अर्थ :-
● अधिगम का सामान्य अर्थ है- सीखना।
● सामान्य शब्दों में हम लोग सीखना को अधिगम मान लेते हैं लेकिन वास्तविक शब्दों में केवल सीखना अधिगम नहीं है बल्कि सीखे हुए ज्ञान का हमारे व्यवहार में स्थायी हो जाना अधिगम कहलाता है।
● अधिगम उस व्यवहार को दिया जाने वाला नाम है जो अभ्यास एवं अनुभवों के कारण हमारे व्यवहार में स्थायित्व ग्रहण कर लेता है।
● व्यवहार में वांछित परिवर्तन ही अधिगम है।
● सभी तरह के व्यवहार में हुए परिवर्तन को सीखना नहीं कहा जाता है, व्यवहार में परिवर्तन थकान, दवा खाने से, बीमारी, परिपक्वता आदि से भी होता है। परंतु ऐसे परिवर्तन को सीखना नहीं कहा जाता।
● व्यवहार में स्थायी व अस्थायी दोनों के बीच की स्थिति वाले परिवर्तन लाने वाले कारक जैसे- प्रशिक्षण, अभ्यास व अनुभव आदि हैं।
● परिपक्वता एक सत्य है। परिपक्वता सीखने की गति पर प्रभाव डालती है।
● सीखने का उद्देश्य :- ज्ञानोपार्जन व कला अर्जन है।
● संज्ञान का अर्थ है क्रम (क्रिया) व भाषा के माध्यम से स्वयं और दुनिया को समझना।
● सीखने की एक उचित गति होनी चाहिए, ताकि विद्यार्थी अवधारणाओं को रट कर और परीक्षा के बाद सीखे हुए को भूल न जाए बल्कि उसे समझ सके और आत्मसात कर सके। साथ ही सीखने में विविधता और चुनौतियाँ भी होनी चाहिए ताकि वह बच्चों को रोचक लगे और उन्हें व्यस्त रख सके। ऊब महसूस होना इस बात का संकेत है कि वह कार्य बच्चा अब यांत्रिक रूप से दोहरा रहा है और उसका संज्ञानात्मक मूल्य खत्म हो गया है।
● जीवन के प्रारंभ में बालक के सीखने की प्रक्रिया का स्वरूप :- अपरिष्कृत, रूक्ष एवं समन्वेषी होता है।
परिभाषाएँ :-
(1) सारटेन :- “प्रतिदिन होने वाले नए-नए अनुभवों के कारण व्यवहार में आने वाला स्थायी परिवर्तन ही अधिगम है।”
(2) गेट्स व अन्य :- “अनुभव एवं प्रशिक्षण के द्वारा व्यक्ति के व्यवहार में होने वाला स्थायी परिवर्तन ही अधिगम है।”
(3) क्रो एण्ड क्रो :- “नवीन ज्ञान, आदत एवं अभिवृत्तियों का अर्जन ही अधिगम है।”
(4) स्कीनर :- “सीखना व्यवहार में उत्तरोत्तर सामंजस्य की प्रक्रिया है।”
(5) गिलफोर्ड :- “व्यवहार के कारण व्यवहार में परिवर्तन ही अधिगम है।”
(6) वुडवर्थ :- “नवीन ज्ञान एवं नवीन प्रतिक्रियाओं को प्राप्त करने की प्रक्रिया ही अधिगम है।”
(7) गार्डनर मरफी :- “वातावरण संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए व्यवहार में होने वाले सभी परिवर्तन अधिगम हैं।”
(8) थॉर्नडाइक :- “उपयुक्त अनुक्रिया के चयन तथा उसे उत्तेजना से जोड़ने को अधिगम कहते हैं।”
(9) वुडवर्थ :- “सीखना विकास की प्रक्रिया है।”
(10) पील महोदय :- “सीखना व्यक्ति में एक परिवर्तन है जो उसके वातावरण के परिवर्तनों के अनुसरण में होता है।”
(11) रिली तथा लेविस :– “अभ्यास या अनुभूति से व्यवहार में धारण योग्य परिवर्तन को सीखना कहा जाता है।”
(12) मॉर्गन व किंग :- “अभ्यास या अनुभूति के परिणामस्वरूप व्यवहार में होने वाले अपेक्षाकृत स्थायी परिवर्तन को सीखना कहा जाता है।”
(13) हिलगार्ड :- “नवीन परिस्थितियों में अपने आप को अनुकूलित करना ही अधिगम है।”
(14) किंग्सले व गैरी :- “अभ्यास अथवा प्रशिक्षण के फलस्वरूप नवीन तरीके से व्यवहार करने अथवा व्यवहार में परिवर्तन लाने की प्रक्रिया को ही सीखना कहते हैं।”
(15) हरगेनहॉन :- “सीखना व्यवहार में या व्यवहारात्मक अंत:शक्ति में अनुभूति के कारण उत्पन्न होने वाला परिवर्तन है तथा जिसे अस्थायी शारीरिक अवस्थाओं जो मूलभूत बीमारी, थकान व औषधि खाने आदि से उत्पन्न होते हैं, द्वारा व्याख्या नहीं की जा सकती है।”
अधिगम की विशेषताएँ :-
● सीखना व्यवहार में परिवर्तन है।
● जीवनपर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया (सतत रूप से)
● सीखना सार्वभौमिक प्रक्रिया है।
● अधिगम अनुभवों का संगठन है।
● अधिगम नवीन ज्ञान एवं प्रतिक्रियाओं को ग्रहण करना है।
● अधिगम अनुभव व प्रशिक्षण का परिणाम है।
● सीखना वातावरण एवं क्रियाशीलता की उपज है।
● अधिगम अनुकूलन है।
● अन अधिगम भी अधिगम है।
● अधिगम विशेष परिस्थिति की उपज है।
● अधिगम आदतों के निर्माण की प्रक्रिया है।
● सीखना उद्देश्यपूर्ण एवं लक्ष्य निर्देशित होता है।
● अधिगम अनुमानित प्रक्रिया है निष्पादन से भिन्न है।
● अधिगम अनुभव द्वारा अर्थ निर्माण की प्रक्रिया है।
● अधिगम एक परिस्थिति से दूसरी परिस्थिति में स्थानान्तरण है।
● सीखना सर्वांगीण विकास में सहायक है।
● अधिगम एवं विकास एक-दूसरे के पर्याय नहीं हैं।
● अधिगम सक्रिय प्रक्रिया है।
● अधिगम व्यक्तिगत व सामाजिक दोनों है।
● सीखना खोज करना है।
● अधिगम नया कार्य है।
● अधिगम कार्य व उत्पादन है।
● अधिगम व्यवहार में स्थायी परिवर्तन है।
Note :- सीखना विकास की प्रक्रिया है। इसे अधिगम की विशेषता नहीं माना जाता है।
अधिगम के अनुक्षेत्र (Domains of Learning) :-
(1) संज्ञानात्मक अनुक्षेत्र :- अधिगमकर्ता के संज्ञानात्मक व्यवहार में परिवर्तन लाना। विभिन्न मानसिक व बौद्धिक क्रियाएँ जैसे- सोचना, विचारना, कल्पना करना, तर्क करना, अनुमान लगाना, समझ, बोध, स्मरण, सामान्यीकरण करना, निर्णयन, समस्या-समाधान, तर्क आदि का संपादन व अपेक्षित परिवर्तन लाने का श्रेय इसी संज्ञानात्मक अनुक्षेत्र में आता है।
(2) क्रियात्मक अनुक्षेत्र :- अधिगमकर्ता के क्रियात्मक या मनोशारीरिक व्यवहार में परिवर्तन लाना अर्थात् मांसपेशियों की गति व शक्ति में स्पष्टता लाना। इसके संपादन में विभिन्न गामक क्रियाएँ जैसे- चलना, दौड़ना, पकड़ना, फेंकना, नाचना, गाना, खाना-पीना, स्पर्श करना, लिखना आदि क्षमताओं और कुशलताओं का विकास करना है।
(3) भावात्मक अनुक्षेत्र :- अधिगमकर्ता के भावात्मक व्यवहार में परिवर्तन लाना। व्यवहार से संबंधित विभिन्न क्रियाएँ जैसे- दु:ख, सुख, क्रोधित होना, डरना, रुचि, दृष्टिकोण, पसंद-नापसंद, त्याग, बलिदान, मान्यता, प्रेम, घृणा, ग्लानि, तिरस्कार आदि भावों की अनुभूति, अपने संवेगों को वांछित ढंग से प्रदर्शित करना आदि।
सीखने के प्रकार/क्रियाएँ
सामान्यतया कोई भी व्यक्ति या बालक किसी विषयवस्तु को सीखता है तो उसमें अलग-अलग प्रकार के व्यवहार प्रकट होते हैं उसके अनुसार सीखना निम्न प्रकार से हो सकता है।
1. विराम या अविराम सीखना :- विराम से अभिप्राय उस सीखने से लगाया जाता है जिसमें बालक किसी पाठ को पढ़ते समय बीच-बीच में रुक जाता है। यह विधि उस समय श्रेष्ठ होती है जब पाठ बड़ा हो तथा सीखने के लिए समय पर्याप्त हो जबकि कभी-कभी एक बालक बिना रुके लगातार सीखता है। यह उस समय संभव होता है जब पाठ छोटा हो और सीखने के लिए समय भी कम हो।
2. पूर्ण व अंश में सीखना :- जब एक बालक किसी पाठ को एक ही बार में पढ़ कर तैयार कर लेता है तो वह पूर्ण पाठ सीखना होता है और यदि बालक उस पाठ को छोटी-छोटी इकाइयों में बाँटकर एक-एक भाग को सीखते हुए आगे बढ़ता है तो वह अंश में सीखना होता है।
3. सार्थक/साभिप्राय व प्रासंगिक सीखना :- जब एक बालक या व्यक्ति किसी विषयवस्तु को अभिप्राय सहित सीखने का प्रयास करता है अथवा विषयवस्तु को समझते हुए आगे बढ़ता है तो वह सार्थक सीखना होता है और यदि कोई जानकारी किसी प्रसंगवश हो जाती है तो वह प्रासंगिक सीखना होता है। इनमें से सार्थक (साभिप्राय) सीखना ज्यादा श्रेष्ठ माना गया है।
अधिगम की अवस्थाएँ :-
कोई भी बालक सीखने के दौरान एक समान गति से नहीं सीख पाता है। वह सीखते समय अलग-अलग लक्षण प्रकट करता है तथा उसके सीखने में उतार-चढ़ाव आता रहता है। इसे ही सीखने की अवस्थाएँ कहते हैं। इन लक्षणों के आधार पर सीखने की निम्न अवस्थाएँ प्रकट होती हैं-
1. प्रारम्भिक अवस्था :- जब बालक प्रारम्भिक कालांशों में पढ़ता है तो अत्यधिक ऊर्जावान होने के कारण तीव्र गति से और अधिक मात्रा में सीखता है।
2. मध्यावस्था :- इस अवस्था में सीखने के दौरान बालक में आलस्य, चिड़चिड़ापन, थकान आदि पैदा हो जाते हैं जिससे बालक में सीखने की गति मंद और मात्रा कम हो जाती है।
3. अन्तिम अवस्था :- सीखने के दौरान एक समय ऐसा आता है कि बालक का सीखना चरम सीमा पर पहुँच जाता है और वह सीखना बंद कर देता है।
Note :- सीखने की अवस्थाएँ सार्वभौमिक नहीं होती हैं।
● गेट्स, स्कीनर एवं थॉर्नडाइक के अनुसार- “सीखने के दौरान बालक में विभिन्न प्रकार की अवस्थाओं का निर्माण होता है, लेकिन ये अवस्थाएँ सार्वभौमिक नहीं होती हैं।”
सीखने की प्रभावशाली विधियाँ
1. करके सीखना (Learning by doing) :- बालक जिस कार्य को स्वयं करते हैं उसे वे जल्दी सीखते हैं।
2. निरीक्षण करके सीखना (Learning by observation) :- बालक जिस वस्तु का निरीक्षण करता है, उसके बारे में वे जल्दी और स्थायी रूप से सीखते हैं। वे अपनी एक से अधिक इन्द्रियों का प्रयोग करते हैं फलस्वरूप उनके स्मृति-पटल पर उस वस्तु का स्पष्ट चित्र अंकित हो जाता है।
3. परीक्षण करके सीखना :- नई बातों की खोज करना, एक प्रकार का सीखना है। बालक इस खोज को परीक्षण द्वारा कर सकता है। परीक्षण के बाद वह किसी निष्कर्ष पर पहुँचता है।
4. सामूहिक विधियों द्वारा सीखना :- सीखने की सामूहिक विधियाँ व्यक्तिगत की अपेक्षा अधिक उपयोगी व प्रभावशाली मानी जाती हैं। जैसे- वाद-विवाद, सेमीनार, सम्मेलन, विचार गोष्ठी, प्रोजेक्ट, डाल्टन।
5. मिश्रित विधि द्वारा सीखना :- पूर्ण व आंशिक विधि को मिश्रित रूप में रखकर सीखना।
Note :- रचनात्मक परिप्रेक्ष्य में, सीखना ज्ञान के निर्माण की एक प्रक्रिया है।
अधिगम का पठार (Plateaus in Learning)
● सामान्यत: जब सीखने वाला बालक सीखने के दौरान कोई रुकावट महसूस करता है अर्थात् सीखने की गति में कोई उतार-चढ़ाव नहीं होता है। फलत: शिक्षण वक्र पड़ी रेखा के रूप में आगे बढ़ती है तो यह अधिगम का पठार बनता है।
● सीखने की अवस्थाओं के बीच आने वाली रुकावट या बाधा को ही अधिगम का पठार कहते हैं।
रॉस :- अधिगम का पठार उस अवधि को व्यक्त करता है जब सीखने की गति एकदम रुक जाती है। इसके अन्तर्गत अधिगम वक्र ना तो ऊपर ना ही नीचे बल्कि समान्तर होता है अर्थात् प्रगति दिखाई नहीं देती है।
● अधिगम के पठार शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग जेरोम ब्रूनर द्वारा किया गया।
अधिगम पठार बनने का कारण
● सीखने की इच्छाशक्ति का अभाव
● अभिप्रेरणा का अभाव
● अनुचित शिक्षण विधि
● विषयवस्तु की प्रकृति की जटिलता
● थकान
● सीखने का समय
● रुचि, अवधान की कमी
● बिन्दु परिवर्तन
● दोषपूर्ण वातावरण
● दोषपूर्ण पाठ्यक्रम
● शारीरिक व मानसिक दोष
● पूर्व अनुभूति से मदद नहीं मिलना
अधिगम को प्रभावित करने वाले कारक :-
(क) अधिगमकर्ता संबंधी कारक (व्यक्तिगत)
1. अभिप्रेरणा :- सीखने की प्रक्रिया में प्रेरकों (Motives) का स्थान सबसे महत्त्वपूर्ण माना जाता है। यह अधिगम को सर्वाधिक प्रभावित करने वाला कारक है।
स्टीफेन्स :- “शिक्षक के पास जितने भी साधन उपलब्ध हैं, उनमें प्रेरणा सबसे महत्त्वपूर्ण साधन है।”
● अभिप्रेरणा को अधिगम का सर्वोत्तम आधार, सर्वश्रेष्ठ राजमार्ग (सुनहरी सड़क), अधिगम की शुरुआत माना जाता है।
स्कीनर :- “अभिप्रेरणा, अधिगम का सर्वश्रेष्ठ राजमार्ग है।”
2. तत्परता एवं इच्छाशक्ति (Readiness and Willpowers):- सीखने वाला किस सीमा तक किस रूप में कोई बात सीखने को इच्छुक या तत्पर है तथा उसमें सीखने के लिए कितनी इच्छाशक्ति है यह सीखने को प्रभावित करता है।
3. शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य :- जो छात्र, शारीरिक और मानसिक दृष्टि से स्वस्थ हैं, वे सीखने में रुचि लेते हैं और शीघ्र सीखते हैं। अत: शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य सीखने को प्रभावित करता है।
4. आयु व परिपक्वता :- अधिगमकर्ता की आयु एवं परिपक्वता सीखने की प्रक्रिया को प्रभावित करती है। जो छात्र शारीरिक व मानसिक रूप से परिपक्व होते हैं वो जल्दी सीखते हैं एवं सीखने में कठिनाई महसूस नहीं करते हैं बल्कि जो बालक शारीरिक व मानसिक रूप से अपरिपक्व होते हैं वे सीखने में कठिनाई अनुभव करते हैं।
कॉलसनिक :- “परिपक्वता और सीखना पृथक् प्रक्रियाएँ नहीं हैं, वरन् एक-दूसरे से अविच्छिन्न रूप से सम्बद्ध और एक-दूसरे पर निर्भर हैं।”
● परिपक्वता अधिगम को प्रभावित करती है लेकिन परिपक्वता से व्यवहार में हुए परिवर्तन को अधिगम नहीं कहा जाता।
● परिपक्वता का अध्ययन गैसेल ने किया।
परिपक्वता व अधिगम में अंतर
(i) परिपक्वता जन्मजात प्रक्रिया है जबकि अधिगम एक अर्जित प्रक्रिया है।
(ii) परिपक्वता की प्रक्रिया गर्भधारण से प्रारम्भ होकर जन्म के बाद भी चलती है जबकि सीखने की प्रक्रिया व्यक्ति द्वारा परिपक्वता के खास स्तर पर पहुँचने के बाद ही होती है।
(iii) परिपक्वता की प्रक्रिया में अभ्यास का महत्त्व नहीं होता है जबकि सीखने की प्रक्रिया में अभ्यास एक महत्त्वपूर्ण कारक है।
