अर्थ – बाल विकास, मनोविज्ञान की एक शाखा के रूप में विकसित हुआ है। इसके अन्तर्गत बालकों के व्यवहार, स्थितियाँ, समस्याओं तथा उन सभी कारणों का अध्ययन किया जाता है, जिनका प्रभाव बालक के व्यवहार पर पड़ता है। वर्तमान युग में अनेक सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक एवं आर्थिक कारक मानव तथा उसके परिवेश को प्रभावित कर रहे हैं। परिणामस्वरूप बालक, जो भावी समय की आधारशिला होता है, वह भी प्रभावित होता है। 
● बालक के विकास के सन्दर्भ में 17वीं सदी से पूर्व विश्व में किसी प्रकार की विचारधारा नहीं थी।
● पहली बार 1628 ई. में यूरोपियन विद्वान जॉन कॉमेनियस ने School of Infancy की स्थापना की और बाल शिक्षा की तरफ व्यापक ध्यान दिलाया।
पुस्तक :- द ग्रेट डिटेक्टिव।
● बाल विकास का सर्वप्रथम अध्ययन जॉन लॉक व हॉब्स ने किया।
● 18वीं सदी में पेस्टोलॉजी (जर्मनी) ने 1774 ई. में स्वयं के 312वर्षीय पुत्र के विकास पर अध्ययन करके Baby Biography (बाल जीवन चित्रण) ग्रन्थ लिखा।
● बाल मनोविज्ञान का जनक – पेस्टोलॉजी
● बाल विकास का वैज्ञानिक अध्ययन – पेस्टोलॉजी (1774)
● पेस्टोलॉजी के लेख का प्रभाव जर्मन डॉक्टर टाइडमैन पर पड़ा, जिन्होंने चिकित्सा के क्षेत्र में बालक के विकास का अध्ययन की विचारधारा का विकास किया।
● 19वीं सदी में श्रीमती विक्टोरिया हरलॉक ने इस सन्दर्भ में कहा कि बालक का विकास गर्भकाल से ही प्रारम्भ हो जाता है। इन्हीं के विचारों से बाल मनोविज्ञान बाल विकास बना।
● बाल अध्ययन आन्दोलन :- 1893 ई. में स्टेनले हॉल ने अमेरिका में बाल अध्ययन आन्दोलन की शुरुआत की।

समितियाँ :-
1. बाल अध्ययन समिति
2. बाल कल्याण समिति की स्थापना।

● बाल अध्ययन आन्दोलन का जनक :– स्टेनले हॉल

● बाल विकास का प्रश्नावली विधि से सर्वप्रथम अध्ययन स्टेनले हॉल ने किया।

● पत्रिका :- पेडोगोजिकल सेमीनरी (Pedagogical Seminary)

● प्रथम बाल सुधार गृह :- न्यूयॉर्क (अमेरिका), 1887 ई. में

● प्रथम बाल निर्देशन :- विलियम हिली, शिकागो में, 1909 में

● भारत में बाल विकास की शुरुआत :- वर्ष 1930 में, ताराबाई मोडेक द्वारा।

● वर्ष 1920 में गिजूभाई बधेका ने गुजरात में बाल मंदिर संस्था की स्थापना की।

● एक बालक के गर्भावस्था से लेकर जन्म के बाद की विभिन्न अवस्थाओं में होने वाले विकास का अध्ययन बाल विकास कहलाता है।

● परिभाषाएँ :-
1. क्रो एण्ड क्रो :- “गर्भावस्था के प्रारम्भ से लेकर किशोरावस्था तक बालक के व्यवहार में होने वाले परिवर्तनों का अध्ययन ही बाल विकास है।”

2. बर्क :- “बाल विकास मनोविज्ञान की वह शाखा है जिसमें व्यक्ति की जन्म पूर्व अवस्था से परिपक्व अवस्था तक होने वाले परिवर्तनों का अध्ययन किया जाता है।”

3. जेम्स ड्रेवर :- “बालमनोविज्ञान, मनोविज्ञान की वह शाखा है, जिसमें जन्म से परिपक्वास्था तक विकसित हो रहे मानव का अध्ययन किया जाता है।”

4. फ्रॉबेल :- “बालक स्वयं विकासोन्मुख होने वाला पौधा है।”

5. वेबस्टर शब्द कोष :- “विकास परिवर्तनों की वह शृंखला है, जिसमें जीव भ्रूणावस्था से परिपक्वता की अवस्था तक पहुँचता है।”

6. वुडवर्थ :- “एक बालक का विकास उसके वंशानुक्रम एवं वातावरण का गुणनफल होता है।”
विकास = वंशानुक्रम×वातावरण
(D= H×E)

7. मुनरो :- “विकास परिवर्तन शृंखला की वह अवस्था है जिसमें बच्चा भ्रूण अवस्था से प्रौढ़ अवस्था तक गुजरता है।”

8. हरलॉक :- “विकास व्यक्ति में नवीन विशेषताओं व योग्यता को प्रस्फुटित करता है।”

9. फ्रेंक :- “कोशिकीय गुणात्मक वृद्धि ही अभिवृद्धि है।”

10. गैसेल :- “विकास अभिवृद्धि के सम्प्रत्यय की अपेक्षा अधिक व्यापक है। इसका अवलोकन, मूल्यांकन एवं कुछ सीमा तक तीन रूपों- शरीर रचनात्मक, शरीर क्रियात्मक एवं व्यवहारात्मक में मापन किया जा सकता है। व्यवहारात्मक संकेत ही विकास के सर्वाधिक व्यापक परिचायक होते हैं।”

11. .बीहरलॉक :- “विकास अपेक्षाकृत अभिवृद्धि होने तक सीमित नहीं होता अपितु ऐसे प्रगतिशील परिवर्तनों में निहित है जो परिपक्वता के लक्ष्य की ओर व्यवस्थित रूप से उन्मुख होते हैं।”

12. सोरेन्सन :- “विकास का अभिप्राय परिपक्वता तथा कार्यपरक सुधार की वह प्रक्रिया है जो संरचना एवं स्वरूप में हो रहे गुणात्मक तथा परिमाणात्मक परिवर्तनों के फलस्वरूप होती है। विकास, अभिवृद्धि की अपेक्षा गुणात्मक परिवर्तन का विशिष्ट द्योतक है।”

● विकास में वंशानुक्रम एवं वातावरण की भूमिका :- बालक के विकास में वंशानुक्रम एवं वातावरण की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

