मांडल गढ़

  • मेवाड़ के प्रमुख गिरि दुर्ग़ों में से एक जो अरावली पर्वतमाला की एक विशाल उपत्यका पर स्थित है।
  • यह दुर्ग बनास, बेड़च और मेनाल नदियों के त्रिवेणी संगम के समीप स्थित होने से कौटिल्य द्वारा निर्देशित आदर्श दुर्ग की परिभाषा को चरितार्थ करता है जिसके अनुसार दुर्ग नदियों के संगम के बीच अवस्थित होने चाहिए।
  • कटोरेनुमा अथवा मंडलाकृति का होने के कारण ही सम्भवतः इनका नाम मांडलगढ़ पड़ा। जैसे-

भग्नो विधुत मंडलाकृति गढ़ो जित्वा समस्तानरीन।

  • मांडलगढ़ की सुरक्षा व्यवस्था का कमजोर बिन्दु किले के उत्तर में लगभग आधा मील पर स्थित वह पहाड़ है जो नकट्या चौड़ अथवा बीजासण का पहाड़ कहलाता है। दुर्ग पर तोपों के गोले बरसाने हेतु आक्रान्ता के लिए यह वरदान स्वरूप था।
  • मांडलगढ़ दुर्ग कब बना और इसका निर्माता कौन था इसके बारे में प्रामाणिक जानकारी का अभाव है।
  • प्रसिद्ध ग्रंथ वीर विनोद में इस किले के बारे में जनश्रुति “मांडिया नामक भील को बकरियाँ चराते वक्त एक पत्थर (पारस) मिला जिस पर उसने अपना तीर घिसा और वह तीर सुवर्ण हो गया। यह देखकर उस पारस को चानणा नामक गूजर के पास ले गया जो वहां अपने मवेशी चरा रहा था। गूजर समझदार था, उसने भील से वह पत्थर ले लिया और यह किला बनवाकर उसी मांडिया भील के नाम पर इसका नाम मांडलगढ़ रखा और बहुत कुछ फय्याजी (उदारता) करके अपना नाम मशहूर किया। उसने वहां सागर और सागरी पानी के दो निवाण (तालाब) भी बनवाये।“
  • मुगल बादशाह अकबर ने 1567 ई. में चित्तौड़ पर आक्रमण करने से पहले अपने सेनानायकों आसफखां और वजीरखां के नेतृत्व में एक विशाल सेना मांडलगढ़ पर भेजी जिसने वहां के दुर्गाधिपति बालनोत सोलंकी सरदार को परास्त कर किले पर अधिकार कर लिया।
  • 1576 ई. के हल्दीघाटी युद्ध से पहले लगभग एक माह तक कुंवर मानसिंह इस दुर्ग में रहे।
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