(iv) परिपक्वता की प्रक्रिया एक विशिष्ट उम्र या अवस्था आने तक ही होती है परंतु अधिगम प्रक्रिया जीवनपर्यंत चलती रहती है।
(v) परिपक्वता एक शारीरिक प्रक्रिया है जबकि अधिगम एक मानसिक प्रक्रिया है।
(vi) अधिगम की प्रक्रिया परिपक्वता पर निर्भर करती है परंतु परिपक्वता की प्रक्रिया अधिगम पर नहीं।
5. स्मृति :- स्मृति अधिगम को प्रभावित करती है। तीव्र स्मृति शीघ्र अधिगम में उपयोगी होती है।
6. सीखने का समय व थकान :- सीखने का समय सीखने की क्रिया को प्रभावित करता है। जब छात्र विद्यालय जाते हैं तब स्फूर्ति होती है तो वे जल्दी सीखते हैं लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता है उनमें थकान आ जाती है जो सीखने को मन्द कर देती है।
7. पूर्वज्ञान :- बालक का पूर्वज्ञान वर्तमान सीखने को प्रभावित करता है।
8. बुद्धि-लब्धि (I.Q.) :- बालक का बुद्धि-लब्धि स्तर अधिगम को प्रभावित करता है। प्रतिभाशाली बालक, पिछड़े बालक व मंदबुद्धि बालक अलग-अलग गति व मात्रा में सीखते हैं।
9. भोजन व औषधियाँ
10. ध्यान/अवधान
11. जीवन उद्देश्य
12. रुचि व महत्त्वाकांक्षा आदि।
(ख) शिक्षक संबंधी कारक :-
1. विषय पर पूर्ण अधिकार
2. विषयवस्तु का प्रस्तुतीकरण
3. शिक्षण कला व कौशल
4. शिक्षक का व्यवहार व व्यक्तित्व
5. अध्यापक का मानसिक स्वास्थ्य एवं समायोजन
6. छात्र-शिक्षक संबंध
7. शिक्षण की विधियाँ
8. अध्यापक की अंत:क्रिया का स्तर
(ग) विषयवस्तु संबंधी कारक :-
1. विषयवस्तु की प्रकृति
2. विषयवस्तु की रोचकता, लम्बाई
3. विषयवस्तु की उपयोगिता, कठिनाई
(घ) वातावरण संबंधी कारक :-
1. परिवार का वातावरण
2. विद्यालय व समाज का वातावरण
3. भौतिक वातावरण (जलवायु)
4. समय-सारिणी
5. मित्र-मण्डली
6. खेल-मैदान
7. पुरस्कार व दण्ड का प्रयोग
8. सांस्कृतिक वातावरण
9. उपयुक्त शिक्षण परिस्थितियाँ
अधिगम वक्र (Curves of Learning)
● सीखने की गति व मात्रा आरम्भ से अंत तक एक-सी नहीं होती है। वह कभी तेज और कभी धीमी होती है। सीखने की गति को ग्राफ पेपर पर अंकित करने पर बनने वाले वक्र को, अधिगम के वक्र कहते हैं। अर्थात् अधिगम वक्र सीखने की उन्नति या अवनति को व्यक्त करता है।
गेट्स व अन्य :- “सीखने के वक्र-अभ्यास द्वारा सीखने की मात्रा, गति और उन्नति की सीमा का ग्राफ पर प्रदर्शन करते हैं।”
अधिगम वक्र के प्रकार :-
1. सकारात्मक/धनात्मक वक्र/नत्तोदर वक्र
2. नकारात्मक/ऋणात्मक वक्र/उन्नतोदर वक्र
3. सरल रेखीय वक्र/त्वरण वक्र
4. S-आकार/मिश्रित वक्र
1. समान निष्पादन/सरल रेखीय वक्र (Curve of equal returns) :- सीखने के दौरान जब बालक सदैव एक समान गति व मात्रा में सीखता है तो उसे अधिगम का सरल रेखीय वक्र कहते हैं।
2. सकारात्मक/धनात्मक वक्र (वर्धमान) (Concave Curve) :- जब बालक प्रारंभ में धीमी गति से सीखता है लेकिन बाद में सीखने की गति तीव्र हो जाती है तो वह सकारात्मक वक्र कहलाता है। इसमें अभ्यास के साथ सीखने में प्रगति होती है।
3. नकारात्मक/ऋणात्मक वक्र (ह्रास निष्पादन वक्र) (Convex Curve) :- जब बालक प्रारंभ में तीव्र गति से सीखता है लेकिन धीरे-धीरे सीखने की गति मंद हो जाती है उस नकारात्मक उन्नति को सीखने का नकारात्मक वक्र कहते हैं।
4. S-आकार/मिश्रित वक्र (S-shaped Curve) :- जब बालक की अधिगम से संबंधित उन्नति सदैव एक समान नहीं रहती है बल्कि बार-बार उतार-चढ़ाव आता रहता है अर्थात् पहले धीमी गति, फिर तेज तथा फिर धीमी गति होती है।
अधिगम वक्र बनने के कारण :-
● विषयवस्तु की प्रकृति व जटिलता।
● अनुपयुक्त शिक्षण विधि व शिक्षक का व्यवहार।
● सीखने की इच्छा का अभाव।
● निम्न बुद्धि लब्धि।
● सीखने का उद्देश्य की अस्पष्टता।
● परिपक्वता, आयु, रुचि, पूर्वज्ञान आदि।
अधिगम का स्थानान्तरण/अंतरण :-
अर्थ :- जब एक परिस्थिति में प्राप्त ज्ञान, कौशल का अन्य परिस्थिति में उपयोग करना अर्थात् जब पहले के सीखने का प्रभाव किसी नई अनुक्रिया के सीखने पर पड़ता है, उसे अधिगम का स्थानान्तरण/अंतरण कहते हैं।
1. क्रो एण्ड क्रो :- “सीखने के एक क्षेत्र में प्राप्त होने वाले ज्ञान या कुशलता, सोचने, अनुभव करने या कार्य करने की आदतों का सीखने के दूसरे क्षेत्र में उपयोग करना साधारणत: प्रशिक्षण का स्थानान्तरण कहलाता है।”
2. कॉलसनिक :- “पहली परिस्थिति से प्राप्त ज्ञान, कुशलता, आदतों, अभियोग्यताओं या अन्य क्रियाओं का दूसरी परिस्थिति में प्रयोग करना ही अधिगम अंतरण है।”
3. पीटरसन :- “स्थानान्तरण सामान्यीकरण है क्योंकि यह एक नए क्षेत्र तक विचारों का विस्तार है।”
4. सोरेन्सन :- “स्थानान्तरण एक परिस्थिति में अर्जित ज्ञान, प्रशिक्षण और आदतों का किसी दूसरी परिस्थिति में स्थानान्तरित किए जाने का उल्लेख होता है।”
5. ब्लेयर, जोन्स व सिम्पसन – “जब पहले के सीखने का प्रभाव किसी नई अनुक्रिया के निष्पादन या सीखने पर पड़ता है तो सीखने का अंतरण कहलाता है।”
अधिगम स्थानान्तरण/अंतरण के प्रकार :-
1. सकारात्मक स्थानान्तरण
2. नकारात्मक स्थानान्तरण
3. शून्य स्थानान्तरण
1. सकारात्मक/धनात्मक अधिगम अंतरण :-
जब पहली परिस्थिति में प्राप्त ज्ञान, अभियोग्यता, कौशल एवं आदत दूसरी परिस्थिति में ज्ञान व कौशल अर्जित करने में सहायता करते हैं, तो वह अधिगम का सकारात्मक/धनात्मक अधिगम अंतरण कहलाता है।
जैसे- 1. साइकिल चलाने के बाद स्कूटर/मोटरसाइकिल चलाना।
2. संस्कृत भाषा सीखने के बाद हिन्दी भाषा सीखना।
3. गणित का प्रयोग भौतिक विज्ञान में करना।
4. जोड़-बाकी का ज्ञान लेन-देन में सहायक होता है।
5. हिंदी भाषा सीखने के बाद भोजपुरी भाषा सीखना।
2. नकारात्मक/ऋणात्मक अधिगम अंतरण :-
जब पहली परिस्थिति में प्राप्त ज्ञान, कुशलता, अभियोग्यता दूसरी परिस्थिति में ज्ञान, कुशलता प्राप्ति के समय बाधा/रुकावट उत्पन्न करे तो वह अधिगम का नकारात्मक स्थानान्तरण कहलाता है।
जैसे- 1. एक पुरानी मोटरसाइकिल चलाने के बाद अचानक नई मोटरसाइकिल चलाना।
2. नाव चलाने वाले को साइकिल चलाना कठिन।
3. एक विशेष प्रकार के की-बोर्ड पर टाइप करने के पश्चात् किसी दूसरे की-बोर्ड पर टाइप करना।
4. भारत में कार चलाने के बाद अमेरिका में कार चलाना।
3. शून्य अधिगम अंतरण :-
जब पहली परिस्थिति में प्राप्त ज्ञान, कुशलता नए कार्य को करने या सीखने में न तो सहायता पहुँचाता है और ना ही बाधक होता है अर्थात् उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, उसे अधिगम का शून्य स्थानान्तरण कहा जाता है।
जैसे- 1. गणित व भाषा के मध्य अंतरण
2. बल्लेबाजी करने वाले पर गेंदबाजी का शून्य अंतरण होता है।
3. रहीम का दोहा याद करने के बाद कबीर का दोहा याद करने पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
अंतरण के अन्य प्रकार
1. द्विपार्श्वीय अधिगम अंतरण/क्रॉस शिक्षा (Bilateral transfer) :- जब शरीर के बाएँ अंग से सीखे कौशल का अंतरण स्वत: दाएँ अंग के सीखने पर या दाएँ अंग के सीखने का अंतरण बाएँ अंग पर स्वत: होता है तो उसे अधिगम का द्विपार्श्वीय अंतरण या क्रॉस शिक्षा कहते हैं।
2. क्षैतिज अधिगम अंतरण (लम्बवत् अंतरण) (Horizontal transfer) :- किसी एक परिस्थिति में सीखे गए ज्ञान अथवा कौशल का उसी के समान प्रकृति की दूसरी परिस्थिति में उपयोग करना, अधिगम का क्षैतिज अंतरण कहलाता है। पार्श्वीय व अनुक्रमिक अंतरण एक तरह से क्षैतिज अंतरण के उदाहरण हैं।
जैसे- एक भाषा के नियमों से दूसरी भाषा के नियमों को समझना (वर्ण से व्याकरण)।
3. ऊर्ध्व अधिगम का अंतरण/अनुलंब (Vertical transfer) :- किसी निम्न परिस्थिति में प्राप्त ज्ञान का प्रयोग उच्च स्तर की परिस्थिति में करना, अधिगम का ऊर्ध्व अंतरण कहलाता है।
(निम्न से उच्च स्तर की ओर)
उदाहरण :- 8वीं कक्षा के बालक से, 10वीं कक्षा का प्रश्न पत्र हल करवाना।
शुन्क (2000) के अनुसार अधिगम अंतरण के प्रकार
1. समीपवर्ती अंतरण (Near Transfer) :- जब परिस्थितियाँ समान होती हैं तो समीपवर्ती अंतरण होता है। जैसे- कोई छात्र टकण मशीन (Typewriter) पर टाइप करना सीखकर कम्प्यूटर कुँजी बोर्ड (Computer Keyboard) पर टाइप करना सीखता है।
2. दूरवर्ती अंतरण (Far Transfer) :- वह अंतरण जिसमें आरम्भिक अधिगम से भिन्न परिस्थिति में अंतरण होता है।
3. निम्न रोड अंतरण (Low-road Transfer) :- वह अंतरण जब पूर्व में सीखा गया ज्ञान या कौशल स्वत:, प्राय: अचेतन रूप में दूसरी परिस्थिति में अंतरित हो जाता है।
4. उच्च-रोड अंतरण (High-road Transfer) :- जब अंतरण स्वत: न होकर प्रयास करने से, चेतन रूप से होता है। यहाँ पर छात्र काफी सोच-समझकर आरम्भिक अधिगम की परिस्थिति तथा वर्तमान परिस्थिति में संबंध स्थापित करते हैं, जिसके फलस्वरूप अंतरण होता है।
अधिगम स्थानान्तरण के सिद्धांत :-
1. समरूप तत्त्वों का सिद्धांत :- थॉर्नडाइक ने, 1903 में।
जब दो कार्यों, विषयों, अनुभवों, परिस्थितियों आदि में जितनी अधिक समानता होती है, उतना ही अधिक अधिगम का अंतरण होगा।
क्रो एण्ड क्रो :- “एक परिस्थिति से दूसरी परिस्थिति को अंतरण उसी अनुपात में होता है, जिसमें दोनों स्थितियों की विषय-सामग्री, दृष्टिकोण, विधि या उद्देश्य के तत्त्वों में समानता होती है।”
जैसे- 1. गणित के क्षेत्र में किया गया अध्ययन भौतिक शास्त्र में अंतरण अधिक होता है। दोनों विषयों में चिह्न, सूत्र, गणनाओं, समीकरणों में समान तत्त्व उपस्थित हैं।
2. भूगोल का ज्ञान इतिहास के अध्ययन में सहायता प्रदान करता है।
3. टाइप सीखने के कौशल का पियानो में स्थानान्तरण संभव है।
2. सामान्यीकरण का सिद्धांत :- सी.एच. जड ने (Charles Judd), 1908 में।
जब व्यक्ति अपने कार्य, ज्ञान या अनुभव से कोई सामान्य नियम या सिद्धांत निकाल लेता है तो वह दूसरी परिस्थिति में उनका प्रयोग इन सामान्य निष्कर्षों व नियमों के आधार पर कर लेता है।
जैसे- एक शिक्षक को बाल-मनोविज्ञान, सीखने के सिद्धांतों और व्यक्तिगत विभिन्नताओं का ज्ञान है तो वह अपने इस ज्ञान का प्रयोग कक्षा की समस्याओं का समाधान करने और सफलतापूर्वक पढ़ाने के लिए कर सकता है।
3. सामान्य व विशिष्ट तत्त्वों का सिद्धांत (द्वि-कारक) :-
प्रतिपादक – स्पीयरमैन।
● मनुष्य में 2 प्रकार की बुद्धि होती है- सामान्य व विशिष्ट।
जिनका संबंध सामान्य योग्यता और विशिष्ट योग्यता से है।
● स्थानान्तरण केवल सामान्य योग्यता (G) का होता है विशिष्ट (S) का नहीं।
4. आदर्श व मूल्यों का सिद्धांत :- W.C. बागले ने
मनुष्य के गुणों में से कुछ ऐसे गुण होते हैं जो उसके आदर्श बन जाते हैं और केवल आदर्श गुणों का ही अंतरण आसानी से हो सकता है। एक बार आदर्शों की नींव पड़ जाती है तो उनका स्थानान्तरण जीवन के हर क्षेत्र में होता है।
5. समग्रता का सिद्धांत :- वोल्फ गैंग कोहलर ने।
इस सिद्धांत के अनुसार कोई भी बालक जब पहली परिस्थिति में प्राप्त ज्ञान या समझ का दूसरी परिस्थिति में उपयोग करता है उसमें ज्ञान की पूर्णता होनी चाहिए और साथ ही ज्ञान को अगली परिस्थिति में उपयोग में लाने हेतु उसमें सूझ/अंतर्दृष्टि होनी चाहिए।
अधिगम स्थानान्तरण में शिक्षक की भूमिका
1. स्थानान्तरण को प्रभावित करने वाला पहला कारक (तत्त्व) है- सामान्यीकरण। अत: शिक्षक को बालक को अपने अध्ययन के विषयों के सामान्य सिद्धान्त निकालने की विधियाँ बतानी चाहिए।
2. स्थानान्तरण को प्रभावित करने वाला दूसरा कारक है- अर्जित ज्ञान का विभिन्न परिस्थितियों में प्रयोग। अत: शिक्षक को बालकों को अपने ज्ञान का प्रयोग करने के लिए अधिक से अधिक परिस्थितियाँ प्रदान करनी चाहिए।
3. मर्सेल के अनुसार- स्थानान्तरण को प्रभावित करने वाला तीसरा कारक है- समझदारी। अत: शिक्षक को बालकों में इस गुण का विकास करने का प्रयत्न करना चाहिए।
4. स्थानान्तरण को प्रभावित करने वाला चौथा कारक है- समानता। अत: शिक्षक को अपने शिक्षण के समय पाठ्य-विषय में आने वाले तथ्यों की दूसरे विषयों के तथ्यों से समानता बतानी चाहिए। साथ ही उसे बालकों को इस प्रकार की समानता की खोज करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।
5. स्थानान्तरण को प्रभावित करने वाला पाँचवाँ कारक है- अध्ययन की विधियाँ। अत: शिक्षक द्वारा बालकों को अध्ययन की सर्वोत्तम विधियाँ बताई जानी चाहिए।
6. स्थानान्तरण को प्रभावित करने वाला छठा कारक है- बालकों की मानसिक योग्यता। अत: शिक्षक को प्रत्येक सम्भव विधि से उनकी मानसिक योग्यता के विकास में योगदान देना चाहिए।
सीखने (अधिगम) के नियम :-
● प्रतिपादक :- E.L. थॉर्नडाइक
● थॉर्नडाइक ने अपने प्रयास एवं त्रुटि सिद्धांत के आधार पर सीखने के 3 मुख्य और 5 गौण नियमों का प्रतिपादन किया।
● मुख्य नियम
1. तत्परता का नियम (रुचि का नियम)
2. अभ्यास का नियम (उपयोग-अनुपयोग का नियम)
3. प्रभाव/परिणाम का नियम (संतोष-असंतोष का नियम)
● गौण नियम :-
1. बहुप्रतिक्रिया का नियम
2. आंशिक क्रिया का नियम
3. मनोवृत्ति/अभिवृत्ति का नियम