● मानव विकास आनुवंशिकता (Heredity) तथा वातावरण की अन्त:क्रिया का प्रतिफल है।

● वंशानुक्रम व वातावरण एक-दूसरे के पूरक हैं।

● वंशानुक्रम (Heredity) :- माता-पिता से पीढ़ी-दर-पीढ़ी संतानों में गुणों का आगमन ही वंशानुक्रम है।
1. बीएनझा :- “वंशानुक्रम, व्यक्ति की जन्मजात विशेषताओं का पूर्ण योग है।”
2. वुडवर्थ :- “वंशानुक्रम में वे सभी बातें आ जाती हैं जो जीवन के आरम्भ के समय नहीं वरन् गर्भाधान के समय (जन्म से लगभग नौ माह पूर्व) उपस्थित थी।”
3. जेम्स ड्रेवर :- “माता-पिता की शारीरिक एवं मानसिक विशेषताओं का संतानों में हस्तांतरण होना वंशानुक्रम है।”
4. रुथ बेनेडिक्ट :- “वंशानुक्रम माता-पिता से संतान को प्राप्त होने वाले गुणों का नाम है।”
5. सोरेन्सन :- “पित्र्यैंक बच्चों की प्रमुख विशेषताओं एवं गुणों को निर्धारित करते हैं।”
6. जीवशास्त्र के अनुसार :- “निषिक्त अण्ड में सम्भाव्य उपस्थित विशिष्ट गुणों का योग ही वंशानुक्रम है।”

● मानव जीवन का प्रारंभ :- मानव शरीर कोषों (Cells) का योग होता है। शरीर का आरम्भ केवल एक कोष से होता है, जिसे संयुक्त कोष (Zygote) कहते हैं।

● संयुक्त कोष, दो उत्पादक कोषों से बना होता है। जिनमें पिता की ओर से आने वाले अर्द्धकोष (पितृकोष) एवं माता की ओर से आने वाले अर्द्धकोष (मातृकोष) दोनों के संयोग से संयुक्त कोष का निर्माण होता है।

● एक मानव कोशिका में कुल 46 गुणसूत्र होते हैं।

● संयुक्त कोष (एक कोशिका) से ही जीवन प्रारम्भ होता है।
● गुणसूत्र का आकार धागे के समान लम्बा होता है।
● मानव शरीर के प्रत्येक कोशिका के केन्द्रक से 46 गुणसूत्र (23 जोड़ी) पाए जाते हैं।
● प्रत्येक गुणसूत्र (क्रोमोसोम्स) में जीन्स पाए जाते हैं जिनमें आनुवंशिक गुण संचित होते हैं। जीन्स को वंशानुक्रम निर्धारक कहते हैं। यही जीन्स शारीरिक व मानसिक गुणों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को पहुँचाते हैं।

● मानव शरीर एवं लिंग निर्माण में वंशक्रम की भूमिका :-

● लिंग निर्धारण (बालकबालिका)
माता पिता
↓ ↓

xx xy

गुणसूत्र-

x + x = xx (बालिका)
x + y = xy (बालक)

● x गुणसूत्र सदैव लम्बे एवं y गुणसूत्र गोल/बौना होता है।

● गुणसूत्र में एक विशेष संरचना होती है, जिसे जीन्स कहते हैं, इन्हीं जीन्स द्वारा माता-पिता अपने गुण संतानों में हस्तांतरित करते हैं।

● आनुवंशिकता की मूलभूत इकाई :- जीन्स।

● गुणसूत्र की विसंगतियाँ :-

1. डाउन संलक्षण (Down Syndrome) :- यह एक जेनेटिक डिसऑर्डर है, इसे ट्रीजोमी-21(Trisomy)’ कहते हैं।
● इसमें गुणसूत्र के 21वें जोड़े में एक अतिरिक्त गुणसूत्र पाया जाता है जिससे गुणसूत्र की संख्या 47 हो जाती है।
● यह एक प्रकार का मानसिक मंदता का उदाहरण है।

2. टर्नर संलक्षण (Turrener Syndrome) :- XO की असामान्यता। यह केवल महिलाओं में पाया जाता है। जिसमें गुणसूत्र के 23वें जोड़े में केवल एक गुणसूत्र x ही होता है। जिससे गुणसूत्रों की संख्या 45 हो जाती है। XO की असामान्यता में महिला होते हुए भी उसमें महिला का गुण नहीं पाया जाता है तथा वह बाँझ होती है। इसे मोनोजोमी-23 (Monosomy-23) कहते हैं।

3. क्लाइनफेल्टर संलक्षण :- यह पुरुषों के यौन गुणसूत्र से उत्पन्न असामान्यता से संबद्ध है। इसमें 23वें गुणसूत्र में एक अतिरिक्त गुणसूत्र पाया जाता है- xxy।
● इसे ट्रीजोमी-23 (Trisomy-23) कहते हैं।
● इसमें व्यक्ति देखने में तो पुरुष जैसा होता है लेकिन अप्रजायी होता है।

Note :- xyy की असामान्यता होने पर पुरुष अपराधी हो जाता है।

वंशानुक्रम का बालक के विकास पर प्रभाव :
1. मूल-शक्तियों पर प्रभाव :- थॉर्नडाइक का मत है कि बालक की मूल शक्तियों का प्रधान कारण उसका वंशानुक्रम है।

2. शारीरिक लक्षणों का प्रभाव :- ‘कार्ल पीयरसन’ का मत है माता-पिता की लम्बाई, रंग आदि का प्रभाव पड़ता है।

3. प्रजाति की श्रेष्ठता पर प्रभाव :- ‘क्लिनबर्ग’ ने बुद्धि की श्रेष्ठता का कारण प्रजाति है। उनके अनुसार अमेरिका की श्वेत प्रजाति, नीग्रो प्रजाति से श्रेष्ठ है।

4. व्यावसायिक योग्यता पर :- ‘कैटल’ का मत था कि व्यावसायिक योग्यता का मुख्य कारण वंशानुक्रम है।

5. सामाजिक स्थिति पर :- ‘विनशिप’ने अध्ययन।
● रिचर्ड एडवर्ड परिवार का।

6. चरित्र पर प्रभाव :- ‘डगलस’ का मत था कि चरित्रहीन माता-पिता की संतान चरित्रहीन होती है।
● ज्यूक परिवार का अध्ययन।

7. महानता पर प्रभाव :- गाल्टन के अनुसार व्यक्ति की महानता का कारण उसका वंशानुक्रम है।

8. बुद्धि पर प्रभाव :- गोडार्ड का विचार है कि वंशानुक्रम का प्रभाव बुद्धि पर पड़ता है।
 कैलीकॉक परिवार का अध्ययन।
Note :- अपराधी वंशानुक्रम नहीं है।

