बूँदी का तारागढ़
- हाड़ा राजपूतों के शौर्य और वीरता का प्रतीक बूंदी का तारागढ़ पर्वतशिखरों से सुरक्षित होने के साथ-साथ नैसर्गिक सौन्दर्य से भी ओत-प्रोत है। यह गिरि दुर्ग की श्रेणी में आता है।
- बूंदी और उसका निकटवर्ती प्रदेश (कोटा सहित) दीर्घकाल तक हाड़ा राजवंश द्वारा शासित होने के कारण हाड़ौती के नाम से विख्यात है।
- बूंदी के ख्यातनाम डिंगल कवि और इतिहासकार सूर्यमल्ल मिश्रण द्वारा लिखित वंश भास्कर में इस क्षेत्र के हाड़ौती नाम के बारे में उल्लेख किया गया है। यह उल्लेख है-
“हड्डन करि विख्यात हुब, हड्डवती यह देस“
- उपलब्ध साक्ष्यों के अनुसार बम्बावदे के हाड़ा शासक देवसिंह (राव देवा) ने बूंदी की घाटी के अधिपति जैता मीणा को पराजित कर बूंदी को अपनी राजधानी स्थापित किया।
- राव देवा के वंशज (प्रपौत्र) राव बरसिंह ने मेवाड़, मालवा और गुजरात की ओर से संभावित आक्रमणों से सुरक्षा हेतु बूंदी के पर्वतशिखर पर एक विशाल दुर्ग का निर्माण करवाया जो तारागढ़ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। पर्वत की ऊंची चोटी पर स्थित होने के फलस्वरूप धरती से आकाश के तारे के समान दिखलाई पड़ने के कारण कदाचित इसका नाम तारागढ़ पड़ा। इसी नाम का एक ओर भी दुर्ग है अजमेर का तारागढ़।
- इस दुर्ग के प्रसिद्ध महलों में छत्रमहल, अनिरुद्ध महल, रतन महल, बादल महल और फूल महल आदि हैं।
- बूंदी के राजमहलों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इनके भीतर अनेक दुर्लभ एवं जीवन्त भित्तिचित्रों के रूप में कला का एक अनमोल खजाना विद्यमान है। विशेषकर महाराव उम्मेदसिंह के शासनकाल में निर्मित चित्रशाला (रंगविलास) बूंदी चित्रशैली का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करती है।
- इस दुर्ग के प्रमुख द्वार है हाथीपोल, गणेशपोल तथा हजारी पोल। हाथीपोल के दोनों तरफ हाथियों की सजीव पाषाण प्रतिमायें लगी हैं जिन्हें महाराव रतनसिंह ने वहां स्थापित करवाया था।
- यहां चौरासी खम्भों की छतरी, शिकार बुर्ज तथा फूलसागर, जैतसागर और नवलसागर सरोवर बूंदी के विगत वैभव की झलक प्रस्तुत करते हैं।
- वंश भास्कर में बूंदी नगर की प्रशंसा में सूर्यमल्ल मिश्रण ने ठीक ही कहा है-
पाटव प्रजापति को, नाक नाकहू को छिति।
मण्डल को छोगा, बूंदी नगर बखानिये।।
- बूंदी के दुर्ग की रक्षा में हाड़ा राजपूतों का शौर्य एवं बलिदान आज भी अमर है। मेवाड़ के राणा लाखा जब अथक प्रयासों के बावजूद भी बूंदी पर अधिकार न कर सके तो उन्होंने मिट्टी का नकली दुर्ग बनवा उसे ध्वस्त कर अपने मन की आग बुझाई। परन्तु इस नकली दुर्ग के लिए भी मानधनी कुम्भा हाड़ा ने अपने प्राणों की बाजी लगा दी तथा हाड़ाओं की प्रशस्ति में कही गई उक्ति को चरितार्थ कर दिखाया-
बलहठ बंका देवड़ा, करतब बंका गौड़।
हाड़ा बांका गाढ़ में, रणबंका राठौड़।।
- जहांगीर के शासनकाल में शहजादे खुर्रम (शाहजहां) ने अपने पिता के विरूद्ध झण्डा खड़ा किया तो बूंदी के राव रतनसिंह हाड़ा ने उसे शरण दी तथा एक अवसर पर शहजादे की प्राणरक्षा भी की जिस आशय में यह दोहा प्रसिद्ध है-
सागर फूटा जल बहा, अब क्या करे जतन्न।
जाता घर जहांगीर का, राख्या राव रतन्न।।
- अंग्रेजी के प्रख्यात उपन्यासकार, कहानी लेखक और कवि रूपयार्ड किपलिंग (1865-1936) जब बूंदी आए थे, वे सुख महल में ठहरे थे उन्होंने यहां के वास्तु निर्माण की प्रशंसा की थी।