4. आत्मीकरण/सादृश्यता का नियम
5. साहचर्य परिवर्तन का नियम
मुख्य नियम :-
1. तत्परता का नियम (Law of Readiness) :- इसे मानसिक तैयारी/रुचि का नियम भी कहते हैं।
● इस नियम के अनुसार कोई प्राणी किसी कार्य को करने के लिए मानसिक व शारीरिक रूप से तैयार या तत्पर होता है तो उसे शीघ्र ही सीख लेता है। तत्परता में कार्य करने की इच्छा निहित रहती है। तत्परता व्यक्ति में कार्य के प्रति रुचि उत्पन्न करती है और रुचि से कार्य सफल होते हैं। यदि प्राणी कार्य के प्रति तत्पर नहीं होता है तो उस कार्य को नहीं कर सकता है।
वुडवर्थ ने इसे मानसिक तैयारी का नियम कहा है।
जैसे- 1. एक घोड़े को तालाब तक ले जाया जा सकता है लेकिन उसे पानी पीने के लिए बाध्य नहीं कर सकते हैं।
2. यदि एक बालक में गणित के प्रश्न हल करने की रुचि या तत्परता होती है तो उन्हें हल कर सकता है अन्यथा नहीं।
2. अभ्यास का नियम (Law of exercise) :- अभ्यास का नियम किसी कार्य को बार-बार दोहराने से दृढ़ होता है अर्थात् अभ्यास ही मनुष्य को दक्ष बनाता है।
● अभ्यास करने से मूर्ख व्यक्ति भी विद्वान बन जाता है। ठीक वैसे ही जैसे कुएँ की जगत पर बार-बार रस्सी के आने-जाने से निशान पड़ जाते हैं।
● अभ्यास के नियम के 2 उपनियम हैं :-
i. उपयोग का नियम (Law of use) :- इसका तात्पर्य हम सीखे हुए कार्य को बार-बार उपयोग में लेते हैं तो उस कार्य में कुशल हो जाते हैं अर्थात् दोहराव उद्दीपन-अनुक्रिया के संबंध को मज़बूत बनाता है।
ii. अनुपयोग का नियम (Law of Dissuse) :- यदि हम सीखे हुए कार्य का अभ्यास नहीं करते हैं, तो हम उसको भूल जाते हैं। अभ्यास के अभाव में कार्य/विषय का विस्मरण हो जाता है।
जैसे- हमारी टीम हमेशा विजेता रहती है परन्तु इस बार परीक्षाएँ नज़दीक होने के कारण अभ्यास नहीं कर पाए तो हारना पड़ा।
3. प्रभाव/संतोष/परिणाम का नियम (Law of effect) :- जब भी कोई व्यक्ति किसी कार्य को करता है तो उस व्यक्ति में कार्य के आने वाले परिणाम अपना प्रभाव छोड़ते हैं। यदि उसका परिणाम/प्रभाव हितकर होता है या जिससे हमें सुख और संतोष मिलता है। यदि प्रभाव सकारात्मक होता है तो संतुष्टि अन्यथा असंतोष की प्राप्ति होती है।
अर्थात् क्रिया या कार्य करने के बाद यदि संतुष्टि प्राप्त होती है तो उसे करना सीख लिया जाता है अन्यथा नहीं।
● विद्यालय में पुरस्कार या दण्ड अपनाकर सीखने की क्रिया को प्रभावशाली बनाया जाता है।
गौण नियम – 5
1. बहु-अनुक्रिया का नियम (Law of multiple Response):- किसी भी कार्य को पूरा करने के लिए भिन्न-भिन्न (विविध प्रकार के) प्रकार के उपाय करना तथा निश्चित परिणाम के लिए प्रतिक्रियाओं का उपयोग करना अर्थात् हम विविध प्रकार के उपायों और विधियों का प्रयोग करके उस कार्य में सफलता प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं।
जैसे- 1. बिल्ली को पिंजरे से निकालना
2. प्रतियोगी अभ्यर्थी सफलता के लिए विभिन्न माध्यमों को अपनाता है।
2. आंशिक क्रिया का नियम (Law of Partial Activity) :- इस नियम के अनुसार हम जिस कार्य को करना चाहते हैं, उसे छोटे-छोटे अंगों या भागों में विभाजित कर लेते हैं। इस प्रकार का विभाजन, कार्य को सरल और सुविधाजनक बना देता है। इस नियम पर शिक्षण का ‘अंश से पूर्ण’ का सिद्धांत आधारित है। शिक्षक अपनी सम्पूर्ण विषयवस्तु को छोटे-छोटे खण्डों में विभाजित करके छात्रों के समक्ष प्रस्तुत करता है।
3. मनोवृत्ति/अभिवृत्ति/मानसिक विन्यास का नियम (Law of Disposition) :- इस नियम से तात्पर्य है कि जिस कार्य के प्रति हमारी जैसी अभिवृत्ति या मनोवृत्ति होती है, उसी अनुपात में हम उसको सीखते हैं। यदि हमारी मानसिकता सकारात्मक है तो परिणाम सकारात्मक होंगे अन्यथा नकारात्मक।
जैसे- मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।
4. आत्मीकरण/सादृश्यता का नियम (Law of Assimilation) :- इस नियम के अनुसार हम पूर्वज्ञान से संबंध स्थापित करके सीखते हैं। हम जो नया ज्ञान प्राप्त करते हैं, उसे पूर्वज्ञान से जोड़ते हुए आत्मसात् कर लेते हैं।
जैसे- एक बालिका अपने ननिहाल में किसी को हलवा बनाते हुए देखती है और फिर अपने घर आकर भी हलवा बनाती है अर्थात् पूर्वज्ञान के आधार पर नया ज्ञान सीखना।
5. साहचर्य परिवर्तन का नियम (Law of Associative Shifting) :- इस नियम के अनुसार पहले कभी की गई क्रिया को उसी के समान दूसरी परिस्थिति में उसी प्रकार करना इसमें क्रिया का स्वरूप तो वही रहता है, पर परिस्थिति में परिवर्तन हो जाता है।
जैसे- 1. बेटे के दूर जाने पर माँ द्वारा उसकी फोटो के साथ बातचीत करना।
2. प्रेमिका की अनुपस्थिति में प्रेमी उसके चित्र से उसी प्रकार से बातें करता है, जिस प्रकार वह उससे प्रत्यक्ष रूप से करता था।
अधिगम सोपानिकी (अधिगम के प्रकार) :-
प्रतिपादक :– रॉबर्ट गैने, 1965 में।
पुस्तक :- The Condition of Learning (अधिगम की शर्तें) (8)।
● अमेरिकी विद्वान रॉबर्ट एम. गैने ने आठ प्रकार के अधिगम बताए हैं, जिन्हें उन्होंने एक सोपानिकी (शृंखलाबद्ध क्रम) के रूप में प्रस्तुत किया है, जिसे रॉबर्ट गैने की अधिगम सोपानिकी के नाम से जाना जाता है।
● 1 से 4 तक निम्न श्रेणी में आते हैं। इनमें तर्क, चिन्तन बोध आदि का अभाव पाया जाता है।
● 5 से 8 तक के अधिगम उच्च श्रेणी में आते हैं। इसमें तर्क व चिन्तन पाया जाता है।
● संकेत अधिगम सबसे निम्न एवं समस्या-समाधान सबसे उच्च श्रेणी का अधिगम है।
1. संकेत अधिगम (Sign Learning) :- यह सबसे निम्न श्रेणी का अधिगम है। इसमें बिना तर्क, चिन्तन के केवल संकेतों के माध्यम से व्यवहार करना होता है। यह सबसे निम्न श्रेणी का अधिगम है। इसमें बिना तर्क, चिन्तन के केवल संकेतों के माध्यम से व्यवहार करना होता है।
● यह आई.पी. पावलॉव के सिद्धांत पर आधारित है तथा अनुकूलित अनुक्रिया के रूप में होता है।
जैसे- 1. चौराहे पर लाल बत्ती को देखकर वाहनों का रुकना।
2. हरी झण्डी को देखते ही रेलगाड़ी का चलना।
3. अध्यापक को देखकर बच्चों का चुप होना।
2. उद्दीपक-अनुक्रिया अधिगम (Stimulus response Learning) :- जब कोई व्यवहार किसी उद्दीपक की उपस्थिति के कारण होता है तो उस उद्दीपन से होने वाली अनुक्रिया व्यक्ति विशेष से संबंधित होती है और अचानक किसी व्यवहार को जन्म देती है अर्थात् उद्दीपक की उपस्थिति में अनुक्रिया का होना, यह थॉर्नडाइक व स्कीनर के नियम पर आधारित है।
जैसे- विद्यालय की घंटी बजते ही सड़क पर चलने वाले लोगों में से उस विद्यालय में पढ़ने वाले बालक दौड़ते हैं।
3. शृंखला अधिगम (Learning to simple Chaining) :- कुछ व्यवहार ऐसे होते हैं जिन्हें किसी एक निश्चित शृंखला में ही पूरा करना पड़ता है अर्थात् क्रमिक रूप से सीखना, शृंखला अधिगम है।
जैसे-
-वर्णमाला का एक निश्चित शृंखला क्रम- क, ख, ग …..
– कार चलाना सीखना, दरवाजा खोलना सीखना, तबला बजाना सीखना।
● शृंखला अधिगम- एडविन गुथरी का सिद्धांत है।
4. शाब्दिक साहचर्य अधिगम (Verbal Association Learning) :- जब हमारा व्यवहार शब्दों के स्मरण करने, रटने पर निर्भर करता है तो यह शाब्दिक अधिगम कहलाता है।
जैसे- कविता पाठ, गीतों के माध्यम से सीखना, शब्दावली सीखना।
5. बहुविभेदन अधिगम (Discrimination learning) :- जब एक व्यक्ति के सामने दो या दो से अधिक उद्दीपक/उपाय हो तो उनमें से किसी एक सही उद्दीपक/उपाय का चयन करके उसके अनुसार क्रिया करना बहुविभेदन अधिगम कहलाता है।
जैसे- 1. रंगों में अंतर
2. एक बहुचयनात्मक प्रश्नावली में से सही विकल्प का चुनाव करना।
3. त्रिभुज व चतुर्भुज में अंतर करना।
6. सम्प्रत्यय/अवधारणा अधिगम (Concept learning) :- जब भी कोई व्यवहार किसी विचार के उन्नत होने से होता है अर्थात् किसी वर्ग या गुण के आधार पर वस्तु की व्याख्या करना, प्रत्यय अधिगम कहलाता है।
● विभिन्न प्रकार के आविष्कारों का होना इसी पर आधारित होता है।
7. सिद्धांत/नियम अधिगम (Rule learning) :- कुछ निश्चित नियमों/सिद्धांतों के आधार पर समस्या की व्याख्या की जाती है।
जैसे- 1. न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण का नियम
2. H2 + O = H2O बनता है आदि।
8. समस्या-समाधान अधिगम (Problem solving learning) :- यह अधिगम का सर्वोत्तम व उच्च प्रकार है। किसी भी समस्या के समय तर्क, चिन्तन, बोध के द्वारा किसी समाधान को प्राप्त करना।
● यह गेस्टाल्ट सिद्धांत पर आधारित है।
जैसे- रेखागणित के प्रमेय को हल करना।
अधिगम के सिद्धांत (Theories of Learning) :-
A. सीखने के व्यवहारवादी/साहचर्य का सिद्धांत (S – R सिद्धांत)
i. उद्दीपन – अनुक्रिया का सिद्धांत – थॉर्नडाइक
ii. अनुकूलित – अनुक्रिया का सिद्धांत – पावलॉव
iii. पुनर्बलन/प्रबलन का सिद्धांत – C.L. हल
iv. क्रिया-प्रसूत अनुबंधन सिद्धांत – B.F. स्कीनर
v. समीपता/स्थानापन्न का सिद्धांत – एडविन गुथरी
B. अधिगम के संज्ञानात्मक क्षेत्र के सिद्धांत (S – O – R सिद्धांत)
i. अन्त:दृष्टि/सूझ का सिद्धांत (गेस्टाल्ट) – कोहलर
ii. चिह्न अधिगम सिद्धांत – टॉलमैन
iii. तलरूप अधिगम सिद्धांत – कुर्त लेविन
iv. सामाजिक अधिगम सिद्धांत – अल्बर्ट बाण्डूरा
A. अधिगम के व्यवहारवादी/साहचर्यवादी सिद्धांत
● अधिगम उद्दीपन – अनुक्रिया के संबंध के रूप में व्यक्त होता है।
● वातावरण (पर्यावरणीय) कारकों पर बल।
● व्यवहार के वस्तुनिष्ठ अध्ययन पर बल।
● अधिगम की मुख्य विधि अनुबंधन है।
● अनुभव व प्रशिक्षण पर बल।
● पुनर्बलन का महत्त्व
● मानव की तुलना मशीन से (यांत्रिक)
● व्यवहार को केवल अर्जित मानना।
● वंशानुगत कारकों की अवहेलना।
● प्रमुख व्यवहारवादी – वॉटसन, स्कीनर (मौलिक व्यवहारवादी), थॉर्नडाइक, पावलॉव, वुडवर्थ, C.L. हल, एडविन गुथरी, विलियम मैक्डूगल आदि।
I. उद्दीपन – अनुक्रिया सिद्धांत
● पुस्तक –1. एनीमल इन्टेलिजेन्स (1898 में)
2. द साइकोलॉजी ऑफ लर्निंग
● प्रयोग – भूखी बिल्ली पर
● अन्य नाम – सम्बन्धवाद का सिद्धांत
– योजनावाद का सिद्धांत
– बंध का सिद्धांत (Bond Theory)
– प्रयास व त्रुटि का सिद्धांत
– प्रयत्न व भूल का सिद्धांत
– संयोजनवाद का सिद्धांत
– आवृत्ति का सिद्धांत
– हर्ष एवं दु:ख का सिद्धांत
● उन्होंने 1890 से 1913 ई. तक अनेक जंतुओं पर प्रयोग किया।
● 1898 में पहली बार प्रयास व त्रुटि का विचार दिया।
● सन् 1913 में भूखी बिल्ली पर प्रयोग कर वर्तमान सिद्धांत प्रस्तुत किया।
थॉर्नडाइक :- “सीखना, संबंध स्थापित करना है। संबंध स्थापित करने का कार्य, मनुष्य का मस्तिष्क करता है।”
● उद्दीपक – मछली का टुकड़ा
● थॉर्नडाइक का प्रयोग
● थॉर्नडाइक ने अपने सिद्धांत के प्रयोग में एक भूखी बिल्ली को पिंजरे में बंद करके बाहर मछली का टुकड़ा (उद्दीपक) रख दिया। भूखी बिल्ली पिंजरे के बाहर रखे मछली के टुकड़े को प्राप्त करने हेतु अनेक प्रयास करती है। अनेक त्रुटिपूर्ण प्रयासों के बाद उसका पैर लीवर पर आ जाता है और वह पिंजरा खुल जाता है। ऐसे ही अनेक प्रयासों से वह पिंजरा खोलना सीख जाती है और इस बार वह पहले ही प्रयास में दरवाजा खोल लेती है।
● ठीक इसी प्रकार बालक या व्यक्ति किसी सही दिशा में निरंतर प्रयास करता है तो वह किसी भी व्यवहार/कार्य को सीख जाता है।
● जब व्यक्ति कोई कार्य सीख जाता है, तब उसके सामने एक विशेष स्थिति/उद्दीपक (Stimulus) होता है, जो एक विशेष प्रकार की अनुक्रिया (Response) करने के लिए प्रेरित करता है, इस प्रकार एक विशिष्ट उद्दीपक का एक विशिष्ट अनुक्रिया से संबंध स्थापित हो जाता है जिसे ‘उद्दीपक अनुक्रिया संबंध’ (S – R Bond) द्वारा व्यक्त किया जाता है।
थॉर्नडाइक के सिद्धांत की शिक्षा में उपयोगिता :-
● मंद बुद्धि बालकों के लिए अत्यंत उपयोगी
● बालकों में धैर्य व परिश्रम के गुणों का विकास होता है।
● यह सिद्धांत प्रयास व त्रुटि से सीखने पर बल देता है।
● यह उद्दीपक-अनुक्रिया के संबंध पर बल देता है।
● प्रेरणा को विशेष महत्त्व (शिक्षण में)
● साहचर्य से सीखने पर बल।
● अभ्यास के महत्त्व को स्पष्ट करता है।
● स्वअधिगम द्वारा सीखने पर बल।
● सही अनुक्रिया को पुनर्बलित करना।
दोष :-1. यांत्रिकता पर बल।
2. व्यर्थ के प्रयत्नों पर बल
3. प्रतिभाशाली बच्चों के लिए अनुपयोगी।
4. चिंतन, तर्क का स्थान नहीं
थॉर्नडाइक ने सीखने के निम्नलिखित सोपान बताए हैं :-
i. चालक/अभिप्रेरक (motive)
ii. लक्ष्य (Goal)
iii. बाधा (लक्ष्य प्राप्ति में)
iv. व्यर्थ प्रयत्न
v. संयोगवश सफलता मिलना
vi. सही प्रयत्न का चुनाव
vii. स्थिरता (व्यवहार में स्थायी)
II. अनुकूलित-अनुक्रिया का सिद्धांत :-
प्रयोग – कुत्ते पर (1904) में (लार ग्रंथि – पेरोटेड ग्रंथि)
पावलॉव का मुख्य उद्देश्य :- पाचन क्रिया की शरीर क्रियात्मक प्रक्रियाओं का अध्ययन करना था।
स्वाभाविक उद्दीपक – भोजन
कृत्रिम उद्दीपक – घंटी
अन्य नाम – परम्परागत/प्राचीन अनुबंधन
– शास्त्रीय अनुबंधन (क्लासिकल)