वंशानुक्रम के नियम (सिद्धांत)
1. बीजकोषों की निरन्तरता/अमरता/जनन द्रव्य का सिद्धांत :-
● बीजमैन ने।
● प्रयोग – चूहों पर।
● बीजकोष कभी नष्ट नहीं होता है वह पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहता है। माता-पिता की मृत्यु के बाद भी संतानों के रूप में अमर रहता है, इसलिए इसे अमरता का सिद्धांत भी कहते हैं।
● बीजमैन ने कुछ चूहें पाले और फिर कई पीढ़ियों तक पैदा होने वाले चूहों की पूँछ काटता रहा परन्तु कभी भी बिना पूँछ वाली संतान पैदा नहीं हुई। अत: बीजकोष कभी नष्ट नहीं होता है।

2. अर्जित गुणों के संक्रमण का नियम :-
● लेमार्क ने।
● जिराफ की गर्दन का उदाहरण।
● इस नियम के अनुसार व्यक्तियों द्वारा अपने जीवन में जो कुछ भी अर्जित किया जाता है, वह उनके द्वारा उत्पन्न संतानों में भी संक्रमित हो जाता है।
● लेमार्क ने जिराफ की गर्दन का उदाहरण देते हुए कहा कि जिराफ की गर्दन पहले बहुत कुछ घोड़े के समान थी, परन्तु कुछ विशेष परिस्थितियों के कारण लम्बी हो गई और कालान्तर में उसकी लम्बी गर्दन का गुण अगली पीढ़ी में संक्रमित होने लगा।

3. मौलिक गुणों का सिद्धांत/वर्ण संकरता/वियोग/प्रभाव का नियम:-
● प्रतिपादन :- मेण्डल ने (ग्रेगर जॉन मेण्डल)
● मेण्डल चेकोस्लोवाकिया में चर्च में पादरी थे।
● मटर (-पाइसम सेटाइवम) के दानों पर प्रयोग। इसके अलावा हिरासियम के पौधे पर भी प्रयोग किया।
● आनुवंशिकता का आधारभूत नियम।
● इस नियम के अनुसार, वर्णसंकर प्राणी या वस्तुएँ अपने मौलिक या सामान्य रूप की ओर अग्रसर होती है।
● लगभग तीसरी पीढ़ी तक आते-आते वास्तविक गुण प्रकट हो जाते हैं।
● मेण्डल ने लम्बे पौधे वाले तथा बौने पौधे वाले मटर के बीजों को एक साथ बोया और फिर उन्होंने जो परिणाम प्राप्त किए, उसमें देखा कि प्राप्त होने वाले अगली पीढ़ी के पौधे संकर या औसत लम्बाई के थे और फिर इन बीजों को दुबारा बोया गया तब पैदा होने वाले अगली पीढ़ी के पौधों में 50% संकर थे और 25.25% क्रमश: लम्बे व बौने हो गए थे।
जब 50% संकर बीजों को तीसरी बार बोया गया तो आधे लम्बे व आधे बौने पौधे हो गए, एक भी संकर नहीं बचा।
अत: तीसरी पीढ़ी तक आते-आते उनमें जन्मजात मौलिक गुण वापस प्रकट हो जाते हैं।

मेण्डल के दो उपनियम :-
1. प्रभावशीलता/प्रधानता का नियम
2. अलगाव/पृथक्ता का नियम

4. गाल्टन का बायोमेट्री सिद्धांत :-
● गाल्टन ने।
● गाल्टन ने अपनी सांख्यिकी-विधियों की सहायता से यह निष्कर्ष निकाला कि केवल वर्तमान माता-पिता ही नहीं बल्कि बालक के सभी पूर्वज घटते हुए प्रभाव में कुछ न कुछ योगदान बालक को देते हैं।

● इसी क्रम में पूर्व की पीढ़ियों में क्रमश: आधे होते जाते हैं तथा एक सीमा तक शून्य हो जाते हैं।

5. समानता/समान प्रतिमान/समरूपता का नियम :-
● सोरेन्सन ने।
● सोरेन्सन के अनुसार :- “बुद्धिमान माता-पिता के बच्चे बुद्धिमान, साधारण माता-पिता के बच्चे साधारण और मंदबुद्धि माता-पिता के बच्चे मंदबुद्धि होते हैं।”
● इसी प्रकार, शारीरिक संरचना की दृष्टि से भी बच्चे माता-पिता के समान होते हैं। अर्थात् जैसे माता-पिता होते हैं, वैसी ही संतान होती है। जैसे- मनुष्य के मनुष्य, पक्षी के पक्षी।

6. विभिन्नता का नियम :-
● डार्विन व लेमार्क ने प्रयोग (प्राकृतिक चयन का सिद्धांत)
● बालक अपने माता-पिता के बिल्कुल समान न होकर उनसे कुछ भिन्न होते हैं। एक ही माता-पिता के बालक एक-दूसरे के समान होते हुए भी बुद्धि, रंग, रूप और स्वभाव में एक-दूसरे से भिन्न होते हैं।

7. प्रत्यागमन का नियम :-
● कभी-कभी संतानों में माता-पिता से ठीक विपरीत गुण प्रकट हो जाते हैं।
● सोरेन्सन ने भी इसका समर्थन करते हुए लिखा कि- “बहुत प्रतिभाशाली माता-पिता के बच्चों में कम प्रतिभा होने की प्रवृत्ति और बहुत मंद माता-पिता के बच्चों में कम मंदता होने की प्रवृत्ति ही प्रत्यागमन है।”
● इस नियम के अनुसार बालक अपने माता-पिता के विशिष्ट गुणों को त्याग कर सामान्य गुणों को ग्रहण करते हैं।
जैसे- हिरण्यकश्यप राजा के प्रह्लाद का जन्म।

वातावरण (Environment)

● एक बालक के विकास में प्राकृतिक एवं सामाजिक कारकों का जो प्रभाव देखा जाता है, उसे ही वातावरण कहते हैं।
● परि+ आवरण = पर्यावरण

परि का अर्थ :- चारों ओर एवं आवरण का अर्थ – ढकने वाला। अर्थात् वातावरण वह कारक है जो हमें चारों ओर से ढके या घेरे हुए हैं।

परिभाषाएँ:-
1. वुडवर्थ :- “ वातावरण में वे सब बाह्य तत्त्व आ जाते हैं जो व्यक्ति को जीवन आरम्भ करने के समय से प्रभावित करते हैं।”

