांग के पश्चात् क्षेत्रीय दलों की सरकारों ने स्वायत्तता की मांग उठाई। स्वायत्तता, एक अनेकार्थी संकल्पना है, जिसका प्रयोग अलग-अलग तरह से किया जाता है।

–     स्वायत्तता का सामान्य अभिप्राय संविधान द्वारा प्रदत्त राज्य की शक्तियों में संघ सरकार हस्तक्षेप न करे तथा राज्यों को पर्याप्त वित्तीय संसाधन उपलब्ध हों, संविधान के प्रावधानों का दुरुपयोग न हो।

–     स्वायत्तता की संस्थागत रूप में पहली मांग तमिलनाडु की डी.एम.के. सरकार ने उठाई और सरकार ने केंद्र एवं राज्य संबंधों की स्थापना की। आयोग ने राज्यों को स्वायत्तता प्रदान करने के लिए संविधान में परिवर्तन का समर्थन किया। आयोग के अनुसार, भारतीय संघीय प्रणाली में बढ़ती केंद्रीयकरण की प्रवृत्तियों के मूल कारण निम्नलिखित हैं-

      (i) संविधान में संघ सरकार को अधिक शक्तियां प्रापत है।

      (ii) संघ और राजय में एक ही दल का शासन, जो 1952 से लेकर 1967 तक बना रहा।

      (iii) वित्तीय रूप में राज्य की संघ सरकार पर निर्भरता।

      (iv) केंद्रीयकृत नियोजन एवं योजना आयोग की भूमिका।

राजमन्नार आयोग ने वर्ष 1971 केंद्र एवं राज्य संबंधों में परिवर्तन के लिए निम्नलिखित सिफारिशें कीं-

(i)  अंतर्राष्ट्रीय परिषद् की स्थापना, (अनुच्छेद-263)।

(ii) वित्त आयोग को स्थायी संस्था के रूप में नियुक्त करना।

(iii) योजना आयोग को समाप्त कर इसके स्थान पर एक सांविधिक संस्था का निर्माण।

(iv) अनुच्छेद-356, 357, 365 जो राष्ट्रपति शासन से संबंधित है, को पूर्णत: समाप्त करना।

(v) संविधान के इस प्राधान को समाप्त किया जाए, जिसमें यह उल्लिखित है कि राज्य के मुख्यमंत्री और मंत्रिपरिषद्, राज्यपाल के प्रसाद पर्यंत पद पर बने रहेंगे।

(vi) संघ सूची एवं समवर्ती सूची के कुछ विषय, राज्य सूची में हस्तांतरित हों।

(vii) अवशिष्ट शक्तियां, राज्य सरकारों को सौंपना।

(viii) अखिल भारतीय सेवाओं को पूर्णत: समाप्त करना।

आनंदपुर साहिब प्रस्ताव (1973)

–     वर्ष 1973 में अकाली दल ने ‘आनंदपुर साहिब प्रस्ताव’ पारित किया, जिसमें केंद्र व राज्य संबंधों के संदर्भ में आमूलकारी परिवर्तन करने की मांग व सुझाव, जिसमें संघ सरकार की शक्तियां केवल निम्न विषयों तक सीमित होनी चाहिए। जैसे- रक्षा, विदेश मामले, संचार, मुद्रा एवं बैंकिंग। आयोग के प्रस्तावानुसार, शेष शक्तियां, राजय सरकार को सौंप दी जाए।

–     परंतु संघ सरकार ने इन मांगों के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण नहीं अपनाया। संघ सरकार के अनुसार, ये मांगें विघटनकारी हैं। यद्यपि यह बिंदु ध्यान देने योग्य है कि स्वायत्तता और विघटनवाद में अंतर होता है। परंतु राज्य सरकारों की आमूल-चूल परिवर्तन की मांग भी तार्किक प्रतीत नहीं होती।

पश्चिम बंगाल सरकार का मेमोरेंडम (1977) या ज्ञापन

–     पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार ने केंद्र एवं राज्य के मध्य संबंधों के विषय में संघ सरकार को एक ज्ञापन सौंपा, जिसकी मांगें निम्नलिखित थीं-

      (i) संविधान में ‘यूनियन की बजाए संघ’ (Federation) शब्द का प्रयोग किया जाए।

      (ii) संघ सरकार की शक्तियों को केवल रक्षा, विदेश, मुद्रा, संचार और आर्थिक समन्वय तक सीमित कर दिया जाए। शेष सभी विषय, राज्य सूची में हस्तांतरित कर दिए जाएं।

      (iii) अवशिष्ट शक्तियों को राजय सूची में रख दिया जाए।

      (iv) अनुच्छेद-356, 357, 360 को समाप्त किया जाए।

      (v) अखिल भारतीय सेवाएं समाप्त हों तथा भारत में केवल केंद्रीय और राजय सेवाएं होनी चाहिए।

      (vi) नए राज्यों के निर्माण या राज्यों के पुनर्गठन के संदर्भ में संबंधित राज्यों की सहमति अनिवार्य हो।