– क्लासिकल थ्योरी
– संबंध प्रतिक्रिया सिद्धांत
– टाइप-S अनुबंधन सिद्धांत
– प्रतिस्थापक सिद्धांत
– प्रतिवादी अनुबंधन
– अनुबंधित अनुक्रिया सिद्धांत
● अनुबंधन के पिता/गोचर की शुरुआत – I.P. पावलॉव
● सीखना एक अनुकूलित अनुक्रिया है।
● यह सिद्धांत साहचर्य के नियम पर आधारित है।
● सरलतम स्तर पर सीखने की व्याख्या करता है।
● सीखने का आधार अनुबंधन को माना गया है।
● 3 चरणों में प्रयोग – 1. अनुबंधन से पूर्व
2. अनुबंधन के समय
3. अनुबंधन के पश्चात्
I-चरण – अनुबंधन से पूर्व
संकेत
UCS – Un Conditioned Stimulus
UCR – UnConditioned Response
CS – Conditioned Stimulus
CR – Conditioned Response
● स्वाभाविक/प्राकृतिक/अनानुबंधित/UCR/UCS
● कृत्रिम/अस्वाभाविक/अनुबंधित/CR/CS
● पहले चरण में पावलॉव ने कुत्ते को बाँधकर उसे दिखाते हुए भोजन प्रस्तुत किया जो स्वाभाविक (भोजन) उद्दीपक है जिसके प्रभाव से कुत्ते के मुँह में लार आना स्वाभाविक प्रतिक्रिया है।
II-चरण – अनुबंधन पैदा करने के समय
Note :- घंटी व भोजन के मध्य 4/5 सेकण्ड का अंतराल।
● अनुकूलन पैदा करने के दौरान पावलॉव ने कुत्ते को स्टैण्ड से बाँधकर सबसे पहले घंटी बजाई (अस्वाभाविक उद्दीपक) और उसके तुरन्त बाद (अधिकतम 5 सेकण्ड का अंतराल) भोजन (स्वाभाविक उद्दीपक) प्रस्तुत किया तो प्रारम्भ में कुत्ते ने घंटी की आवाज से कोई अनुक्रिया नहीं की परन्तु भोजन को देखते ही उसके लार आने लगी (स्वाभाविक अनुक्रिया)।
● पावलॉव ने इस प्रयोग को कई दिनों तक दोहराया और कुछ दिनों बाद महसूस किया कि कुत्ता बिना भोजन को देखे ही घंटी की आवाज सुनकर के लार टपकाने लगा था अर्थात् घंटी की आवाज के साथ अनुकूलित हो रहा था। इसका कारण यह है घंटी बजने से कुत्ते ने सीख लिया था कि उसे भोजन मिलेगा।
● घंटी के प्रति इस प्रतिक्रिया को पावलॉव ने ‘संबंध-सहज क्रिया’ की संज्ञा दी।
● पावलॉव के अनुसार जब भी किसी प्राणी को अस्वाभाविक उद्दीपक के साथ अनुकूलित करना होता है तो पहले अस्वाभाविक उद्दीपक और उसके बाद स्वाभाविक उद्दीपक प्रस्तुत करना चाहिए।
● दोनों प्रकार के उद्दीपकों के बीच अधिकतम समय अंतराल 4-5 (400-500 मिली सेकण्ड) सेकण्ड होता है।
III-चरण – अनुबंधन के पश्चात
● पावलॉव ने अन्तिम चरण में प्रयोग करते हुए कुत्ते के सामने भोजन प्रस्तुत नहीं किया और केवल घंटी की आवाज बजाई फिर भी केवल घंटी की आवाज से ही कुत्ते ने लार टपकना शुरू कर दी अर्थात् अनुकूलन/अनुबंधन के कारण अस्वाभाविक उद्दीपक से ही स्वाभाविक अनुक्रिया होने लगी।
● यदि किसी अस्वाभाविक उद्दीपक/तटस्थ उद्दीपक को किसी स्वाभाविक उद्दीपक के साथ बार-बार उपस्थित किया जाता है तो अस्वाभाविक उद्दीपक के प्रति व्यक्ति वैसी ही अनुक्रिया करना सीख लेता है जैसा कि स्वाभाविक उद्दीपक के प्रति करता है।
● पावलॉव ने अपने प्रयोग में निष्कर्ष दिया कि जब भी किसी प्राणी को किसी अस्वाभाविक उद्दीपक के साथ अनुकूलित कर दिया जाता है तो उसका प्रभाव भी प्राणी पर स्वाभाविक उद्दीपक की तरह आने लगता है तथा इस प्रकार की क्रिया व्यक्ति के कार्यों में सरलता पैदा करती है।
वॉटसन तथा रेनर का प्रयोग
पावलॉव के इस प्रयोग के समर्थन में वॉटसन तथा उसकी पत्नी रेनर ने 11 माह के अल्बर्ट नामक शिशु पर प्रयोग किया और पाया कि मानव भी पशु के समान अनुबंधन द्वारा सीखते हैं तथा व्यक्ति के डर के संवेग को क्लासिकी अनुबंधन द्वारा सीखा जा सकता है।
● इस प्रयोग में अल्बर्ट के सामने एक सफेद चूहा लाया जाता था जिससे वह खेलना प्रारम्भ कर देता है। एक बार खेलते समय अचानक तीव्र आवाज पैदा कर दी गई जिससे वह डर गया। फिर इस प्रक्रिया को अनेक बार दोहराया गया। कुछ प्रयासों के बाद देखा गया कि अल्बर्ट सफेद चूहे को सामने लाते ही (बिना आवाज के) डर से रोने लगता है।
● अल्बर्ट द्वारा सफेद चूहे को देखकर बिना आवाज के ही डर जाना एक अनुबंधन का उदाहरण है।
पावलॉव के सिद्धांत की शिक्षा में उपयोगिता :-
● बालक में भय को दूर करने में
(वॉटसन ने खरगोश व बच्चे पर प्रयोग किया)
● आदतों के निर्माण में, बुरी आदतों को दूर करने में।
● बालक के भाषात्मक विकास में
● दर्शन के विकास में
● समायोजन में सहायक
● शिक्षण में साहचर्य व सहायक सामग्री (श्रव्य-दृश्य) के उपयोग पर बल देता है।
● अनुबंधन के फलस्वरूप भय, प्रेम, घृणा के भाव जाग्रत किए जा सकते हैं।
● समाजीकरण, गणित शिक्षण, स्वभाव निर्माण में सहायक
पावलॉव के सिद्धांत की प्रमुख शब्दावली
1. अनानुबंधित/स्वाभाविक/प्राकृतिक उद्दीपक :- वह उद्दीपक जो बिना किसी प्रशिक्षण के भी हमारे ऊपर प्रभाव छोड़ता है या किसी को स्वाभाविक रूप से प्रभावित करता है, स्वाभाविक उद्दीपक कहलाता है।
जैसे- भोजन का प्रभाव हमारे ऊपर स्वाभाविक रूप से आता है।
2. अनुबंधित/अस्वाभाविक/अनुकूलित/कृत्रिम उद्दीपक :- वह उद्दीपक जो किसी प्रशिक्षण या अनुकूलन के कारण प्राणी पर अपना प्रभाव छोड़ता है तथा स्वाभाविक उद्दीपक की तरह अनुबंधित व्यवहार होता है। ऐसे उद्दीपक अनुबंधित/कृत्रिम उद्दीपक कहलाते हैं।
जैसे- घंटी की आवाज से कुत्ते के मुँह में लार आना।
3. विलोपन :- लगातार CS के उपस्थित करने पर CR का बंद होना। पावलॉव के अनुसार जब एक प्राणी किसी अस्वाभाविक उद्दीपक के साथ अनुकूलित हो जाता है, उसके बाद में यदि उसे स्वाभाविक उद्दीपक देना बंद कर दिया जाए और केवल अस्वाभाविक उद्दीपक ही प्रस्तुत किया जाए तो कुछ समय बाद वह प्राणी अस्वाभाविक उद्दीपक से अनुक्रिया करना बंद कर देता है, इसे ही विलोपन कहते हैं।
जैसे- घंटी की आवाज से अनुकूलित होने के बाद यदि कुत्ते को लगातार बिना भोजन केवल घंटी की आवाज ही प्रस्तुत करते हैं तो वह लार टपकाना छोड़ देगा।
4. स्वत: प्रकटीकरण/स्वत: पुनर्लाभ :- जब किसी प्राणी में किसी भी अनुकूलित व्यवहार का विलोपन हो जाता है तो उसके बाद में यदि उस प्राणी को अचानक से पुन: अस्वाभाविक व स्वाभाविक उद्दीपक दे दिया जाता है तो उसके विलोपित व्यवहार का स्वत: पुन: प्रकटीकरण हो जाता है।
अर्थात् विलोपन के कुछ समय बाद जब पुन: CS दिया जाता है तो कुत्ता फिर से CR करता है।
5. उद्दीपक सामान्यीकरण :- जब अनुकूलित उद्दीपक के लगभग समान प्रकृति (मिलता-जुलता) का कोई अन्य उद्दीपक प्रस्तुत कर दिया जाने पर भी वैसा ही व्यवहार प्रकट करना।
अर्थात् मूल उद्दीपक के प्रति की जाने वाली अनुक्रिया मिलते-जुलते अन्य उद्दीपकों के प्रति भी वही अनुक्रिया करना, उद्दीपक सामान्यीकरण कहलाता है।
6. विभेदन/विभेदीकरण :- विभिन्न प्रयासों से प्राणी मूल अनुबंधित उद्दीपक व अन्य समान उद्दीपकों में अंतर करना सीख लेता है अर्थात् उससे प्रभावित नहीं होता है उसे विभेदीकरण कहते हैं।
7. उच्चकोटी अनुबंधन :- जब बार-बार घण्टी को भोजन से पहले उपस्थित किया जाता है तो इतना प्रबल हो जाता है कि लार की प्रक्रिया जो पहले घंटी की आवाज पर होती थी वह रोशनी जलते ही होने लगती है यदि उच्चकोटि अनुबंधन है।
8. आभासी अनुबंधन :- प्रयोगात्मक परिस्थिति में पूर्व अनुभव के कारण अपने आप लार स्त्राव की प्रतिक्रिया शुरू हो जाती है। यही आभासी अनुबंधन है।
अनुबंधन के प्रकार :-
अधिगम की सरलतम विधि को अनुबंधन कहा जाता है।
1. सहकालिक/समक्षणिक अनुबंधन (Stimultaneous temporal Condition) :- जब अनुबंधित उद्दीपक (घंटी) तथा स्वाभाविक उद्दीपक (भोजन) दोनों को साथ-साथ प्राणी के सामने उपस्थित किया जाता है। फिर एक साथ दोनों को हटा लिया जाता है।
(घंटी + भोजन)
2. विलम्बित अनुबंधन (Delayed Condition) :- अनुबंधित उद्दीपक की उपस्थित स्वाभाविक उद्दीपक से पहले की जाती है और कुछ समय लगातार उसके सामने होता है। उसके बाद स्वाभाविक उद्दीपक दिया जाता है। अनुबंधित अनुक्रिया प्राप्त करने की सर्वाधिक प्रभावशाली विधि है।
3. अवशेष अनुबंधन/संकेत (Trace Condition) :- इसमें अनुबंधित उद्दीपक को पहले प्राणी के सामने लाया जाता है फिर कुछ सेकण्ड बाद उसे हटा दिया जाता है और उसके बाद स्वाभाविक उद्दीपक दिया जाता है।
4. पश्चगामी अनुबंधन (Backward Condition) :- स्वाभाविक उद्दीपक पहले उपस्थित किया जाता है उसके बाद अनुबंधित उद्दीपक दिया जाता है। (UCS, CS से पहले)
Note :- विलम्बित अनुबंधन तथा संकेत अनुबंधन, अग्रगामी अनुबंधन के प्रकार हैं।
III. पुनर्बलन/प्रबलन का सिद्धांत
प्रतिपादक :- सी.एल. हल (क्लार्क लियोनार्ड हल) (अमेरिका) 1942 में (1953 में संशोधन)।
पुस्तक :- प्रिंसिप्लस ऑफ बिहेवियर्स (व्यवहार के सिद्धांत)
अन्य नाम – आवश्यकता पूर्ति का सिद्धांत
– चालक न्यूनता का सिद्धांत
– आवश्यकता अवकलन का सिद्धांत
– सबलीकरण का सिद्धांत
– गणितीय/निगमन सिद्धांत
– प्रबलन/प्रोत्साहन का सिद्धांत
– क्रमबद्ध व्यवहार/प्रणालीबद्ध व्यवहार सिद्धांत
– यथार्थ/परिष्कार/प्रेरणा प्रबलन ह्रास सिद्धांत
– आत्म संशोधन सिद्धांत
● यह सिद्धांत थॉर्नडाइक व पावलॉव के सिद्धांतों पर आधारित है।
स्कीनर :- “यह अधिगम का सर्वश्रेष्ठ व आदर्श सिद्धांत है।”
लेस्टर एंडरसन :- “यह सिद्धांत भी थॉर्नडाइक के समान-प्रकृति का है परन्तु सी.एल. हल ने इसे नपे-तुले शब्दों में प्रस्तुत किया है।”
प्रयोग :- चूहे व बिल्ली पर
सिद्धांत का आधार वाक्य/अर्थ :- “सीखना आवश्यकता की पूर्ति के द्वारा होता है।” कोई भी कार्य यदि पशु/मानव की किसी आवश्यकता को पूर्ण करता है, तो वह उस कार्य व्यवहार को सीख लेता है। आवश्यकता की पूर्ति होने पर प्राणी में चालक की शक्ति कम हो जाती है और पूर्ति ना होने पर प्राणी क्रियाशील बन जाता है।
● आवश्यकता की पूर्ति किस प्रकार सीखने का आधार है, इसको स्टोन्स ने एक उदाहरण देकर स्पष्ट किया है। एक भूखा पशु पिंजरे में बंद है। पिंजरे के बाहर भोजन रखा है। पिंजरा लीवर को दबाने से खुलता है। अपनी भूख को संतुष्ट करने के लिए प्राणी क्रियाशील होता है और भोजन उसकी क्रियाशीलता को बलवती बनाता है अर्थात् प्रबलन (Rainforcement) का कार्य करता है। अत: वह पिंजरे से बाहर निकलने के लिए सभी प्रकार का प्रयास करता है। अपने प्रयासों के फलस्वरूप वह लीवर को दबाकर बाहर निकलना सीख जाता है। इस प्रकार, भोजन की आवश्यकता को संतुष्ट करने की प्रक्रिया द्वारा वह पिंजरे को खोलना सीख जाता है। सीखने का यही आधार है।
C.L. हल :- “सीखना, आवश्यकता की पूर्ति की प्रक्रिया द्वारा होता है।”
हल के सिद्धांत के गुण व विशेषता :-
● आदर्श व सर्वश्रेष्ठ सिद्धांत :- स्कीनर :- “अब तक के सीखने के जितने भी सिद्धांत हैं, उनमें यह सर्वश्रेष्ठ है।”
● प्रेरणा पर बल।
● बालकों की क्रियाओं व आवश्यकताओं का संबंध
● C.L. हल ने स्वयं एक सूत्र प्रतिपादित किया- B = D × H
व्यवहार (B) = चालक (Drive) × आदत (Habit)
● हल का नियम गणित के 17 नियम व 133 प्रमेय पर आधारित है।
● हल ने मध्यवर्ती चर व पूर्ववर्ती चर का प्रतिपादन किया।
● यह परिसीमित प्रयोगात्मक आधार पर आधारित है।
● हल ने आवश्यकता पर बल दिया है तथा इसे व्यवहार के लिए महत्त्वपूर्ण माना है।
● आवश्यकता की पूर्ति की उपादेयता को पुनर्बलन के रूप में परिभाषित किया है।
● चालक के महत्त्व को स्पष्ट करना।
हल के सिद्धांत की शिक्षा में उपयोगिता :-
● पुनर्बलन/प्रोत्साहन के महत्त्व को स्पष्ट।
● पाठ्यक्रम की विषयवस्तु निर्माण में सहायक।
● सीखने में आवश्यकता तथा प्रेरणा पर बल।
● कार्य व्यवहार को व्यवस्थित करने पर बल।
● उच्च स्तर पर उपयोगी।
● व्यक्तिगत शिक्षा पर बल।
IV. क्रिया-प्रसूत अनुबंधन सिद्धांत :-
प्रतिपादक :- B.F. स्कीनर (बुर्हस फ्रेडरिक स्कीनर)
हावर्ड वि.वि. (अमेरिका)
1938 ई. में
प्रयोग :- चूहे व कबूतर पर
पुस्तक :- 1. द बिहेवियर ऑफ ऑर्गेनिज्म
2. साइंस इन ह्यूमन बिहेवियर
3. Enjoy old age
4. Schedule of Reinforcement
अन्य नाम – सक्रीय अनुबंधन सिद्धांत
– नैमित्तिक अनुबंधन सिद्धांत
– साधनात्मक अनुबंधन सिद्धांत
– R –S अनुबंधन सिद्धांत (R- Type)
– ऑपरेन्ट थ्योरी/रिक्त प्राणी उपागम
● यह सिद्धांत प्रभाव के नियम पर आधारित है।
● प्राणी क्रिया या व्यवहार को उसके परिणाम के आधार पर सीखता है।
1. चूहे पर (1938)
2. कबूतर पर, 1943 में
● स्कीनर ने 1938 में चूहे पर तथा 1943 में कबूतर पर प्रयोग किया और प्रयोग करते हुए निष्कर्ष प्राप्त किया कि यदि किसी प्राणी के कार्य करने पर उसे उद्दीपक/पुनर्बलन/प्रोत्साहन मिलता है तो प्राणी उस कार्य को सीख जाता है तथा प्राणी को बिना उद्दीपक दिखाए भी किसी ऐसी अनुक्रिया से जोड़ा जा सकता है लेकिन उसके लिए आवश्यक है कि प्राणी को क्रिया के तुरन्त बाद प्रबलन/प्रोत्साहन मिले तो प्राणी उस क्रिया को सफलतापूर्वक सीख लेता है।
Note :- 1. पुनर्बलन इस सिद्धांत की केन्द्रीय अवधारणा है।
2. पुनर्बलन अनुसूची शब्द का प्रयोग स्कीनर ने किया।
● स्कीनर ने अपने प्रयोग के आधार पर दो प्रकार की अनुक्रियाओं का उल्लेख किया-