2. रॉस :- “वातावरण वह बाह्य शक्ति है जो हमें प्रभावित करती है।”

3. जिम्बर्ट :- “वे सभी वस्तुएँ जो हमें चारों ओर से घेरे हैं एवं जीवनपर्यन्त प्रभावित करती है, वातावरण कहलाती है।”

4. बोरिंग, लैंगफील्ड वेल्ड :- “ पित्र्यैकों के अलावा व्यक्ति को प्रभावित करने वाली वस्तु वातावरण है।”

5. एनास्टसी :- “ वातावरण वह हर वस्तु है जो व्यक्ति के पित्र्यैकों के अतिरिक्त प्रत्येक वस्तु को प्रभावित करती है।”

6. डगलस तथा हॉलैण्ड :- “वातावरण वह शब्द है जो समस्त बाह्य शक्तियों, प्रभावों तथा परिस्थितियों का सामूहिक रूप से वर्णन करता है जो जीवधारी के जीवन स्वभाव, व्यवहार व अभिवृत्ति, विकास तथा प्रौढ़ता पर प्रभाव डालता है।”

● एक बालक के विकास पर जितना प्रभाव वंशानुक्रम का होता है, उतना ही प्रभाव वातावरण का भी होता है। इस सन्दर्भ के वुडवर्थ ने लिखा कि “एक बालक का विकास उसके वंशक्रम एवं वातावरण का गुणनफल होता है।”
विकास = आनुवंशिकता× वातावरण

● कुछ विशेषताएँ :-
1. वातावरण व्यक्ति को प्रभावित करने वाला तत्त्व है।
2. इसमें बाह्य तत्त्व आते हैं।
3. वातावरण किसी एक तत्त्व का नहीं बल्कि एक समूह तत्त्व का नाम है।
4. यह वह हर वस्तु है, जो व्यक्ति को प्रभावित करती है।

● बालक पर वातावरण का प्रभाव :-
1. शारीरिक विकास पर प्रभाव – फ्रेंज बोन्स के अनुसार शारीरिक विभिन्नता का कारण वंशानुक्रम न होकर वातावरण है।

2. मानसिक विकास पर – गोर्डन का मत है कि उचित सामाजिक और सांस्कृतिक वातावरण न मिलने के कारण मानसिक विकास की गति धीमी हो जाती है। अलग वातावरण में रहने से रामू भेड़िये, अमला और कमला व काशपर हौजर आदि उदाहरणों से यह सिद्ध हो गया है कि उचित वातावरण न मिलने से मानसिक विकास की गति बहुत धीमी हो जाती है और उचित वातावरण मिलने से बौद्धिक विकास की गति तेज हो जाती है।

3. प्रजाति की श्रेष्ठता पर प्रभाव – क्लार्क के अनुसार कुछ प्रजातियों की श्रेष्ठता का कारण वंशानुक्रम न होकर वातावरण है।

4. व्यक्तित्व पर प्रभाव – कूले का मत है कि व्यक्तित्व के निर्माण में वंशानुक्रम की अपेक्षा वातावरण का अधिक प्रभाव पड़ता है।

5. जुड़वा बच्चों पर प्रभाव – न्यूमैन, फ्रीमैन और होलजिंगर ने 20 जोड़े जुड़वा बालकों को अलग-अलग वातावरण में रखकर उनका अध्ययन किया। बड़े होने पर इन जुड़वा बालकों में बहुत असमानता पाई गई है। यह असमानता उनकी सोच, बुद्धि और व्यवहार से संबंधित थी।

6. बुद्धि पर प्रभाव।

7. बालक के सर्वांगीण विकास पर प्रभाव।

● प्रमुख वातावरणीय कारक/तत्त्व :-
1. जन्म स्थान :- किसी भी बालक का विकास उसके जन्म स्थान से संबंधित तत्त्वों से प्रभावित होता है।

2. जन्म क्रम :- मध्य जन्म क्रम के बालक का विकास अच्छा होता है, प्रथम एवं अन्तिम बालक की अपेक्षा।

3. परिवार का वातावरण :- किसी भी बालक का जन्म जिस परिवार में होता है उस परिवार का वातावरण माता-पिता का व्यवहार, आवश्यकताओं की पूर्ति आदि उसके विकास को प्रभावित करते हैं जिससे शारीरिक, मानसिक, सामाजिक एवं नैतिक विकास प्रभावित होता है।

4. विद्यालय का वातावरण :- विद्यालय का भौतिक, शैक्षिक वातावरण, शिक्षक का व्यवहार, छात्र-अध्यापक संबंध आदि बालक के सर्वांगीण विकास को प्रभावित करते हैं।

5. सामाजिक वातावरण :- परिवार, समाज की सांस्कृतिक सामाजिक पृष्ठभूमि, रीति-रिवाज, परम्पराएँ, शिक्षा आदि बालक के विकास को प्रभावित करते हैं।

6. पोषण :- बालक को अवस्था के अनुसार सर्वांगीण विकास के लिए पर्याप्त संतुलित भोजन बालक के विकास को प्रभावित करता है।

7. मित्र-मण्डली :- बालक जिस मित्र-मण्डली में रहता है उनके आचरण एवं व्यवहार उनके विकास के प्रभावित करता है।

8. खेल-मैदान :- बालक के शारीरिक, मानसिक विकास, सामाजिक आदि विकास में खेल-मैदान का विशेष महत्त्व है। बालक के समाजीकरण में खेल मैदान विशेष भूमिका निभाता है।

9. भौगोलिक वातावरण :- मरुस्थल, मैदान, पहाड़ भूमध्य, रेखा से समीपता, दूरी जैसा भौगोलिक वातावरण भी एक बालक के विकास को प्रभावित करता है।

अन्य कारक (विकास को प्रभावित करने वाले)
1. बुद्धि का प्रभाव।
2. लिंग का प्रभाव।
3. शिक्षा।
4. अन्त: स्त्रावी ग्रन्थियों का प्रभाव।
5. मनोवैज्ञानिक कारक – आदत, अभिरुचि, आत्म सम्प्रदाय आदि।
6. परिपक्वता व अधिगम

● वुडवर्थ :- वंशानुक्रम आत्मा है व वातावरण शरीर है।
● विकास व्यक्तिगत प्रक्रिया है।
● वंशानुक्रम एवं वातावरण एक-दूसरे के पूरक हैं एवं दोनों का समान महत्त्व है।
● विकास की प्रत्येक अवस्था में जोखिम होता है।
● विकास सांस्कृतिक परिवर्तनों से प्रभावित होता है।
● विकास ऐतिहासिक दशाओं से प्रभावित होता है।