      (vii) केंद्र सरकार द्वारा अर्जित सभी प्रकार के राजस्व का 75 प्रतिशत भाग राज्यों को सौंप दिया जाए।

–     80 के दशक से क्षेत्रीयता और स्वायत्तता की मांग और प्रभावी हुई। इस मांग पर सकारात्मक अनुक्रिया व्यक्त करते हुए, संघ सरकार ने पहली बार केंद्र और राज्य के मध्य संबंधों पर पुनर्विचार करने के लिए वर्ष 1983 में ‘सरकारिया आयोग’ का गठन इंदिरा गांधी सरकार द्वारा किया गया। आयोग के अध्यक्ष रंजीत सिंह सरकारिया थे तथा दो अन्य सदस्यों में बी. शिवरामन एवं एस.आर. सेन थे।

सरकारिया आयोग (जून, 1983) की रिपोर्ट

1. संघ को शक्तिशाली बनाया जाए

      (i)     सरकारिया आयोग के अनुसार, केंद्रीयकृत नियोजन आवश्यक है।

      (ii)    आयोग ने भारत में अखिल भारतीय सेवाओं को आवश्यक माना। आयोग ने तो यहां तक कहा कि भारत में कुछ और अखिल भारतीय सेवाओं का निर्माण किया जाना चाहिए।

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      (iii) आयोग के अनुसार, राज्यपाल की संघ सरकार द्वारा नियुक्ति बिल्कुल उचित नहीं है। अनुच्छेद-200 समाप्त करने की आवश्यकता नहीं है।

      (iv) अनुच्छेद-356, 357, 360 भी संविधान में बने रहने चाहिए।

      (v)    संघ सरकार, राज्यों में सीधे केंद्रीय सैनिक बल भेज सकती है।

2. राज्यों को स्वायत्तता भी प्राप्त होनी चाहिए

      (i) आयोग के अनुसार, अनुच्छेद-263 के प्रावधान के अनुसार, अंतर्राज्यीय परिषद् की स्थापना होनी चाहिए। इसलिए अनुशंसा के अनुरूप वर्ष 1990 में वी.पी. सिंह सरकार ने ‘अंतर्राज्यीय परिषद्’ की स्थापना की।

      (ii) राज्यपाल, एक विशिष्ट व्यक्ति होना चाहिए, जिसका संबंध स्थानीय दलीय राजनीति से न हो।

      (iii) राज्यपाल का कार्यकाल 5 वर्षों का होना चाहिए। आपवादिक परिस्थिति में ही उसे समय से पूर्व हटाया जाए। यदि उसे हटाया जाता है, तो इसके वास्तविक कारण लिखित रूप में संसद के समक्ष प्रस्तुत होने चाहिए।

      (iv) अनुच्छेद-356 का प्रयोग, अंतिम विकल्प के रूप में होना चाहिए।

      (v) राज्य को अधिक वित्तीय शक्तियां प्रदान की जानी चाहिए। आयोग के अनुसार, करारोपण के संबंध में अवशिष्ट शक्तियां संघ में निहित होनी चाहिए। जबकि शेष अवशिष्ट शक्तियों को समवर्ती सूची में सम्मिलित किया जाना चाहिए।

      (vi) ‘राष्ट्रीय विकास परिषद्’ को पुनर्गठित कर, ‘राष्ट्रीय आर्थिक विकास परिषद्’ बनाई जाए।

      (vii) केंद्र सरकार द्वारा आयकर पर सरचार्ज का प्रयोग नहीं करना चाहिए। यदि आवश्यक हो, तो इसका प्रयोग अपवाद स्वरूप ही होना चाहिए।

      (viii) अनुच्छेद-200 के अंतर्गत यदि राज्यपाल किसी राज्य विधेयक को राष्ट्रपति की राय के लिए आरक्षित करे, तो इस पर 4 महीने के अंदर निर्णय हो जाना चाहिए।

3. शक्तिशाली संघ औ राज्यों की स्वायत्तता, परस्पर विरोधी नहीं है बल्कि दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं।

–     सरकारिया आयोग ने स्पष्ट रूप में भारत में शक्तिशाली संघ सरकार का समर्थन किया। राज्यों की स्वायत्तता और शक्तिशाली संघ को एक-दूसरे का पूरक माना। इससे भी बढ़कर भारत में सहकारी संघवाद को प्रभावी करने पर बल दिया। उदाहरण के लिए, आयोग ने भारत में ‘त्रिभाषा फॉर्मूला लागू’ करने पर बल दिया। नदी जल विवादों के निपटारे के लिए एक निश्चित समयावधि में न्यायाधिकरण की स्थापना का समर्थन किया। न्यायाधिकरण की अनुशंसाओं को बाध्यकारी बनाने पर भी बल दिया। आयोग के अनुसार, राज्यों की स्वायत्तता आवश्यक है, परंतु इसके लिए संविधान में किसी आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता नहीं है, बल्कि राजनीतिक दुष्प्रयोगों (संविधान का) को प्रतिबंधित कर आंशिक रूप में संविधान में परिवर्तन करके यह संभव है। इसलिए आयोग ने पूर्व की अतिवादी मांगों को अस्वीकृत कर दिया।