i. प्रकाशित अनुक्रिया/प्रतिवादी अनुक्रिया :- जब प्राणी के सामने कोई स्पष्ट उद्दीपक उपस्थित होता है और वह उस उद्दीपक से प्रभावित होकर किसी प्रकार का व्यवहार/अनुक्रिया करता है तो वह प्रकाशित अनुक्रिया/S–R थ्योरी होती है।
ii. क्रिया प्रसूत अनुक्रिया :- जब प्राणी के सामने कोई भी स्पष्ट उद्दीपक उपस्थित नहीं होता है परन्तु अनुक्रिया करने के बाद पुनर्बलन के रूप में उद्दीपक प्रकट हो जाता है तो उसे क्रिया-प्रसूत अनुक्रिया/उत्सर्जित अनुक्रिया/R-S थ्योरी कहते हैं।
Note :- स्कीनर ने अपने प्रयोग के माध्यम से उत्सर्जित अनुक्रिया को ही सिद्ध किया था, इसलिए कहा जाता है कि स्कीनर ने पहले से प्रचलित S-R थ्योरी (उद्दीपन अनुक्रिया) को R-S थ्योरी (अनुक्रिया-उद्दीपक) में बदल दिया था।
● स्कीनर के अनुसार यदि किसी क्रिया के बाद कोई बल प्रदान करने वाला उद्दीपक मिलता है तो उस क्रिया की शक्ति में वृद्धि हो जाती है।
स्कीनर के सिद्धांत के महत्त्वपूर्ण तथ्य/शब्दावली :-
1. शृंखला (Chaining) :- जटिल कार्यों को छोटे-छोटे खण्डों में तार्किक क्रम में जोड़ना। जैसे- लीवर को देखकर चूहे द्वारा लीवर के पास जाना और उसे दबाना, मैग्जीन की आवाज सुनकर लीवर के पास आना और उसे दबाना आदि शृंखलाबद्धता के उदाहरण हैं।
2. वंचन (Deprivation) :- वांछित अनुक्रिया होने तक पुनर्बलन को रोके रखना अर्थात् पशु को निश्चित समय तक भूखा रखा जाता था।
3. शेपिंग/आकृतिकरण/ढलना/क्रमिक सन्निकट :- बालक के व्यवहार में वांछित परिवर्तन लाने के लिए पुनर्बलन का न्यायसंगत प्रयोग अर्थात् वांछित अनुक्रिया को पुनर्बलित करना। इसमें व्यक्ति का व्यवहार धीरे-धीरे किसी खास लक्ष्य की ओर पुनर्बलन के आधार पर ले जाया जाता है।
4. अनुक्रिया सामान्यीकरण :- स्कीनर ने अनुक्रिया सामान्यीकरण पर बल दिया है।
Note :- स्कीनर ने पावलॉव के सिद्धांत के समान विलोपन एवं स्वत: पुनर्लाभ का प्रयोग किया है।
पुनर्बलन का महत्त्व :- स्कीनर ने पुनर्बलन के दो प्रकार बताए हैं:-
1. धनात्मक पुनर्बलन (Positive Reinforcement)
2. ऋणात्मक (Negative Reinforcement)
1. धनात्मक/सकारात्मक पुनर्बलन :- जिससे प्राणी की अनुक्रिया की संभावना बढ़ जाती है, धनात्मक पुनर्बलन कहा जाता है।
(i) प्राथमिक पुनर्बलन :- भोजन, पानी आदि।
(ii) द्वितीयक पुनर्बलन :- पद, सम्मान, पुरस्कार, प्रशंसा
2. ऋणात्मक/नकारात्मक पुनर्बलन :- ऋणात्मक पुनर्बलन से तात्पर्य वैसे उद्दीपक से होता है जिसमें प्राणी उसकी उपस्थिति से बचना चाहता है।
जैसे-
1. अत्यधिक सर्दी से बचने के लिए ऊनी वस्त्र पहनना।
2. तीव्र धूप से बचने के लिए चश्मा पहनना या छतरी लगाना।
3. तीव्र रोशनी
4. बिजली का झटका
स्कीनर की पुनर्बलन अनुसूची – 2 प्रकार
1. सतत पुनर्बलन (Continuous Reinforcement) :- यह शत-प्रतिशत पुनर्बलन आयोजन है जिसमें सीखने वाले की प्रत्येक सही अनुक्रिया या व्यवहार को सतत रूप से पुनर्बलित (पुरस्कृत) किया जाता है।
2. आंशिक पुनर्बलन (Partial Reinforcement) :- सीखने वाले की कुछ सही अनुक्रियाओं को पुनर्बलित किया जाता है। इसके 4 प्रकार हैं-
i. निश्चित अन्तराल पुनर्बलन :- इसमें सीखने वाले को एक ‘निश्चित समय’ के पश्चात् पुनर्बलन दिया जाता है। इसमें क्रियाप्रसूत अनुक्रिया की दर सबसे कम व धीमी होती है।
जैसे- किसी नौकर को एक सप्ताह बाद वेतन देना, किसी प्रयोग में चूहे को 3 मिनट बाद भोजन देना आदि।
ii. निश्चित अनुपात :- सीखने वाले को सही अनुक्रियाओं की ‘निश्चित संख्या’ पर पुनर्बलन दिया जाता है।
जैसे- प्रत्येक 3 प्रश्नों के ठीक उत्तर देने पर पुरस्कार देना।
iii. परिवर्तनशील अन्तराल पुनर्बलन :- सीखने वाले को पुनर्बलन देने का अन्तराल अनिश्चित होना। किसी भी समय पुनर्बलन दे दिया जाता है।
iv. परिवर्तनशील अनुपात पुनर्बलन :- सीखने वाले को पुनर्बलन देने का अनुपात निश्चित नहीं होता है। अनुक्रिया की किसी भी संख्या पर पुनर्बलन दे दिया जाता है। इसमें क्रियाप्रसूत अनुक्रिया की दर सर्वाधिक होती है।
Note :- आंशिक पुनर्बलन देने से सतत पुनर्बलन की अपेक्षा क्रियाप्रसूत अनुक्रिया तेजी से होती है और विलोप भी जल्दी नहीं होता है।
स्कीनर के सिद्धांत की शिक्षा में उपयोगिता :-
● कम्प्यूटर व टंकण की शिक्षा इसी पर आधारित है।
● स्कीनर ने वर्ष 1954 में इसी सिद्धांत के आधार पर अभिक्रमित अनुदेशन (कार्यक्रमित सीखना) की शुरुआत की।
● शब्द-भण्डार को बढ़ाने में सहायक।
● निदानात्मक, उपचारात्मक शिक्षण में सहायक।
● परिणामों की जानकारी प्रदान करना।
● सीखने का स्वरूप प्रदान करना।
● व्यवहार परिमार्जन व व्यवहार चिकित्सा में उपयोगी।
शास्त्रीय अनुबंधन व सक्रिय अनुबंधन में अंतर
शास्त्रीय अनुबंधन (पावलॉव) | सक्रिय अनुबंधन (स्कीनर) |
1. उद्दीपक प्रधान 2. उद्दीपक सामान्यीकरण 3. वातावरण प्राणी पर कार्य करता है। 4. अनुक्रिया बाह्य होती है। (अनैच्छिक) 5. सीखने वाला स्वतंत्र नहीं 6. अनुक्रिया के लिए किसी ज्ञात उद्दीपक का होना आवश्यक 7. पुनर्बलन/प्रोत्साहन का प्रयोग अनुक्रिया या व्यवहार से पहले होता है। 8. प्रयोज्य निष्क्रिय होता है। | 1. अनुक्रिया प्रधान 2. अनुक्रिया सामान्यीकरण 3. प्राणी वातावरण पर कार्य करता है। 4. अनुक्रिया स्वाभाविक व ऐच्छिक होती है। 5. सीखने वाला स्वतंत्र होता है। 6. इसमें अनुक्रिया के लिए किसी उद्दीपक की आवश्यकता नहीं। 7. इसमें अनुबंधन की शुरुआत व्यवहार तथा अनुक्रिया द्वारा होती है बाद में पुनर्बलन दिया जाता है। 8. प्रयोज्य सक्रिय होता है। |
V. सामीप्यता/स्थानापन्न का सिद्धांत/प्रतिस्थानापन्न :-
प्रतिपादक :- एडविन रे गुथरी (व्यवहारवादी) (अमेरिका)
पुस्तकें :- द साइकोलॉजी ऑफ लर्निंग
– साइकोलॉजी फर्स्ट कोर्स इन ह्यूमन बिहेवियर
प्रयोग :- खरगोश पर, पीटर (3 वर्ष) नामक बालक पर
● गुथरी अपुनर्बलनवादी व्यवहारवादी है (पुनर्बलन को महत्त्व नहीं)।
● गुथरी के अनुसार सीखने के लिए उद्दीपक एवं अनुक्रिया के मध्य सामीप्यता का होना आवश्यक है।
● सीखना एक ही प्रयास का परिणाम है (एकल प्रयास सिद्धांत)
● सीखना अनुक्रियाओं को उत्तेजकों की तरफ प्रतिस्थापित करना है।
आधार वाक्य :- “एक उत्तेजक प्रतिमान जो एक प्रतिक्रिया के समय क्रियाशील है, यदि यह दुबारा होगा तो उस प्रतिक्रिया को उत्पादित करने की प्रवृत्ति रखेगा अर्थात् सीखना ‘सामीप्य’ के आधार पर होता है।”
● गुथरी ने बुरी आदतों को दूर करने की 3 विधियाँ दी –
1. सीमा/देहली विधि
2. थकान विधि
3. परस्पर विरोधी उद्दीपक (असंगत उद्दीपक)
B. अधिगम के ज्ञानात्मक क्षेत्र के सिद्धांत :-
I. अन्त:दृष्टि/सूझ का सिद्धांत (गेस्टाल्टवादी) (Insight Theory)
● अंत:दृष्टि/सूझ का सिद्धांत गेस्टाल्टवादी मनोवैज्ञानिकों की देन है।
● प्रमुख गेस्टाल्टवादी- मैक्स वर्दीमर, कोहलर, कोफ्का, कुर्त लेविन
● गेस्टाल्टवाद के जनक/प्रतिपादक- मैक्स वर्दीमर
● जर्मन भाषा के गेस्टाल्ट शब्द का अर्थ – समग्रता/पूर्णाकार/ समाकृति है।
● प्रमुख सूत्र – पूर्ण से अंश की ओर
Note :- वर्दीमर की विचारधारा को विकसित करने का श्रेय कोहलर को जाता है।
प्रयोग :- कोहलर ने, सुल्तान नामक चिम्पाजी पर (वनमानुष) (केनारी द्वीप पर) प्रयोग किया। (1913-1918 के बीच)
● कोहलर ने मैक्स वर्दीमर के विचारों को आगे बढ़ाते हुए 1917 में सुल्तान नामक वनमानुष पर विभिन्न परिस्थितियों में प्रयोग किया।
● इस सिद्धान्त में चिम्पाजी पर 4 समस्यात्मक परिस्थितियों में प्रयोग किए गए।
1.
2.
3.
4.
पूर्वज्ञान → सूझ/अन्त:दृष्टि → अहाअनुभव → व्यवहार परिवर्तन (अधिगम)
● गेस्टाल्टवादियों के अनुसार कोई भी व्यक्ति पूर्वज्ञान के आधार पर पैदा होने वाली सूझ/अन्त:दृष्टि के कारण व्यवहार में परिवर्तन लाता है एवं परिवर्तन तभी संभव है जब समस्या/परिस्थिति समग्र रूप में होती है इसलिए इसे सूझ/अन्त:दृष्टि समग्रता/पूर्णाकार का सिद्धांत कहते हैं।
● कोहलर ने सुल्तान पर भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में प्रयोग करने के बाद स्पष्ट किया कि सुल्तान प्रत्येक परिस्थिति में अपने पुराने अनुभवों का उपयोग कर रहा था। ठीक उसी प्रकार से प्रत्येक प्राणी अपने पुराने अनुभवों का उपयोग करते हुए नवीन परिस्थितियों में अधिगम को प्राप्त करता है।
● सीखने की प्रक्रिया सूझ पर आधारित होती है जो एक प्रकार का ‘अहा अनुभव’ है।
● सूझ व्यक्ति में अचानक उस समय होती है जब वह लक्ष्य तथा लक्ष्य तक पहुँचने के उपायों के बीच प्रत्यक्षणात्मक संबंधों को ठीक ढंग से समझ लेता है।
● सूझ अचानक होती है। इसलिए सीखना भी अचानक होता है।
● सूझ उत्पन्न होने के लिए यह आवश्यक है कि प्राणी के सामने जो समस्यात्मक परिस्थिति है वह उसका ठीक ढंग से निरीक्षण करे।
● G.W. आलपोर्ट ने इसी आधार पर नर्सरी स्कूल के 44 बालकों पर प्रयोग किया, जो 18 से 48 माह के थे। प्रयोग में उन्होंने देखा कि ऊँचाई पर रखे खिलौनों को कम आयु के बालकों ने देरी से तथा अधिक आयु के बालकों ने शीघ्रता से प्राप्त कर लिया।
अत: जन्तुओं की अपेक्षा मानव में सूझ अधिक पाई जाती है और यह आयु के साथ-साथ बढ़ती है।
गुड- “सूझ वास्तविक स्थिति का आकस्मिक, तात्कालिक तथा स्थायी ज्ञान है।”
वुडवर्थ- “अन्तर्दृष्टि का अर्थ अच्छा निरीक्षण, स्थिति को पूर्ण इकाई के रूप में समझना है।”
गेट्स व अन्य- “यह सिद्धांत स्वयं खोज करके सीखने पर बल देता है।”
सूझ/अन्त:दृष्टि के सिद्धांत की शिक्षा में उपयोगिता-
● पाठ्यक्रम को संगठित रूप से प्रस्तुत करना।
● शिक्षण का पूर्ण से अंश सूत्र इसी पर आधारित है।
● तर्क व चिन्तन के विकास में उपयोगी।
● परिस्थिति का समग्र रूप से प्रत्यक्षीकरण किया जाना चाहिए।
● सीखने में लक्ष्य की स्पष्टता और अभिप्रेरणा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
● पाठ्यक्रम निर्माण में उपयोगी।
● समझकर सीखने पर बल।
● उच्च मानसिक योग्यताओं के विकास में सहायक।
● प्रत्येक परिस्थिति में प्राप्त अनुभवों का सदुपयोग करना।
● समस्या को एक सम्पूर्ण इकाई के रूप में देखा जाता है।
● सीखना क्षेत्र का प्रत्यक्ष ज्ञानात्मक संगठन है।
● प्रत्यक्षीकरण (सम्पूर्ण अवलोकन) पर बल।
● समस्या का आकस्मिक/अचानक समाधान
● सूझ को अहाअनुभव भी कहा जाता है। इसमें अन्वेषणात्मक व्यवहार व प्रत्यक्षीकरण प्रमुख हैं।
अंत:दृष्टि को प्रभावित करने वाले कारक :-
1. बुद्धि
2. कल्पना
3. प्रत्यक्षीकरण
4. पूर्व अनुभव
5. सम्पूर्ण अनुभव
6. क्षमता/योग्यता
II. अव्यक्त अधिगम सिद्धांत :-
प्रतिपादक :- एडवर्ड C. टॉलमैन (अमेरिका), 1932 में
पुस्तक :- Purposive behaviour in animals and men
प्रयोग :- चूहों पर (भूल-भुलैया/टी-मेज)
अन्य नाम :- प्रतीक/लुप्त अधिगम
– चिह्न अधिगम सिद्धांत
– संकेत अधिगम
– उद्देश्यपूर्ण अधिगम
– चिह्न पूर्णाकार सिद्धांत
– प्रत्याशा अधिगम /मोलार सिद्धांत
– संज्ञानात्मक मानचित्र सिद्धांत
– उद्दीपक – उद्दीपक सिद्धांत (S-S Theory)
● टॉलमेन को उत्तर-व्यवहारवाद का जनक कहा जाता है।
● टॉलमेन का सिद्धांत व्यवहारवाद व गेस्टाल्टवाद का मिश्रण है।
● टॉलमेन का सिद्धांत विशुद्ध व्यवहारवाद पर आधारित है।
● अधिगम एक उद्देश्यपूर्ण प्रक्रिया है। (प्रयोजन मूलक)
● सीखने वाला उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए प्रतीकों व आशाओं का निर्माण करता है।
● हम अर्थ सीखते हैं गति नहीं।
● व्यवहार में संज्ञानात्मक मानचित्रों का निर्माण होता है।
● इसमें नया व्यवहार सीख लिया जाता है।
● टॉलमैन के अनुसार पुनर्बलन एक निष्पादन चर है न कि सीखने का चर।
● अव्यक्त सीखना से तात्पर्य वैसे सीखने से होता है जो प्राणी के व्यवहार द्वारा तब तक अभिव्यक्त नहीं होता है जब तक कि उसकी अभिव्यक्ति के लिए अनुकूल परिस्थिति न बन जाए।
Note :- टॉलमैन पहले ऐसे मनोवैज्ञानिक थे जिन्होंने सीखने की व्याख्या करने में मध्यवर्ती चरों का सफलतापूर्वक प्रयोग किया।
टॉलमैन के अनुसार अधिगम के प्रकार :– 1949 में (6 प्रकार)
1. कैथेक्स :- यह एक मानसिक शक्ति है जो चालक एवं लक्ष्य के मध्य धनात्मक व ऋणात्मक संबंधों का निर्माण करती है।
2. समतुल्य विश्वास :- लक्ष्यों एव उपलक्ष्यों में उपस्थित संबंधों का ज्ञान। अर्थात् किसी उपलक्ष्य का वही प्रभाव होता है जो स्वयं लक्ष्य का होता है तो उपलक्ष्य के इस गुण को समतुल्य विश्वास कहते हैं।
3. क्षेत्र प्रत्याशा :- वे संकेत एवं चिह्न स्वरूप प्रत्याशाएँ जिनका प्रयोग व्यक्ति छोटे-छोटे रास्तों हेतु करता है।
4. क्षेत्र ज्ञान विधियाँ :- प्राणी द्वारा अधिगम में जटिल मानसिक क्रियाएँ (प्रत्यक्षात्मक, स्मृत्यात्मक, तर्क, निष्कर्ष) करना।
5. चालक विभेदात्मकता :- प्राणी द्वारा विभिन्न चालकों में भेद करना।
6. गामक प्रतिमान :- इसका संबंध प्रस्तुत स्थिति में किसी प्रकार के गामक प्रतिमान की प्राप्ति के साथ है, जिसमें सरल अनुबंधन की प्राप्ति होती है।