वृद्धि और विकास की अवधारणा (Growth and Development) :-
● सामान्यतया अभिवृद्धि (Growth) एवं विकास को एक ही मान लिया जाता है जबकि दोनों में पर्याप्त अन्तर है।
● अभिवृद्धि शब्द का प्रयोग सामान्यत: शरीर और उसके अंगों के भार और आकार में वृद्धि के लिए किया जाता है इसे नापा और तोला जा सकता है।
● विकास का अर्थ मानव शरीर के अंगों एवं सम्पूर्ण प्रकार के विकास शारीरिक, सामाजिक, नैतिक मानसिक, संवेगात्मक परिवर्तन आदि है।
● प्रारम्भिक विकास परवर्ती विकास से अधिक महत्त्वपूर्ण होता है।
● विकास और अभिवृद्धि की प्रक्रियाएँ बालक के गर्भाधान से ही आरम्भ हो जाती है।
● हडि्डयों का आकार बढ़ना वृद्धि है लेकिन अस्थिकरण की प्रक्रिया से कड़ी हो जाना विकास है।
● विकास में वृद्धि एवं हृास दोनों शामिल है।
● विकास लचीला व संशोधनीय होता है।
● विकास संचयी होता है।
● विकास में अधिगम व परिपक्वता की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।
● PSRN (समस्या हल, तार्किकता व आंकिक क्षमता) का संबंध अभिवृद्धि व विकास से है।
● हरलॉक ने विकास में 4 परिवर्तन शामिल किए-
1. आकार में परिवर्तन। 2. अनुपात में परिवर्तन।
3. पुराने चिह्नों का लोप। 4. नवीन चिह्नों का उदय।
● अभिवृद्धि व विकास एक-दूसरे के पूरक हैं।
● वृद्धि और विकास की प्रक्रिया साथ-साथ चलती हैं।
● विकास सार्थक वृद्धि के अभाव में भी संभव है।
● विकास एक सुव्यवस्थित क्रम में होता है।
● प्रत्येक विकासात्मक अवस्थाओं में कुछ सामाजिक प्रत्याशाएँ होती हैं अर्थात् समाज बच्चों से उनकी उम्र के अनुसार कुछ उम्मीद करता है जिसे सामाजिक प्रत्याशा कहते हैं। हैविंगहर्स्ट ने इसे विकासात्मक पाठ (Development Task) कहा है।

अभिवृद्धि व विकास में अन्तर

क्र.अभिवृद्धि (Growth)विकास (Development)
1.मात्रात्मक परिवर्तनमात्रात्मक+गुणात्मक दोनों
2.एक पक्षीय (शारीरिक)बहुपक्षीय (शारीरिक, सामाजिक, मानसिक, नैतिक संवेगात्मक, गामक)
3.संकुचित अवधारणाव्यापक अवधारणा
4.निर्धारित समय तकजीवनपर्यन्त/सतत
5.मापन संभव हैमापन संभव नहीं
6.प्रत्यक्ष देखा जा सकता है।केवल अनुभव किया जा सकता है।
7.अभिवृद्धि में रचनात्मक परिवर्तन होते हैं।विकास में रचनात्मक एवं विनाशात्मक दोनों परिवर्तन होते हैं।
8.वृद्धि सम्पूर्ण विकास प्रक्रिया का एक अंग है अर्थात् विकास में वृद्धि होती है।विकास शब्द एक विस्तृत अर्थ रखता है।
9.अभिवृद्धि रेखीय होती है।विकास वर्तुलाकार होता है।
10.अभिवृद्धि एकीकृत नहीं होती है।विकास एकीकृत होता है।
11.दिशा निश्चित नहीं।दिशा निश्चित होती है। (सिर से पैर की ओर तथा केन्द्र से दूर की ओर)
12.संरचना में सुधारसंरचना व कार्य में सुधार


अभिवृद्धि और विकास के सिद्धांत :-
1. सतत/निरन्तर विकास का सिद्धांत (Continuous Development) :- यह सिद्धांत बताता है विकास एक न रुकने वाली प्रक्रिया है। विकास माँ के गर्भ से ही प्रारम्भ हो जाता है और जीवन-पर्यन्त सतत रूप से चलता रहता है। (गर्भधारण से मृत्युपर्यन्त)

2. सामान्य से विशिष्ट की ओर :- इस सिद्धांत के अनुसार बालक का विकास सामान्य क्रियाओं से विशिष्ट क्रियाओं की ओर अग्रसर होता है।
● उदाहरणार्थ, नवजात शिशु पहले किसी वस्तु को पकड़ने के लिए इधर-उधर हाथ मारने या फैलाने की क्रिया करता है तत्पश्चात उसी वस्तु को पकड़ने के लिए सीधा हाथ का प्रयोग करता है अर्थात् बालक पहले सामान्य क्रियाएँ सीखता है फिर विशिष्ट। जैसे- करवट बदलना, पकड़ना, घुटनों के बल चलना, दो पैरों पर खड़े होना फिर चलना।

3. समान प्रतिमान का सिद्धांत :- इस सिद्धांत के बारे में हरलॉक ने कहा है कि- “प्रत्येक जाति, चाहे वह पशु हो या मानव जाति, अपनी जाति के अनुरूप विकास के प्रतिमान का अनुसरण करती है। अत: समस्त मनुष्य जाति का विकास एक ही क्रम में होता है।”

4. परस्पर संबंध का सिद्धांत :- इस सिद्धांत के अनुसार, बालक के शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक आदि पहलुओं के विकास में परस्पर संबंध होता है। बालक में किसी भी एक प्रकार का विकास अन्य विकासों को परस्पर प्रभावित होता है। जिन बच्चों में औसत से अधिक बुद्धि होती है, वे शारीरिक और सामाजिक दृष्टि से भी काफी आगे बढ़े हुए होते हैं। दूसरी ओर एक क्षेत्र में पाई जाने वाली न्यूनता दूसरे क्षेत्र से हो रही प्रगति में बाधक सिद्ध होती है।
● यही कारण है कि शारीरिक दृष्टि से पिछड़े बालक संवेगात्मक, सामाजिक और बौद्धिक विकास से भी पिछड़े रह जाते हैं।

5. वैयक्तिक भिन्नता का सिद्धांत :- प्रत्येक बालक में होने वाला विकास और अभिवृद्धि उनकी वैयक्तिक भिन्नता के अनुरूप अलग-अलग होती है। प्रत्येक बालक के विकास की गति व दर अलग-अलग होती है।