–     वर्तमान गठबंधनों की सरकार के दौर में आयोग की अधिकांश अनुशंसाओं को सभी दलों के द्वारा स्वीकार किया जा चुका है। इससे स्पष्ट है कि स्वायत्तता की मांग मूलत: राजनीतिक समस्या थी, जिसका समाधान राजनीतिक रूप में हो रहा है। वर्तमान समय में अनुच्छेद-356 का दुरुपयोग काफी कम हुआ है। सभी केंद्रीय कर, राज्यों के साथ विभाजित किए जा रहे हैं तथा राज्यों को केंद्रीय करों में ज्यादा हिस्सा प्रदान किया जा रहा है।

केंद्र एवं राज्य संबंधों पर ‘पुंछी आयोग’ की रिपोर्ट के मुख्य बिंदु

–     पुंछी आयोग की स्थापना वर्ष 2007 में हुई है। इन्होंने अपनी रिपोर्ट वर्ष 2010 में प्रस्तुत की।

–     पुंछी आयोग की मान्यताएँ मूलत: सरकारिया आयोग से मिलती-जुलती हैं, लेकिन तकनीकी मामलों में दोनों में अंतर प्रतीत होता है।

–     आयोग के अनुसार, अनुच्छेद-355, 356 में संशोधन होना चाहिए। उन्होंने आपातकालीन प्रावधानों के स्थानीय प्रयोग का समर्थन किया। उदाहरण के लिए, किसी जनपद के भाग में भी आपातकाल लागू किया जा सकता है। उनके अनुसार, आपातकाल 3 महीने से ज्यादा नहीं होना चाहिए।

–     आयोग ने मुख्यमंत्री की नियुक्ति के संदर्भ में अनुशंसा की है। आयोग के अनुसार, चुनाव पूर्व गठबंधन को एक दल माना जाए। चुनाव पूर्व सबसे बड़े गठबंधन को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया गया है। चुनाव के बाद निर्मित होने वाले गठबंधन को अंत में आमंत्रित किया जाए।

–     राज्यपालों की योग्यता के संदर्भ में पुंछी कमीशन की राय सरकारिया आयोग की भांति है, जिसमें कहा गया है कि राज्यपाल के रूप में ऐसा व्यक्ति नियुक्त किया जाए, जिसका स्थानीय दलों से कोई संबंध न हो।

–     आयोग ने राज्यपालों की मनमानी बर्खास्तगी की आलोचना की। आयोग के अनुसार, राज्यपालों को राजनीतिक फुटबॉल की तरह प्रयोग नहीं करना चाहिए।

–     आयोग ने राज्यपाल के कार्यकाल को 5 वर्ष निर्धारित करने की मांग की है।

–     आयोग ने राज्यपाल को हटाने के लिए विधान सभा द्वारा महाभियोग की प्रक्रिया को स्वीकार करने की अनुशंसा की है।

–     पुंछी आयोग ने वर्ष 2007 में स्थापित वेकेंट चलैया आयोग की अनुशंसा का समर्थन करते हुए कहा कि राज्यपाल की नियुक्ति एक समिति द्वारा होनी चाहिए। जिस समिति में प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, लोकसभा का स्पीकर तथा संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री और उपराष्ट्रपति को भी शामिल किया जा सकता है।

–     आयोग ने अनुच्छेद-163(2) में राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों को सीमित करने की अनुशंसा की है।

–     आयोग ने अनुच्छेद-200 के अंतर्गत आरक्षित किसी भी विधेयक पर 4 महीने की अवधि में अनुमति प्रदान करने की अनुशंसा की है।

–     आयोग के अनुसार, सांप्रदायिक हिंसा विधेयक में परिवर्तन करके यह प्रावधान होना चाहिए कि केंद्रीय सैनिक बलों को राज्य की सहमति के बिना कुछ समय के लिए तैनाती की जाए तथा तैनाती के बाद राज्य सरकार की अनुमति ली जा सकती है।

–     आयोग ने आंतरिक सुरक्षा को बनाए रखने के लिए अमेरिका की भाँति ‘राष्ट्रीय एकता परिषद्’ को ज्यादा शक्तिशाली बनाने की मांग की, जिस प्रकार अमेरिका में गृह सुरक्षा विभाग की भूमिका है।

–     आयोग ने ‘राष्ट्रीय एकता परिषद्’ के वर्ष में कम से कम एक बार सम्मेलन को अनिवार्य बताया।

–     आयोग के अनुसार, ‘भारत में राष्ट्रीय अन्वेषण एजेंसी (NIA) जैसी संस्थाओं के निर्माण की आवश्यकता है, जो आतंकवाद के संबंध में राज्यों के बीच बेहतर सहयोग सुनिश्चित करे।’

–     आयोग ने पंचायती नियोजन को ज्यादा प्रभावशाली बनाने की अनुशंसा की।

–     आयोग ने वित्तीय स्वायत्तता का भी समर्थन किया।

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