टॉलमैन के सीखने के नियम – 3
1. क्षमता नियम
2. उद्दीपक नियम
3. प्रस्तुतीकरण नियम
III. सामाजिक-अधिगम का सिद्धांत :-
प्रतिपादक :- अल्बर्ट बाण्डूरा (कनाडा),
अल्बर्ट बाण्डूरा निधन :- 26 जुलाई, 2021
सहयोगी – वाल्टर
अन्य नाम :- प्रेक्षणीय सिद्धांत
– मॉडलिंग थ्योरी
– प्रतिरूपण सिद्धांत
– सामाजिक-संज्ञानात्मक सिद्धांत
– अनुकरण सिद्धांत/प्रत्यक्ष अधिगम सिद्धांत
प्रयोग :- छोटे बालक पर
– बोबो डॉल व जोकर पर
पुस्तक :- Social Learning
● एक ऐसा अधिगम व्यवहार जिसमें व्यक्ति किसी दूसरों के व्यवहार का प्रेक्षण (देखना) करता है एवं अनुकरण करता है या कुछ विशेष मॉडल के व्यवहार एवं उसके परिणाम को देखकर उसी के अनुरूप व्यवहार करना सीखता है तो प्रेक्षणात्मक अधिगम कहलाता है।
● अल्बर्ट बाण्डूरा ने विभिन्न प्रकार के व्यवहारों के संदर्भ में विचार देते हुए कहा कि सामाजिक वातावरण में कोई भी व्यक्ति या बालक दूसरों के व्यवहारों का प्रेक्षण करते हुए उन व्यवहारों को अपने व्यवहार में अपनाता है, इसको मॉडलिंग कहते हैं।
● बाण्डूरा ने जोकर व गुड़िया (बोबो डॉल) पर प्रयोग कर कहा कि जिस प्रकार से जोकर सामाजिक वातावरण से सीखकर रंगमंच पर कार्य करता है उसी प्रकार से एक छोटा बालक उसके साथ घरवालों के द्वारा किए जाने वाले व्यवहार को गुड़िया (खिलौने) पर अपनाता है।
अत: व्यक्ति दूसरे के व्यवहार को देखकर सीखता है।
लिण्डग्रेन :- “सामाजिक अधिगम की प्रक्रिया ‘सम्पर्क’ के कारण पैदा होती है।”
सामाजिक अधिगम के तत्त्व/सोपान :-
1. अवधान/ध्यान/अवलोकन (Attention) :- दूसरों के व्यवहार को देखना
2. धारण करना (Retention) :- व्यवहार को धारण करना (स्मृति में रखना)।
3. पुन: उत्पादक क्रियाएँ (Reproduction Processes) :- दूसरों के सामने व्यवहार प्रस्तुत करना।
4. अभिप्रेरणा/पुनर्बलन (Motivation) :- प्राणी को सकारात्मक पुनर्बलन मिलने पर व्यवहार को सीख लेता है।
बाण्डूरा के सिद्धांत की शिक्षा में उपयोगिता :-
● सामाजिक विकास में सहायक।
● अवांछित व्यवहार सुधार में उपयोगी।
● व्यक्तित्व निर्माण में उपयोगी।
● अनुकरण पर बल।
● प्रेक्षण पर बल।
● मान्य व्यवहारों को ग्रहण करने की सीख देता है।
● अभिभावक, शिक्षक को भी मार्गदर्शन देता है कि वे अपने बालकों के व्यवहार को लेकर सदैव सावधान रहें और अच्छे आदर्श प्रस्तुत करें।
अन्योन्य निर्धार्यता (Reciprocal Determinism)
इस सम्प्रत्यय के माध्यम से बाण्डूरा यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि मानव व्यवहार संज्ञानात्मक, व्यावहारात्मक तथा पर्यावरणीय निर्धारकों के बीच सतत् अन्योन्य अन्त:क्रिया (Reciprocal Interaction) का प्रतिफल (Product) होता है। इसे अल्बर्ट बाण्डूरा ने अन्योन्य निर्धार्यता की संज्ञा दी।
● इस सम्प्रत्यय के अनुसार मानव क्रिया में तीन कारकों का परस्पर प्रभाव हमेशा पड़ता है-
(i) बाह्य वातावरण (Environmental – E)
(ii) संज्ञानात्मक एवं आन्तरिक घटनाएँ (Cognitive – C)
(iii) व्यवहारात्मक (Behaviour – B)
● तुल्य बल व्यवहार सिद्धांत का प्रतिपादन मिलर व डोलार्ड द्वारा किया गया, जो अनुकरण का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है।
IV. तलरूप/क्षेत्रीय अधिगम सिद्धांत :-
प्रतिपादक :- कुर्त लेविन, 1917 में
अन्य नाम :- टोपोलीजीकल/वेक्टर साइकोलॉजी
– प्राकृतिक दशा सिद्धांत
– थ्री फैज थ्योरी
– सदिश मनोविज्ञान सिद्धांत
● कुर्त लेविन मूलत: जर्मनी के विद्वान थे लेकिन अमेरिका में रहते हुए अपने कार्यों के आधार पर सिद्धांत दिया।
● कुर्त लेविन का प्रयोग :-
● जिस प्रकार से बालिका के सामने बाधाएँ आने पर भी वह उनका मुकाबला करती हुई मंजिल तक पहुँचती है, ठीक उसी प्रकार से सामाजिक वातावरण के धरातल पर व्यक्ति के सामने कई कठिनाइयाँ आती हैं लेकिन लक्ष्य प्राप्ति तक हार नहीं माननी चाहिए और उनका मुकाबला करते हुए आगे बढ़ते रहना चाहिए, इसे ही जीवन-विस्तार कहते हैं।
● आधार वाक्य :- व्यवहार व्यक्ति और वातावरण दोनों का प्रतिफल है।
B = F (P, E)
B = व्यवहार (Behaviour)
F = परिणाम (Function)
P = व्यक्ति (Person)
E = वातावरण (Environment)
● कुर्त लेविन ने जीवन क्षेत्र तथा आकर्षण-विकर्षण के आधार पर मानव व्यवहार की व्याख्या की।
कुर्त लेविन के सिद्धांत की प्रमुख अवधारणाएँ :-
1. जीवन दायरा (Life Space) :- किसी व्यक्ति के जीवन दायरे को मनोवैज्ञानिक क्षेत्र का नाम दिया जाता है। यह व्यक्ति (P) तथा उसके मनोवैज्ञानिक वातावरण (E) की अन्त:क्रिया का प्रतिफल होता है।
2. वेक्टर्स व कर्षण :- एक मनोवैज्ञानिक बल जो निश्चित दिशा में कार्य करने के लिए प्रयोग करता है। सकारात्मक वेक्टर्स व कर्षण शक्ति जो जीवन लक्ष्य की ओर आकर्षित करती है और नकारात्मक आकर्षण-विकर्षण शक्ति जीवन लक्ष्य से दूर भगाती है।
3. टोपोलॉजी/तलरूप/संस्थिति विज्ञान :- यह भौतिक/गणित से ग्रहण किया गया विचार है। इसका प्रयोग व्यक्ति के जीवन दायरे में प्रत्यक्षीकरण और अन्त: क्रियाओं के फलस्वरूप आने वाले विभिन्न परिवर्तनों को प्रदर्शित करने हेतु किया जाता है।
Note :- लेविन ने अधिगम को सापेक्षित प्रक्रिया कहा है तथा समूह गतिकी, संगठन, स्मृति की गतिशीलता पर बल दिया।
लेविन के सिद्धांत की शिक्षा में उपयोगिता :-
● अभिप्रेरणा पर बल
● समस्या-समाधान की योग्यता का विकास
● लक्ष्य का स्पष्ट होना, जीवन दायरे का ज्ञान महत्त्वपूर्ण
● बाधाओं से मुकाबला करते हुए निरन्तर आगे बढ़ने की सीख
● अधिगमकर्ता को मनोवैज्ञानिक व्यक्ति मानना।
C. अधिगम के निर्मितवादी/रचनावाद अधिगम सिद्धांत
अर्थ :- बालक पूर्वज्ञान के आधार पर अनुभव द्वारा नवीन ज्ञान का निर्माण करता है अर्थात् अधिगम एक सक्रिय प्रविधि है।
यह बालक कैसे सीखता है, कैसे समझता है, अवधारणा बनाता है आदि की व्याख्या करता है। यह वैज्ञानिक अध्ययन पर आधारित है।
इसके तीन मुख्य प्रकार हैं:-
1. मौलिक रचनावाद – वान ग्लेसरफील्ड ने
2. संज्ञानवादी रचनावाद – जीन पियाजे ने
3. सामाजिक रचनावाद – लेव वाइगोत्सकी
1. मौलिक रचनावाद – जब एक बालक या व्यक्ति में पैदा होने वाले ज्ञान की संरचना मौलिकतापूर्ण हो यानी अपने आप में पहली व विशिष्ट हो तो यह मौलिक रचनात्मकता होती है। इसमें ज्ञान व्यक्तिगत रूप से निर्मित, वास्तविकता व अनुभव पर आधारित होता है।
2. संज्ञानवादी रचनावाद :- ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से व अपने साथियों के सहयोग से पैदा होने वाला कोई भी संज्ञानात्मक ज्ञान का उत्पादन।
3. सामाजिक रचनावाद :- जब बालक सामाजिक व सांस्कृतिक वातावरण से परस्पर अंत:क्रिया करके ज्ञान का निर्माण करता है।
निर्मितवाद में अधिगमकर्ता :-
● अधिगमकर्ता समावेशक होता है।
● स्वयं अर्थों का निर्माण करता है।
● विचारों को आकार देते हुए अर्थ निर्माण करता है।
● बाल केन्द्रित उपागम है।
● ज्ञान सक्रिय व सामाजिक प्रक्रिया है।
● बालक पूर्व अनुभव के आधार पर तुलना करके नवीन ज्ञान की संरचना करता है।
● बालकों को छोटे-छोटे समूह में विभाजित करके समस्या प्रदान कर दी जाती है जिसका समाधान वे स्वयं चर्चा करके निकालते हैं।
● रचनावाद का उद्देश्य ऐसे वातावरण का निर्माण करना है जहाँ बालक स्वयं ज्ञान का निर्माण कर सके।
● इसमें समस्या-समाधान, खोज उपागम, पूछताछ व प्रोजेक्ट शिक्षण विधियों पर बल देता है।
निर्मितवाद में शिक्षक :-
● शिक्षक की भूमिका मार्गदर्शक/अनुदेशक/सहायककर्ता/उत्प्रेरक होती है।
● शिक्षक की सीमित भूमिका पर बल।
Note :- निर्मितवाद की उत्पत्ति संज्ञानवाद से हुई है तथा यह संज्ञानवाद का उच्चतम स्तर है।
● सीखना वास्तविक जगत में प्रामाणिक होता है।
● सीखने में सामाजिक वार्तालाप व चिंतन शामिल होता है।
● शिक्षार्थी व्यक्तिगत रूप से चर्चा करके, स्वयं परीक्षण करके, स्वयं खोज करके, सहभागिता व सहयोग से स्वतंत्र रूप से सीखता है।
I. संज्ञानात्मक सांस्कृतिक सिद्धांत
(सामाजिक-सांस्कृतिक विकास का सिद्धांत)
प्रतिपादक :- लेव वाइगोत्सकी (रूस)
पुस्तक :- Thought and Language
– पीडोलॉजी ऑफ अडोलेसेन्ट
– प्ले एण्ड इट्स रोल इन मेंटल डेवलपमेंट ऑफ द चाइल्ड
● वाइगोत्सकी ने अपने सिद्धांत में चिंतन/संज्ञानात्मक विकास में सामाजिक कारकों व भाषा को महत्त्वपूर्ण माना है।
● संज्ञानात्मक विकास में 3 कारकों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है-
1. सामाजिक अंत:क्रिया
2. संस्कृति
3. भाषा
● बालक ज्ञान का निर्माण सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ में करता है।
लेव वाइगोत्सकी :- “मानव मन का विकास सामाजिक व सांस्कृतिक प्रक्रिया के माध्यम से होता है। मन एक संयुक्त सांस्कृतिक निर्मित है जो वयस्क व बच्चों की अंत:क्रिया के परिणामस्वरूप होता है।”
● वाइगोत्सकी ने खेल के विकास को भी महत्त्वपूर्ण माना है जिससे वह आत्मानुशासन, आत्मसंतुष्टि, आत्म बोध व आत्मनियमीकरण सीखता है।
वाइगोत्सकी की विभिन्न अवधारणाएँ :-
1. आत्म नियमन :- वाइगोत्सकी के अनुसार एक बालक चिंतन की दिशा में जब आगे बढ़ता है तो वह भाषा को लेकर व्यक्तिगत व्यवहार प्रकट करता है जो एक प्रकार से उसके लिए निश्चित नियम से बन जाते हैं और उसी के आधार पर वह आत्म सम्भाषण (Inner Speech)/निजी सम्भाषण (Private Speech) करता है अर्थात् अपने आप से बातें करता है।
वाइगोत्सकी के अनुसार जो बालक जितना अधिक Private Speech करता है वह उतना ही दक्ष बनता है और आगे चलकर अच्छा वक्ता बनता है।
2. वास्तविक विकास क्षेत्र (Actual Development Level) :- एक बालक जिन व्यवहारों को बिना किसी दूसरों की सहायता से स्वयं सीख सकता है और वह स्वयं अपने विकास को प्राप्त करता है अर्थात् जहाँ मदद की आवश्यकता नहीं पड़ती, वह वास्तविक विकास क्षेत्र कहलाता है।
3. सम्भाव्य विकास क्षेत्र (Level of Potential Development) :- सामाजिक वातावरण में जब बालक विकास को प्राप्त करता है तब उस बालक में कुछ विशेष प्रकार के संज्ञानात्मक विकास की संभावनाएँ नजर आती हैं, उसे संभाव्य विकास क्षेत्र कहते हैं जिसमें से कुछ समर्थ, कुशल व सार्थक व्यक्तियों की सहायता से सीखता है। जैसे कि एक विद्यालय में ये संभावनाएँ होती हैं जहाँ शिक्षक इस कार्य को करते हैं।
4. समीपस्थ विकास क्षेत्र (ZPD) (Zone of Proximal Development) :- बालक के वास्तविक विकास क्षेत्र तथा संभाव्य विकास क्षेत्र के बीच का अंतर समीपस्थ विकास क्षेत्र (ZPD) कहलाता है। यह कठिन कार्यों की एक सीमा है जिसे वह अकेला नहीं कर सकता लेकिन अन्य वयस्कों तथा कुशल सहयोगियों की मदद से उसे करना संभव है।
5. स्कैफोल्डिंग (Scaffolding)/ढाँचा/मचान/पाईट/पाड़ :- यह एक तकनीक है जो सहायता के स्तर में परिवर्तन करती है। यह एक अल्पकालिक सहायता है जो सामाजिक अंत:क्रिया के रूप में दी जाती है।
जब बालक सीखता है तो एक अध्यापक या किसी बड़े व्यक्ति का उसे सीखते समय समर्थन देना, जिससे उसकी निष्पादन क्षमता का विकास होता है। पाड़ का एक महत्त्वपूर्ण साधन संवाद या वार्तालाप है।
6. MKO (More Knowledgeable Other) :- बालक भाषा, चिन्तन, विचारों का ज्ञान बड़ों की सहायता से प्राप्त करता है जैसे- माता-पिता, शिक्षक, सहयोगी।
7. पारस्परिक शिक्षण (Reciprocal Teaching) :- वाइगोत्सकी के अनुसार बालक जिस सामाजिक वातावरण में रहता है, वहाँ अपने से बड़े लोगों व सहयोगी से परस्पर समूह बनाकर अंत:क्रिया से सीखता है।
वाइगोत्सकी के अनुसार भाषा व चिंतन
वाइगोत्सकी के अनुसार भाषा केवल अपने विचारों का आदान-प्रदान करने का माध्यम ही नहीं बल्कि अपने व्यवहार को नियंत्रित एवं निर्देशित करने का साधन भी है।
प्रारम्भ में बच्चों में चिंतन एवं भाषा दोनों ही स्वतंत्र रूप से विकसित होते हैं और बाद में लगभग दो वर्ष की उम्र तक भाषा और विचार दोनों मिल जाते हैं।
II. ब्रूनर का संरचनात्मक निर्मितवादी सिद्धांत :-
प्रतिपादक :- जैरोम ब्रूनर ने 1966 में।
पुस्तक :- Relevance of Education
● ब्रूनर के सिद्धांत को ‘त्रिज्य निर्मितवाद’ कहा जाता है।
● ब्रूनर के अनुसार ज्ञान व्यक्तिगत रूप से निर्मित होता है, यह ज्ञान उसे विशिष्ट सामाजिक वातावरण या परिस्थिति के माध्यम से प्राप्त होता है।
● ब्रूनर ने अपने सिद्धांत में 3 अवस्थाओं का वर्णन किया:-
1. विधि निर्माण/सक्रियता (Enactive)
2. प्रतिमात्मक (Iconic)
3. प्रतीकात्मक/सांकेतिक (Symbolic)
1. विधि निर्माण/सक्रियता अवस्था (Enactive) :- जन्म से 18 या 24 माह तक
इस अवस्था में शिशु अपनी अनुभूतियों को क्रिया द्वारा व्यक्त करता है। वह शब्द विहिन क्रिया करता है।
जैस- दूध की बोतल को देखकर शिशु द्वारा मुँह चलाना, हाथ-पैर फेंकना आदि।
2. प्रतिमात्मक/मूर्त प्रतिनिधान/अनुप्रतिकात्मक (Iconic Stage) :- 2 से 6 वर्ष तक