6. विकास क्रम की एकरूपता (निश्चित क्रम) :- बालक का विकास जैसे- भाषा विकास (LSRW), गामक विकास आदि एक निश्चित क्रम में होता है अर्थात् विकास क्रम में एकरूपता होती है। जैसे- सभी मनुष्यों का विकास सिर से पैर की ओर होता है।

7. विकास की दिशा का सिद्धांत :- विकास की प्रक्रिया पूर्व-निश्चित दिशा में आगे बढ़ती है।
● बालक का विकास मस्तकाधोमुखी (सिर से पैर की ओर लम्बवत्) होता है। कुप्पुस्वामी ने इसकी व्याख्या करते हुए Cephalo-Caudal क्रम कहा। (शिर : पदाभिमुख)
● विकास केन्द्र से प्रारम्भ होकर बाहर (दूर) की ओर होता है जिसे केन्द्र से दूर की ओर (Proximo-Distal) क्रम कहते हैं। (समीप – दुराभिमुख)
उदाहरण के लिए पहले रीढ़ की हड्‌डी का विकास होता है उसके बाद भुजाओं, अँगुलियों और सम्पूर्ण विकास होता है।
● जन्म पूर्व काल विकसित होने वाले अंगों का सही क्रम : होठ → आँख → गर्दन → कंधा → हाथ → धड़ → टांग → पैर।

8. वर्तुलाकार विकास का सिद्धांत :- विकास लम्बवत् सीधा (Liner) न होकर वर्तुलाकार (Spiral) होता है। वह एक सी गति से सीधा चल कर विकास को प्राप्त नहीं करता, बल्कि बढ़ते हुए पीछे हटकर अपने विकास को परिपक्व और स्थायी बनाते हुए आगे बढ़ता है।

9. वंशानुक्रम व वातावरण की अंत:क्रिया :- बालक का विकास न केवल वंशक्रम के कारण और न केवल वातावरण के कारण, वरन् दोनों की परस्पर अंत:क्रिया का परिणाम है।

10. एकीकरण का सिद्धांत :- इसके अनुसार बालक पहले सम्पूर्ण अंग को और फिर अंग के भागों को चलाना सीखता है। उसके बाद वह उन भागों में एकीकरण करना सीखता है।

उदाहरण :– पहले सम्पूर्ण हाथ, फिर अँगुलियों को और फिर हाथ एवं अँगुलियों को एक साथ चलाना सीखता है।

11. विकास की गति का सिद्धांत :- विकास की गति सभी अवस्थाओं में एक सी नहीं रहती है अर्थात् शैशवावस्था में तीव्र, बाल्यावस्था में मंद फिर किशोरावस्था में तीव्र गति से होता है।

12. विकास की भविष्यवाणी (पूर्वानुमेयसिद्धांत :- पूर्ववर्ती विकास के आधार पर परवर्ती विकास की भविष्यवाणी की जा सकती है।

विकास की विभिन्न अवस्थाएँ :-
A. गर्भावस्था (280 दिन/9 माह) :- सबसे पहले गर्भधारण के समय बीज (शुक्राणु) अण्डाणु में प्रवेश करता है और युक्ता नामक आकृति बनाता है। युक्ता आकृति में अण्डाणु के आवरण में बीज सुरक्षित रहता है। इस समय बनने वाली आकृति Zygote नामक एक कोशिका होती है।
● बीज को योंक नामक पदार्थ से पोषण की प्राप्ति होती है जो अण्डे की दीवार से एक तरल पदार्थ के रूप में स्त्रावित होता है।
● लगभग 15 दिन तक बीज इसी अवस्था में रहते हुए विकसित होता है इस अवस्था को बीजावस्था कहते हैं।
● 16वें दिन अण्डा फूट जाता है और भ्रूण के रूप में बीज बाहर निकल जाता है इस समय इसमें लगभग 32 कोशिकाएँ होती है।
● भ्रूण अपरा/नाल/प्लेसेंटा नामक आकृति के संयोग से माँ के गर्भ की दीवार के चिपक जाता है और गर्भ की दीवार के सहारे-सहारे बहुत तेजी से चक्कर लगाने लगता है तथा इसका आकार भी बड़ा होने लगता है और गर्भकाल के दो माह पूरे होने तक लगभग सभी अंग बनने शुरू हो जाते हैं।
Note :- सबसे पहले सिर का निर्माण शुरू होता है।
● भ्रूण 3 परतों से बनी आकृति होती है जो परतें एवं उनसे बनने वाले अंग निम्न है-
1. एक्टोडर्म (सबसे ऊपरी परत) :- त्वचा, बालों का निर्माण,
2. मीसोडर्म (मध्यम परत) :- मांसपेशियाँ
3. एण्डोडर्म (सबसे अन्दर की परत) :- हृदय, मस्तिष्क
● भ्रूणावस्था के लगभग अन्तिम दौर में सिर, मस्तिष्क, हृदय, हाथ, पैर जैसे अंग बनने लग जाते हैं।
● गर्भकाल के 6 माह के समय तक बालक पूर्ण शिशु बन जाता है और बाह्य वातावरण से प्रभावित होने लगता है।
● गर्भकाल में 6 से 9 माह के बीच शिशु पूर्ण परिपक्वता को प्राप्त कर लेता है तथा लगभग 280 दिन होते-होते बालक जन्म लेता है।
● गर्भधारण के लिए प्रोजेस्ट्रोन हॉर्मोन जिम्मेदार होता है।
● गर्भकाल के समय जब शिशु परिपक्व हो जाता है तो गर्भ की दीवार से ऑक्सीटोसिन हॉर्मोन स्त्रावित होने लगता है जिसमें गर्भ की दीवार में तीव्रता के साथ संकुचन होने लगता है जिससे शिशु के जन्म की परिस्थितियाँ बनती है।
● गर्भ की दीवार में संकुचन के कारण प्लेसेंटा का सम्पर्क गर्भ की दीवार से टूट जाता है और प्लेसेंटा में रिलेक्सीन हार्मोन स्त्रावित होने लगता है जो जनन नाल को बड़ी करते हुए प्रसव में सहयोग करता है।
● प्रसवपूर्व अवस्था में विकास के लिए भय का दूसरा स्रोत विरूपजन तत्त्व (Teratogens) गंभीर असमानता को जन्म देते हैं। मृत्यु भी हो सकती है। यथा- मादक द्रव्य, संक्रमण, विकिरण, प्रदूषण।