इस अवस्था में बालक प्रत्यक्षीकरण तथा मानसिक क्रियाओं के माध्यम से सीखता है। बालक किसी भी प्रकार के ज्ञान की मस्तिष्क में प्रतिमा बना लेता है।
यह वास्तविकता का चरण होता है।
3. प्रतीकात्मक/संकेतात्मक (Symbolic Stage) :- (7 से 13 वर्ष)
● यह बौद्धिक विकास की सर्वश्रेष्ठ अवस्था है। इसे शब्द चरण भी कहा जाता है।
● इस आयु में बालक अपने विचारों एवं ज्ञान को संकेतों के माध्यम से प्रकट करने लगता है।
● भाषा के माध्यम से अनुभवों को व्यक्त करता है।
विशेष :-
● ब्रूनर ने आगमनात्मक विधि पर बल दिया।
● बालक में अंतर्दर्शी चिंतन पर बल।
● अन्वेषणात्मक सीखने पर बल (डिस्कवरी लर्निंग)। ब्रूनर ने अन्वेषण उपागम में अनुरक्षण, कार्यशीलता व निर्देशन को महत्त्वपूर्ण माना है।
● कक्षा-शिक्षण को अर्थपूर्ण बनाने पर बल।
● सीखना सक्रिय व स्वतंत्र रूप से सूचना को प्रक्रियाबद्ध करना है।
● ब्रूनर ने सर्पिल/स्पाईलर पाठ्यक्रम की अवधारणा दी।
● ब्रूनर ने बालकों के चिंतन में संकेत, भाषा तथा प्रतिमा को महत्त्वपूर्ण माना है।
● ब्रूनर तीन प्रक्रियाओं को महत्त्वपूर्ण मानते हैं-
(i) नए ज्ञान व सूचना का अर्जन।
(ii) नवीन अर्जित ज्ञान का रूपांतरण।
(iii) ज्ञान की पर्याप्तता की जाँच।
● ब्रूनर तथा कैनी ने (1966) में 3 × 3 मैट्रिक्स में 9 प्लास्टिक के ग्लास पर प्रयोग किया।
III. आसुबेल का आधुनिक संज्ञानात्मक सिद्धांत (अधिगम प्रकार)
प्रतिपादक :- डेविड आसुबेल (अमेरिका), 1968 में।
– सीखने के चार प्रकार बताए-
1. अभिग्रहण सीखना (Reception Learning) :- बालकों को विषय वस्तु लिखकर या बोलकर दी जाती है बालक उसे वैसी ही आत्मसात कर लेता है। यह रटकर भी हो सकता है व समझकर भी।
2. अन्वेषण अधिगम (Discovery Learning) :- जब बालक दी गई विषयवस्तु में नया विचार खोज करके सीखता है। यह समस्या समाधान आधारित होता है। यह अर्थपूर्ण भी हो सकता है और रटकर भी।
3. रटकर सीखना (Rote Learning) :- जब बालक विषयवस्तु को बिना समझे वैसा का वैसा रट लेता है। निरर्थक पदों को सीखना, शब्दों के जोड़ों को सीखना, अक्षर अंक के जोड़ों को सीखना आदि इसके उदाहरण हैं।
4. अर्थपूर्ण सीखना (साभिप्राय सीखना) :- जब बालक विषयवस्तु के सार-तत्त्व को समझकर सीखने का प्रयास करता है।
Note :-
1. आसुबेल ने अर्थपूर्ण अधिगम को सबसे महत्त्वपूर्ण माना है।
2. सीखने की निगमनात्मक विधि पर बल।
IV. अनुभवजन्य अधिगम सिद्धांत :-
प्रतिपादक :- कार्ल रोजर्स
● रोजर्स के अनुसार अधिगम के 2 प्रकार-
1. संज्ञानात्मक अधिगम – इसमें शिक्षक या विषयवस्तु केन्द्रबिन्दु होता है, अत: प्राप्त ज्ञान स्थायी नहीं होता।
2. अनुभवजन्य अधिगम – रोजर्स के अनुसार अनुभवजन्य या आनुभाविक अधिगम में शिक्षण अधिगम प्रक्रिया का केन्द्रबिन्दु छात्र होता है और उसे जब अनुभव से कुछ भी ज्ञान प्राप्त होता है तो उस ज्ञान की स्थायी होने की संभावना अधिक होती है।
● इसका संबंध अर्जित ज्ञान को उपयोग में लाने से होता है। इसमें अधिगमकर्ता की व्यक्तिगत रुचि व तत्परता का समावेश होता है। विद्यार्थी स्वयं ही अधिगम हेतु पहल करता है।
● इस सिद्धांत के अनुसार एक व्यक्ति में अधिगम उसके आंतरिक अनुभव व बाह्य वातावरण की परस्पर क्रिया पर आधारित है।
Note :- कॉर्ल रोजर्स ने 1942 में क्लाइन्ट (रोगी) केन्द्रित चिकित्सा का प्रतिपादन किया।
● स्वयं अनुभव करके सीखने पर बल देता है।
V. डेविड कौल्ब का अनुभवात्मक अधिगम मॉडल :-
प्रतिपादक :- डेविड कौल्ब
डेविड कौल्ब ने अधिगम में चार चक्र व शैलियों का उल्लेख किया।
1. अनुभव करना/देखना → ठोस (मूर्त अनुभव)
2. निरीक्षण/चिंतन करना → अपसारी चिंतन
3. संकल्पना करना → अभिसारी चिन्तन/अमूर्त अवधारणा
4. परीक्षण करना/महसूस करना → सक्रिय प्रयोग
Note :-
1. संज्ञानात्मक मानचित्र के प्रतिपादक → टॉलमेन
2. अवधारणा/संकल्पना मानचित्र → जोसेफे डी. नोवेक
3. रचनावाद का 5-E मॉडल → गैने व बायकी
4. अधिगमित निस्सहायता (Learned helplessness) – सेलिगमैन तथा मायर ने कुत्तों पर अध्ययन कर इस गोचर को प्रदर्शित किया। यह अवसादग्रस्त व्यक्तियों में पाया जाता है। कार्यों के निष्पादन में बार-बार मिलने वाली असफलता के कारण व्यक्तियों में असहायपन की प्रवृत्ति आ जाती है।
इस तरह के सम्प्रत्यय में प्राणी यह सीखता है कि कुछ व्यवहार के परिणाम को वह नियंत्रित नहीं कर सकता है इसलिए कोशिश करने से कोई फायदा नहीं है। अत: वह कोशिश करना छोड़कर निष्क्रिय व असहाय होना सीख लेता है।
अधिगम अक्षमता/कठिनाई :-
अर्थ :- सीखने की क्षमता की अनुपस्थिति
● अधिगम अक्षमता शब्द का प्रयोग वर्ष 1963 में सैमुअल किर्क ने किया।
● इसका अर्थ अधिगम अक्षमता वाक्, भाषा, पठन, लेखन या अंकगणितीय प्रक्रिया में से किसी एक या अधिक प्रक्रियाओं में मंदता, विकृति व अवरुद्ध विकास के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। जो मस्तिष्क कार्य विरूपता/संवेगात्मक व व्यावहारिक विक्षोभ का परिणाम है।
विशेषताएँ :-
● यह आंतरिक व स्नायुजनित होती है।
● यह विकृतियों का विषम समूह है।
● यह जैविक व मनोवैज्ञानिक समस्या है।
● इसका स्वरूप स्थायी होता है।
Note :- अधिगम अशक्तता बच्चों को इलाज – अपचारी अध्यापन विधि।
प्रमुख विकृतियाँ :-
1. डिसलेक्सिया :- पठन विकार
यह ग्रीक भाषा के दो शब्दों डिस (Dys) + लेक्सिस (Lexis) से मिलकर बना है। वर्ष 1887 में एक जर्मन नेत्र रोग विशेषज्ञ रूडोल्फ बर्लिन ने इस शब्द को खोजा।
लक्षण –
-वाचन परिशुद्धता, गति तथा बोध की समस्याएँ।
-बार-बार वर्तनी संबंधी त्रुटियाँ करना।
-शब्दों में अक्षरों की स्थिति में उलट-फेर कर देना या अक्षरों के क्रम में परिवर्तन कर देना जबकि उनको विद्यार्थी पढ़ रहा है या लिख रहा है; जैसे- b-d; was-saw; quite-qutie आदि।
-बोलचाल में देरी।
-अक्षरों के नामकरण में त्रुटियाँ।
-छपे हुए शब्दों को सीखने और याद करने में कठिनाइयाँ।
-सही शब्द को बोल पाने में कठिनाई।
-शब्दों में ध्वनि के संबंध में कम जानकारी-ध्वनिक्रम, लय या पदांश की क्रमशीलता को नहीं समझ पाना।
-पढ़ते समय स्वर वर्णों का लोप होना।
-वर्णमाला अधिगम में कठिनाई।
-समान उच्चारण की ध्वनियों को न पहचान पाना।
-सीधे या उल्टे हाथ के प्रयोग के संबंध में अनिश्चय।
● 1973 में अमेरिकी फिजिशियन एलेना बोडर ने बोडर टेस्ट ऑफ रीडिंग स्पेलिंग पैटर्न नामक एक परीक्षण का विकास किया, जो डिसलेक्सिया की पहचान करता है।
● ब्रिटेन में थॉमस रिचर्ड मिल्स ने डिस्लेक्सिया का पता लगाने के लिए बांगोर टेस्ट का विकास किया।
● डिस्लेक्सिया का पूर्ण उपचार असंभव है, लेकिन उचित शिक्षण अधिगम पद्धति के द्वारा निम्नतम स्तर पर लाया जा सकता है।
उदाहरण :- कमर तथा रकम में, सपूत तथा कपूत में, ट तथा ठ, प तथा फ में अंतर करना कठिन हो जाता है।
2. एलेक्सिया :- मानसिक पठन विकार (पठन अक्षमता)
– शब्द अंधता
– यह अर्जित डिस्लेक्सिया है।
3. हाइपरलेक्सिया :- इस समस्या में बालक श्यामपट्ट पर लिखे अक्षरों व शब्दों को बिल्कुल भी समझ नहीं पाते हैं।
4. डिसग्राफिया :- लेखन विकार।
लक्षण – लिखते समय स्वयं से बातें करना।
-अशुद्ध वर्तनी व अनियमित आकार व रूप
-अपठनीय हस्तलेखन
-अपूर्ण अक्षर या शब्द लिखना।
5. डिस्प्रेक्सिया :- लिखने व चित्रांकन में कठिनाई, हाथ व आँखों में समन्वय नहीं स्थापित कर पाता है।
– यह तंत्रिका तंत्र से संबंधित विकार है।
6. अप्रेक्सिया :- शारीरिक विकार, मांसपेशियों के संचालन संबंधित सूक्ष्म गति कौशल विकार।
– यह मस्तिष्क के सेरेब्रम में क्षति के कारण होता है।
7. डिसकैल्कुलिया :- गणितीय विकार
लक्षण – अंकों, संख्या के अर्थ को समझने की योग्यता का अभाव।
– अंकगणितीय सक्रियाओं के अशुद्ध परिणाम
– नाम व चेहरा पहचानने में कठिनाई
– दिशा ज्ञान का अभाव व अल्प समझ
8. अफेज्या :- भाषा व सम्प्रेषण विकार, मौखिक भाषा को ग्रहण करने व व्यक्त करने की कठिनाई।
9. डिस्मोर्फिया :- भ्रम/संदेह विकार
इसमें व्यक्ति को भ्रम हो जाता है कि उसके शरीर के कुछ अंग छोटे या अपूर्ण हैं। रस्सी को साँप समझना।
10. अलोगिया – वाक् अयोग्यता
11. डिस्फेजिया – मस्तिष्क में क्षति के कारण बातचीत करने में पूर्ण या आंशिक अक्षमता।
12. डिस्थिमिया – गम्भीर तनाव की अवस्था।
13. सोमनेमबुलिज्म – नींद में चलने की बीमारी।
14. ब्रिक्सज्म – नींद में दाँत पीसना।
15. सिज्रोफेनिया – शक/वहम की बीमारी।
अधिगम के निहितार्थ
प्रत्यय का अभिप्राय विचार से लिया गया है तथा विचार वह शक्ति है जो हमें किसी कार्य के प्रति प्रेरित करती है अथवा कार्य करने के लिए आगे बढ़ती हैं। सामान्यत: कार्य व्यवहार में सत्य/वास्तविक विचारों का योगदान होता है जिन्हें सम्प्रत्यय कहते हैं। प्रत्यय (विचार) जो व्यक्ति/बालक के सीखे हुए ज्ञान/व्यवहार को स्थायी बनाने में विशेष योगदान प्रदान करते हैं, उन्हें ही मनोविज्ञान की भाषा में अधिगम के सम्प्रत्यय कहते हैं।
1. आत्म-सम्प्रत्यय (Self Concept) :- आत्म सम्प्रत्यय का विचार रैन डेसकोर्टेश द्वारा दिया गया तथा विशेष उल्लेख विलियम जेम्स ने किया है।
● हमारे द्वारा स्वयं के लिए जो धारणा/विचार होते हैं, उन्हें ही आत्म सम्प्रत्यय कहते हैं।
विलियम जेम्स- “आत्म सम्प्रत्यय उन सब विचारों का योग है, जिन्हें व्यक्ति अपना कहकर पुकारता है। जैसे- मैं क्या हूँ, मैं कौन हूँ।”
● आत्म सम्प्रत्यय के सामान्यत: दो प्रकार होते हैं-
(i) वास्तविक आत्म सम्प्रत्यय :- जब एक व्यक्ति स्वयं के बारे में वर्तमान को लेकर सोचता है, कि मैं क्या हूँ?, कौन हूँ? कैसा हूँ? आदि।
(ii) आदर्शात्मक आत्म सम्प्रत्यय :- जब एक व्यक्ति अपने भविष्य को लेकर सोचता है, मैं क्या बनूँगा?, कैसे बनूँगा, कब बनूँगा? आदि।
● आत्म सम्प्रत्यय निर्माण के पक्ष :- किसी भी व्यक्ति/बालक में आत्म सम्प्रत्यय निर्माण के लिए निम्नलिखित 2 पक्ष जिम्मेदार होते हैं-
(i) शारीरिक पक्ष :- एक व्यक्ति जब अपने शरीर की संरचना एवं रंग रूप के आधार पर सोचता है कि मैं कितना सुंदर व आकर्षक दिखता हूँ।
(ii) मानसिक पक्ष :- जब एक व्यक्ति अपनी मानसिक क्षमता, संगठन, बुद्धि-लब्धि, परिपक्वता आदि को ध्यान में रखकर सोचता है।
जैसे- मैं अन्य लोगों से ज्यादा अच्छा कार्य कर सकता हूँ।
– मैं ज्यादा समय पढ़ व स्मरण रख सकता हूँ।
● एक व्यक्ति को अपने जीवन में अधिकतर सफलताएँ मानसिक पक्ष की प्रबलता से मिलती हैं।
● एक शिक्षक के रूप में कार्य करते हुए व्यक्ति को अपने विद्यार्थियों में सकारात्मक दृष्टिकोण एवं स्वयं के प्रति अच्छी धारणा बनाने के लिए प्रोत्साहन देना चाहिए।
● प्रत्येक व्यक्ति को सदैव मानसिक पक्ष को सकारात्मक बनाने के लिए प्रयास करना चाहिए।
Note :-
● हेलो प्रभाव :- यह एक संज्ञानात्मक पूर्वाग्रह है, जो कि किसी को देखकर उसके हाव-भाव से उसके चरित्र व व्यक्तित्व के बारे में गलत धारणा/पूर्वाग्रह बना लेना।
● प्लेसीबो प्रभाव :- किसी भी योग्य व्यक्ति के प्रभाव से व उसके मधुर व्यवहार से बीमार व्यक्ति का सही हो जाना। अर्थात् मन से भय का निकालना।
● रीसेन्सी प्रभाव/आवर्ती प्रभाव/आसन्नता प्रभाव :- यह सबसे अंत में प्राप्त होने वाली सूचना की प्रबल भूमिका मानता है।
2. अभिवृत्ति/मनोवृत्ति (Attitude) :- एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति, वस्तु या क्रिया के प्रति जो नजरिया, सोच, धारणा या दृष्टिकोण बनाता है, उस धारणा, दृष्टिकोण या नजरिये को अभिवृत्ति कहते हैं अर्थात् मनोवृत्ति किसी व्यक्ति, वस्तु या घटना के प्रति किसी ढंग से अनुक्रिया करने की एक मानसिक तत्परता होती है। मनोवृत्ति में व्यक्ति ने अनुकूलता-प्रतिकूलता की विमा पर किसी व्यक्ति, वस्तु या घटना के प्रति अनुक्रिया करने की तत्परता पाई जाती है।
● अभिवृत्ति शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के ‘Abtus’ से हुई है जिसका अर्थ होता है- योग्यता/सुविधा।
थर्स्टन :- “किसी मनोवैज्ञानिक वस्तु के कारण आने वाले सकारात्मक या नकारात्मक प्रभावों को अभिवृत्ति कहते हैं।”
ट्रेवर्स :- “व्यवहार को एक दिशा प्रदान करने वाली प्रतिक्रिया के लिए आवश्यक तत्परता का नाम अभिवृत्ति है।”
रेमर्स, रूमेल व गेज :- “अभिवृत्ति अनुभवों द्वारा व्यवस्थित संवेगात्मक प्रवृत्ति है, जिसमें मनोवैज्ञानिक पदार्थों के प्रति सकारात्मक या नकारात्मक प्रतिक्रिया होती है।”
अभिवृत्ति/मनोवृत्ति के प्रकार :-
1. सकारात्मक
2. नकारात्मक
(i) सकारात्मक/भावात्मक अभिवृत्ति :- किसी भी व्यक्ति, वस्तु के प्रति विश्वास रखना, किसी को पसन्द करना, किसी के बारे में अच्छा/सकारात्मक सोचना, उत्तरदायित्व व उद्देश्ययुक्त होना आदि सकारात्मक अभिवृत्ति के लक्षण हैं।
(ii) नकारात्मक अभिवृत्ति :- किसी के प्रति अविश्वास रखना, दूर भागना, नकारात्मक सोचना आदि।
● एक शिक्षक अपने बालकों में उसी अभिवृत्ति को विकसित कर सकता है जो मनोवृत्ति स्वयं शिक्षक में है।
● एक व्यक्ति को सदैव सकारात्मक अभिवृत्ति का विकास करना चाहिए।