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Note:-
(i) अधिकतम गर्भकाल की अवधि 330 दिन व न्यूनतम 180 दिन हो सकती है।
(ii) बालक की अपेक्षा बालिका का गर्भकाल अधिक होता है।
(iii) गर्भकाल के 5वें माह में शिशु में दाँतों का निर्माण शुरू हो जाता है।

Note :-
1. विकासात्मक अवस्थाएँ अस्थायी मानी जाती हैं।
2. कोल नाम विद्वान ने विकास की 12 अवस्थाएँ बताईं।

अवस्थाओं का साामान्य वर्गीकरण :-
1. शैशवावस्था :- जन्म से 5/6 वर्ष तक
2. बाल्यावस्था :- 6 से 12 वर्ष
3. किशोरावस्था :- 12 से 18/19 वर्ष
4. प्रौढ़ अवस्था :- 19 वर्ष के बाद

रॉस के अनुसार :-
1शैशवावस्था :- 1- 3 वर्ष
2. पूर्व बाल्यावस्था :- 3 – 6 वर्ष
3. उत्तर बाल्यावस्था :- 6 -12 वर्ष
4. किशोरावस्था :- 12 – 18 वर्ष

B. शैशवावस्था (Infancy Period)
● जन्म से 5/6 वर्ष
Note :- हरलॉक के अनुसार – जन्म से 2 सप्ताह (14-15 दिन)

उपनाम :-
● सीखने का आदर्श काल :- वेलेन्टाइन
● तीव्र विकास की अवस्था :- वाटसन
● भावी जीवन की आधारशीला :- फ्रॉयड
● कल्पना लोक विचरण काल (कल्पना की सजीवता)
● खतरनाक/अपीली काल।
● अतार्किक चिन्तन की अवस्था
● अनुकरण एवं अनुसरण की अवस्था
● खिलौनों की अवस्था

Note :- खिलौनों का काल/आयु-पूर्व बाल्यावस्था।
● प्रबल जिज्ञासा काल।
● उदासीनता की अवस्था।
● नैतिक आचरण शून्यता की अवस्था (नैतिक अभाव)
● आत्मप्रेम (नार्सिसिज्म) की अवस्था
● प्राक् परिचालन अवस्था

विशेषताएँ :-
● मूल-प्रवृत्ति आधारित व्यवहार।
● दोहराने की प्रवृत्ति।
● दूसरों पर निर्भरता।
● शारीरिक व मानसिक विकास की तीव्रता।
● संवेगों की स्वाभाविक अभिव्यक्ति।
● स्वार्थी व आत्मकेन्द्रित।
● प्रबल काम प्रवृत्ति।
● रटने पर आधारित स्मृति।
● प्रतिवर्त व सहज क्रिया।
● उद्देश्य पूर्ण क्रिया प्रारम्भ (2 वर्ष से)
● आत्म गौरव

परिभाषाएँ:-
1. क्रो एण्ड क्रो :- “बीसवीं शताब्दी बालक की शताब्दी है।”

2. गुडएनफ :- “व्यक्ति का जितना भी मानसिक विकास होता है, उसका आधा तीन वर्ष की आयु में हो जाता है।”

3. न्यूमैन :- “पाँच वर्ष तक की अवस्था बालक के शरीर तथा मस्तिष्क के लिए बड़ी ग्रहणशील होती है।”

4. फ्रॉयड :- “मनुष्य को जो कुछ बनना होता है, वह 4-5 वर्ष में बन जाता है।”

5. स्ट्रैंग :- “जीवन के प्रथम दो वर्ष में बालक अपने भावी जीवन का शिलान्यास करता है।”

6. पियाजे :- “बच्चे संसार के बारे में अपनी समझ की रचना सक्रिय रूप से करते हैं।”

7. थॉर्नडाइक :- “3-5 वर्ष की आयु में बालक अर्धस्वप्न की अवस्था में रहता है।”

शैशवावस्था में शिक्षा का स्वरूप :-
● उचित वातावरण।
● उचित व्यवहार।
● जिज्ञासा की संतुष्टि।
● वास्तविकता का ज्ञान।
● अच्छी आदतों का निर्माण।
● मानसिक क्रियाओं का अवसर।
● अन्तर्निहित गुणों का विकास।
● मूल-प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन।
● क्रिया द्वारा शिक्षा (करके सीखना)
● खेल द्वारा शिक्षा।
● चित्रों व कहानियों द्वारा शिक्षा।
● आत्मनिर्भरता की शिक्षा।
● मातृभाषा का माध्यम।

C. बाल्यावस्था (Childhood)
उपनाम :- (5-6 वर्ष से 12 वर्ष)
● जीवन का अनोखा काल :- काल व ब्रुस
● टोली की अवस्था (गेंग एज)
● खेलों की अवस्था
● मिथ्या परिपक्वता काल/छद्म परिपक्वता :- जेएस. रॉस
● प्रतिद्वन्द्वात्मक समाजीकरण की अवस्था :- किलपैट्रिक
● जीवन का निर्माणकारी काल :- फ्रॉयड
● वैचारिक क्रिया काल
● मंद-परिवर्तनों का काल
● गंदी अवस्था
● ठोस (मूर्त) वस्तु विचार की अवस्था
● मूर्त परिचालन की अवस्था
● प्राक् स्कूल अवस्था (प्रारम्भिक बाल्यावस्था)
● विद्यालय की आयु
● उत्पाती अवस्था।
● बक्की अवस्था (प्रारम्भिक बाल्यावस्था)
● सारस अवस्था।
● पलटकर जवाब देने वाली अवस्था।
● निश्चितंता का काल।
● निरुद्देश्यपूर्ण भ्रमण की अवस्था।
● भाषा कौशल आधारभूत अवस्था।

विशेषताएँ :-
● शारीरिक व मानसिक स्थिरता।
● मानसिक योग्यताओं में वृद्धि।
● वास्तविकता की अवस्था।
● जिज्ञासा की प्रबलता।
● रचनात्मक (सृजनात्मक कार्यों) से संबंध/विधायकता
● सामाजिक गुणों का विकास
● नैतिक गुणों का विकास
● संग्रह करने की प्रवृत्ति
● निरूद्देश्य भ्रमण की प्रवृत्ति
● सामूहिक प्रवृत्ति की प्रबलता (समूह)
● सामूहिक खेलों में रुचि
● समलैंगिक मित्रता
● सुझावग्रहणशीलता।
● समाजीकरण की शुरुआत।