अभिवृत्ति के तीन घटक-
(i) संज्ञानात्मक (ii) भावात्मक (iii) व्यवहारात्मक
मनोवृत्ति/अभिवृत्ति की विशेषताएँ :-
● अभिवृत्ति बहुत कम जन्मजात होती है बल्कि अर्जित अधिक होती है। व्यावहारिक दृष्टिकोण में अर्जित अधिक होती है।
● अनुभव के आधार पर ‘अर्जित’ होती है।
● इसका संबंध व्यक्ति के भाव व संवेगों से होता है।
● अभिवृत्ति सदैव परिवर्तनशील होती है।
● अभिवृत्ति पर वातावरण का सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है।
● अभिवृत्ति विचारों का एक पुँज है।
● अभिवृत्ति का निर्माण साहचर्य, पुरस्कार, दण्ड व प्रतिरूपण द्वारा होता है।
● अभिवृत्ति धनात्मक अथवा ऋणात्मक भी हो सकती है।
● अभिवृत्ति व्यक्तिगत व सामाजिक दोनों प्रकार की होती है।
● अभिवृत्ति व्यक्ति के व्यवहार का आधार होती है।
● अभिवृत्ति में स्व का अधिक महत्त्व है।
● अभिवृत्ति संवेग व भावों से प्रभावित होती है।
अभिवृत्ति को प्रभावित करने वाले कारक :-
● शारीरिक वृद्धि एवं विकास
● बौद्धिक, मानसिक एवं संवेगात्मक विकास
● सामाजिक, चारित्रिक विकास
● घर, परिवार, समाज एवं विद्यालय का वातावरण
अभिवृत्ति व अभिरुचि में संबंध:-
● अभिवृत्ति किसी वस्तु विशेष के प्रति दृष्टिकोण को व्यक्त करती है जबकि अभिरुचि योग्यता व क्षमता को व्यक्त करती है।
Note :- पूर्वाग्रह अभिवृत्ति का एक रूप है जो नकारात्मक होता है।
अभिवृत्ति परिवर्तन के लिए आवश्यक → अनुनयात्मक संचार
पूर्वाग्रह :- विशिष्ट समूह/व्यक्ति के प्रति अभिवृत्ति (नकारात्मक)
● अभिवृत्ति व रुचि एक-दूसरे को प्रभावित करती हैं तथा अभिवृत्ति सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों होती हैं जबकि रुचि सदैव सकारात्मक होती है।
● अभिवृत्ति का क्षेत्र व्यापक होता है जबकि रुचि का क्षेत्र सीमित होता है।
Note :-
● अभिवृत्ति मापन के लिए थर्स्टन ने 1927 में युग्म-तुलनात्मक निर्णय विधि का निर्माण किया।
3. अभिरुचि/अभियोग्यता/अभिक्षमता (Aptitude) :-
अर्थ :- किसी क्षेत्र या कार्य विशेष को संपादित करने की समग्र विशिष्ट क्षमता या योग्यता अभिरुचि/अभिक्षमता कहलाती है।
● किसी विशेष क्षेत्र या विषय में ज्ञान, अभिरुचि, कौशलता आदि विकसित करने की क्षमता अभियोग्यता/अभिक्षमता कहलाती है अर्थात् किसी क्षेत्र या कार्य विशेष को सम्पादित करने की समग्र विशिष्ट क्षमता या योग्यता ही अभिक्षमता है।
टुकमैन :- “क्षमताओं एवं अन्य गुणों चाहे जन्मजात हो या अर्जित हो, का एक ऐसा संयोग जिससे व्यक्ति में सीखने की क्षमता या किसी खास क्षेत्र में निपुणता विकसित करने की क्षमता का पता चलता है, अभिक्षमता कहलाती है।”
फ्रीमैन :- “उन गुणों के संयोग जिनसे कुछ विशिष्ट ज्ञान एवं संगठित अनुक्रियाओं के सैट की कौशलता जैसे- भाषा बोलना, गायक बनना, यांत्रिक कार्य करना आदि की सीखने की क्षमता ही अभिक्षमता है।”
अभिक्षमता की विशेषताएँ
● अभिक्षमता जन्मजात व अर्जित दोनों होती है।
● अभिक्षमता व्यक्ति के भीतर की एक अन्तर्शक्ति होती है।
● यह किसी विशेष क्षेत्र में कौशलता को सीखने की क्षमता होती है।
● इसका संबंध व्यक्ति की योग्यताओं से है।
● अभिक्षमता पर व्यक्तिगत विभिन्नताओं का प्रभाव पड़ता है।
● यह वंशानुक्रम तथा वातावरण दोनों पर आधारित होती है।
● अभिक्षमता अमूर्त संज्ञा है।
● अभिक्षमता व रुचि में घनिष्ठ संबंध पाया जाता है।
● यह भावी सफलताओं की ओर संकेत करती है।
● अभिरुचि रुचि का भविष्य या परिणाम होती है।
अभिरुचि/अभियोग्यता के प्रकार :-
i. संवेदनात्मक अभिरुचि :- स्पर्श शक्ति, घ्राण शक्ति, श्रवण शक्ति, दृश्य शक्ति, स्वाद शक्ति आदि से संबंधित योग्यता जैसे- डॉक्टर, पुलिस, सेना, वकील।
ii. यांत्रिक/मैकेनिकल अभिरुचि :- जिनका संबंध मशीनों से हो।
जैसे- इंजीनियर, मिस्त्री, बढ़ई।
iii. कलात्मक अभिरुचि :- जिनका संबंध कलात्मक अभिव्यक्ति से है। जैसे- चित्रकार, संगीतकार, नर्तक, कविता रचना, फोटोग्राफी, रेखात्मक अभिरुचि, अभिनय।
iv. शैक्षिक अभिरुचि :- जिनका संबंध शिक्षा से है।
जैसे- शिक्षक, विद्यार्थी, लेखक, दार्शनिक, वाणिज्य, पढ़ना, लिखना, शिक्षण।
v. व्यावसायिक अभिरुचि :- जिनका संबंध विभिन्न प्रकार के व्यवसायों से है।
जैसे- लिपिक कार्य, वकालत, विमान चालक, व्यापारी।
vi. सामाजिक अभिरुचि :- समाजसेवी, समाजसुधारक, राजनेता।
अभिक्षमता का मापन
अभिक्षमता परीक्षणों को दो विस्तृत भागों में बाँटा जाता है-
(a) सामान्य अभिक्षमता परीक्षण/बहुक्षमता परीक्षणमाला
इसके द्वारा छात्रों की अभिक्षमता किसी एक विशिष्ट क्षेत्र में नहीं बल्कि कई ऐसे विशिष्ट क्षेत्रों की अभिक्षमताओं का मापन एक साथ हो जाता है।
(i) विभेदी अभिक्षमता परीक्षण (DAT)
निर्माण – बिनेट, सीशोर तथा वेसमैन ने, 1974 में।
इस परीक्षण में 8 उप-परीक्षण शामिल हैं।
- शाब्दिक चिंतन
- संख्यात्मक क्षमता
- अमूर्त चिंतन
- दैशिक संबंध
- यांत्रिक चिंतन
- प्रत्यक्ष ज्ञानात्मक गति और परिशुद्धता
- वर्तनी
- भाषा उपयोग
इस परीक्षण द्वारा 8वीं कक्षा से 12वीं कक्षा के छात्रों की अभिक्षमता का मापन किया जाता है।
Note :- DAT परीक्षण का भारतीय अनुकूलन (हिंदी भाषा) प्रो. जे.एम. ओझा द्वारा किया गया जो ‘मानसायन’ दिल्ली द्वारा प्रकाशित हुआ है।
(ii) सामान्य अभिक्षमता परीक्षणमाला (GATB)
निर्माण – अमेरिकी नियोजन सेवा द्वारा, 1962 में।
इस परीक्षण में 12 उप-परीक्षण शामिल हैं, जिनके द्वारा 9 अभिक्षमताओं का मापन किया जाता है।
- बुद्धि
- शाब्दिक
- संख्यात्मक
- दैशिक
- लिपिक प्रत्यक्षण
- क्रियात्मक समन्वय
- अंगुली निपुणता
- हस्तनिपुणता
- आकार प्रत्यक्षण
(iii) फ्लैनेगन अभिक्षमता परीक्षण (FACT)
निर्माण :- फ्लैनेगन द्वारा
इसके द्वारा 21 व्यावसायिक अभिक्षमताओं का मापन किया जाता है। (19 शाब्दिक तथा 2 क्रियात्मक)
(b) विशिष्ट अभिक्षमता परीक्षण
इसके द्वारा विशिष्ट न कि सामान् अभिक्षमता का मापन होता है। जैसे- गायन, लिपिकीय अभिक्षमता।
(i) मिनीसोटा लिपिकीय परीक्षण
निर्माण – मिनिसोटा विश्वविद्यालय द्वारा, 1930 में।
इसके द्वारा यांत्रिक अभिक्षमता को मापा जाता है।
(ii) एस.आर.ए. यांत्रिक अभिक्षमता परीक्षण
यह भी यांत्रिक अभिक्षमता को मापता है। इसमें तीन उप-परीक्षण हैं, जो यांत्रिक अभिक्षमता के ही तीन विभिन्न पहलुओं को मापते हैं।
(iii) संगीत अभिक्षमता परीक्षण – सीशोर ने
(iv) SATC परीक्षण
निर्माण – ए.के.पी. सिन्हा व एल.एन.के. सिन्हा द्वारा (बिहार)
4. रुचि (Interest) :-
Interest शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के Interesse से हुई है। जिसका अर्थ होता है- महत्त्वपूर्ण होना, लगाव होना तथा दूसरों से अलग होना।
● रुचि से अभिप्राय व्यक्ति के उस व्यवहार से है जिसे वह स्वेच्छा से एवं किसी आकर्षण के कारण करता है।
● क्रो एण्ड क्रो :- “रुचि वह प्रेरक शक्ति है, जो किसी क्रिया या कार्य को करने के लिए प्रेरित करती है।”
● विलियम मैक्डूगल :- “किसी व्यक्ति, वस्तु या क्रिया के प्रति होने वाला आकर्षण ही रुचि है।”
रुचि की विशेषताएँ :-
● रुचि व्यक्तिगत होती है।
● रुचि जन्मजात व अर्जित दोनों होती है।
● वंशानुक्रम व वातावरण दोनों का प्रभाव पड़ता है।
● रुचि, ध्यान, अभिक्षमता व अधिगम से सकारात्मक रूप से संबंधित होती है।
● एक शिक्षक को चाहिए कि वह अपने बालकों में सदैव सकारात्मक रुचि की दिशा में मार्गदर्शन देते हुए उस कार्य व्यवहार को उन्नत करे।
● किसी व्यक्ति की रुचि को आसानी से नहीं जाना जा सकता है।
● रुचियाँ सदैव परिवर्तनशील होती हैं।
● रुचि व अभियोग्यता में सकारात्मक संबंध पाया जाता है।
● रुचि सदैव सकारात्मक दिशा में होती है।
● रुचि अभिक्षमता का लाक्षणिक रूप है।
रुचि के प्रकार
सुपर व क्राइट्स के अनुसार (1962 में) रुचि के तीन प्रकार हैं-
(i) व्यक्त रुचि (Expressed Interest) :- इसमें किसी एक क्रिया की तुलना में व्यक्ति किसी दूसरी क्रिया को अधिक पसंद करने की स्पष्ट अभिव्यक्ति करता है। जैसे- शिक्षक द्वारा पूछने पर छात्र यदि स्पष्ट रूप से यह कहता है कि उसे संस्कृत व हिंदी अन्य विषयों की तुलना में अधिक रुचिकर लगते हैं।
(ii) प्रकट रुचि (Mainfest Interest) :- इसकी अभिव्यक्ति व्यक्ति द्वारा स्वत: अपनी इच्छा से कोई काम करने से होती है।
जैसे- कोई छात्र अक्सर खाली समय में शतरंज खेलता पाया जाता है।
(iii) आविष्कारिकात्मक रुचि (Inventoried Interest) :- वैसी रुचि जिसका ज्ञान मानक रुचि आविष्कारिका का क्रियान्वयन करने के बाद पता चलता है।
रुचि का मापन
(i) कुडर परीक्षण
निर्माण :- जी.एस. कुडर ने, 1954 में।
इसमें 4 उप-परीक्षण शामिल हैं।
(ii) स्ट्राँग रुचि आविष्कारिका
निर्माण :- ई.के. स्ट्रॉन्ग ने, 1927 में।
5. आदत (Habit) :-
अर्थ :- Habit शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के ‘Habitus’ से हुई है जिसका अर्थ है- किसी चीज को प्राप्त करना।
● जब हम पहली बार किसी कार्य को करते हैं तो वह कार्य हमें कठिन लगता है और यदि हम उस कार्य को बार-बार दोहराते हैं तो हमें उस कार्य का अभ्यास हो जाता है अर्थात् वह कार्य हमारे स्वभाव में आ जाता है और स्वभाव में आने के कारण सरल बन जाता है। इसे ही आदत कहते हैं अर्थात् आदत व्यवहार को सरल बनाने वाला कार्य है। अत: आदत एक सीखा हुआ कार्य या अर्जित व्यवहार है, जो स्वत: होता है।
● गैरेट :- “आदत उस व्यवहार को दिया जाने वाला नाम है, जो इतनी अधिक बार दोहराया जाता है कि यंत्रवत् हो जाता है।”
● लैडेल :- “आदत, कार्य का वह रूप है, जो आरम्भ में स्वेच्छा से जान-बूझकर किया जाता है, पर वो बार-बार किए जाने के कारण स्वत: होता है।”
● विलियम जेम्स :- “प्राणी के पूर्वकृत व्यवहारों की पुनरावृत्ति आदत है।”
● रायबर्न :- “सीखना, आदतों के निर्माण की प्रक्रिया है।”
● सामान्यत: आदतें दो प्रकार की होती हैं-
1. अच्छी आदतें 2. बुरी आदतें
● आदतें हमारे चरित्र एवं व्यक्तित्व का निर्माण करती हैं इसलिए जीवन में अच्छी आदतें ही अपनानी चाहिए।
आदतों के प्रकार :-
वेलेन्टाइन ने 7 प्रकार की आदतों का उल्लेख किया-
i. यांत्रिक आदतें :- इनका संबंध शरीर की विभिन्न गतियों से होता है, जिसे हम बिना किसी प्रयास से करते हैं।
जैसे- कोट के बटन बंद करना, जूतों के फीते बाँधना, टाई बाँधना।
ii. शारीरिक अभिलाषा संबंधी आदतें :- इनका संबंध शरीर की अभिलाषा पूर्ति से होता है।
जैसे- सिगरेट पीना, पान खाना, शराब पीना, धूम्रपान करना।
iii. नाड़ी मण्डल संबंधी आदतें :- ये व्यक्ति के संवेगात्मक असंतुलन को व्यक्त करती हैं।
जैसे- नाखून चबाना, कलम चबाना, पैर हिलाना।
iv. भाषा संबंधी आदतें :- इनका संबंध बोलने से होता है।
जैसे- किसी शब्द को बार-बार दोहराना, अपशब्द बोलना, अशुद्ध बोलना, तकियाकलाम।
v. विचार संबंधी आदतें :- इनका संबंध व्यक्ति की रुचियों एवं इच्छाओं से होता है। जैसे- तर्क या कारण संबंधी विचार, समय-तत्परता, वाद-विवाद
vi. भावना-संबंधी आदतें :- इनका संबंध व्यक्ति की भावनाओं से होता है।
जैसे- प्रेम, घृणा, सहानुभूति की भावना।
vii. नैतिक आदतें :- इनका संबंध नैतिकता से होता है।
जैसे- सत्य बोलना, अहिंसा, दया।
● अच्छी आदतें, बालक के शारीरिक, मानसिक संतुलन, संवेगात्मक विकास में योगदान देती हैं।
● आदतें, बालक के चरित्र का निर्माण करती हैं।
● आदतें, बालक के व्यक्तित्व का निर्माण करती हैं।
● आदतें, बालक के स्वभाव का अंग हैं।
● आदतें, थकान अनुभव नहीं होने देती हैं।
● यह कार्य में सरलता तथा एकरूपता लाती हैं।
● आदत चेतन स्तर से बनना आरम्भ होती है।
● आदत दो मुख्य तत्त्व पर निर्भर करती है-
(i) लचीलापन (ii) धारण करने की शक्ति
आदतों की विशेषताएँ :-
● आदतें अर्जित होती हैं।
● आदतें कार्य में एकरूपता लाती हैं।
● आदतें कार्य में तत्परता, सुगमता, सुविधा लाती हैं।
● ध्यान देने की कम आवश्यकता।
● आदतें थकावट को कम करती हैं।
● नाड़ी संस्थान आदतों का आधार है।
● आदतों का कार्य क्षेत्र व्यापक होता है।
● आदतें उपयोगी भी होती हैं व हानिकारक भी।
6. सामाजिक कौशल :-
समाज में कोई भी व्यक्ति किस प्रकार से जीवन-यापन करता है, वह उसके जीवन जीने के कौशल को दर्शाता है।
एम.पी. मुफात :- “जीवन जीना एक सुंदर कला है जो सामाजिक वातावरण से आती है।”
● मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है अत: सामाजिक कौशल उसे पूर्ण रूप से सामाजिक बनाते हैं, जो निम्नलिखित हैं-
i. समायोजन क्षमता
ii. विनम्र भाव
iii. नेतृत्व क्षमता
iv. सम्प्रेषण
v. अन्त: वैयक्तिक संबंध
vi. आदर्श व्यवहार
vii. संतोषी प्रवृत्ति
viii. सहयोगी भाव
ix. उच्च आकांक्षा स्तर
x. मिलनसारिता
xi. सामाजिक सेवा
xii. कर्तव्यनिष्ठा
xiii. मेहनती एवं कार्य के प्रति सकारात्मक
xiv. सजगता
xv. चिन्तन, समस्या-समाधान
xvi. संतुलित व्यक्तित्व
xvii. चरित्रवान, बहिर्मुखी स्वभाव