परिभाषाएँ :-
1. किलपेट्रिक :- “बाल्यावस्था प्रतिद्वन्द्वात्मक समाजीकरण की अवस्था है।”
2. स्ट्रैंग :- “ऐसा शायद ही कोई खेल हो, जिसे दस वर्ष का बालक न खेलता हो।”
3. फ्रॉयड :- “बाल्यावस्था जीवन का निर्माणकारी काल है।”
4. रॉस :- “बाल्यावस्था मिथ्या/छद्म परिपक्वता की अवस्था है।”
5. कॉल ब्रुस :- “बाल्यावस्था जीवन का अनोखा काल है।”

बाल्यावस्था में शिक्षा का स्वरूप :-
● जिज्ञासा की संतुष्टि।
● रोचक विषय- सामग्री।
● सामूहिक प्रवृत्ति की संतुष्टि।
● रचनात्मक/मौलिक कार्यों की व्यवस्था।
● पर्यटन व स्काउटिंग की शिक्षा।
● भाषा ज्ञान पर बल।
● पाठ्यसहगामी क्रियाओं की व्यवस्था।
● संचय प्रवृत्ति को प्रोत्साहन
● प्रेम व सहानुभूति पर आधारित।
● सामाजिक गुणों का विकास

D. किशोरावस्था (Adolescence)
● 12 वर्ष से 18/19 वर्ष

उपनाम :-
● जीवन का सबसे कठिन काल :- किलपैट्रिक
● टीन एज
● बसंत काल
● स्वर्ण काल/सुनहरी अवस्था
● परिपक्वता काल
● समवयस्क समूह काल(पीयर ग्रुप)
● पूर्ण मानसिक विकास काल
● अस्मिता भाव काल।
● घनिष्ठ मित्रता काल/व्यक्तिगत मित्रता
● सेवा काल।
● आत्म सम्मान की अवस्था।
● संघर्ष व तूफानों की अवस्था।
● समस्या अवस्था।
● अस्पष्ट वैयक्तिक काल।
● औपचारिक परिचालन की अवस्था।
● उलझन व अटपटी अवस्था।
● अपराध-प्रवृत्ति विकास।

विशेषताएँ :-
● अस्मिता के विकास के लिए महत्त्वपूर्ण समय।
● अधिकतम सीमा तक शारीरिक विकास।
● अधिकतम मानसिक विकास।
● दिवास्वप्न की प्रवृत्ति।
● वीर पूजा (नायक पूजा)।
● रुचियों में परिवर्तन।
● समाजसेवा की भावना।
● समूह के प्रति भक्ति।
● समायोजन का अभाव।
● संवेगों की अस्थिरता।
● स्वतंत्रता व विद्रोह की भावना।
● प्रबल काम-प्रवृत्ति।
● काल्पनिक श्रोता।
● व्यक्तिगत दन्त कथा (स्वयं को अद्वितीय समझना)।
● नेतृत्व का विकास।
● व्यवहार में विभिन्नता।
● आत्म सुरक्षा की भावना।
● विषमलिंगी आकर्षण (यौन परिपक्वता)।
● दिखावटीपन।
● पूर्ण सामाजिकता।
● परिपक्वता।
● बिछुड़ने का भय।
● अवास्तविकताओं का समय
● परिवर्ती अवस्था
● विशिष्टता की खोज का समय
● परिकल्पनात्मक निगमनात्मक तर्कणा
● बुद्धि का अधिकतम विकास

परिभाषाएँ :-
1. किलपैट्रिक :- “किशोरावस्था जीवन का सबसे कठिन काल है।”

2. स्टेनले हॉल :- “किशोरावस्था बड़े संघर्ष, तनाव, तूफान तथा विरोध की अवस्था है। (नया जन्म)”

3. क्रो एण्ड क्रो :- किशोर ही वर्तमान की शक्ति और भावी जीवन की आशा को प्रस्तुत करता है।

4. जरशील्ड :- “किशोरावस्था वह समय है जिसमें विचारशील व्यक्ति बाल्यावस्था से परिपक्वता की ओर संक्रमण करता है।”

5. विग व हण्ट :- “किशोरावस्था की विशेषताओं को सर्वोत्तम रूप से व्यक्त करने वाला एक शब्द है – परिवर्तन।”

6. वेलेन्टाइन :- “घनिष्ठ और व्यक्तिगत मित्रता उत्तर, किशोरावस्था की विशेषता है।”

7. हैडो कमेटी :- “11/12 वर्ष की आयु में बालक की नसों में ज्वार उठना शुरू हो जाता है। यदि इस ज्वार को सही दिशा दे दी जाए तो सफलता प्राप्त की जा सकती है।”

8. कॉलसनिक :- “किशोरावस्था के लोग प्रौढ़ों को अपने मार्ग की बाधा समझते हैं क्योंकि वे उन्हें लक्ष्य प्राप्ति से रोकते हैं।”

9. रॉस :- किशोरावस्था के लोग सेवा के आदर्शों की स्थापना एवं पोषण करते हैं।

10. फंक :- “किशोर विद्रोही भावना रखता है।”

11. रॉस :- “किशोरावस्था, शैशवावस्था की पुनरावृत्ति है।”

किशोरावस्था में शिक्षा का स्वरूप :-
● निर्देशन व परामर्श का प्रयोग।
● सामाजिक-संबंधों की शिक्षा।
● व्यक्तिगत विभिन्नताओं के अनुसार शिक्षा।
● जीवन-दर्शन की शिक्षा।
● नैतिक शिक्षा।
● यौन शिक्षा।
● किशोर के महत्त्व को मान्यता।
● उपयुक्त शिक्षण विधियों का प्रयोग।
● पूर्व-व्यावसायिक शिक्षा।
● शारीरिक व मानसिक विकास के लिए शिक्षा।
● अच्छे उदाहरण प्रस्तुत करना (स्वयं के)
● उत्तरदायित्व कार्य सौंपना।
● जीवन कौशल शिक्षा।
● नेतृत्व का प्रशिक्षण।

किशोरावस्था के सिद्धांत :-
(1) आकस्मिक विकास का सिद्धांत :-
● स्टेनले हॉल ने वर्ष 1904 में यह सिद्धांत दिया।
● पुस्तक :- एडोलेसेन्स (Adolescence) में।
● किशोर में जो भी परिवर्तन दिखाई देते हैं, वे एकदम (अकस्मात) होते हैं।
● स्टेनले हॉल का मत है- “किशोर में जो शारीरिक, मानसिक और संवेगात्मक परिवर्तन होते हैं, वे अकस्मात होते हैं।”

(2) क्रमिक विकास का सिद्धांत :-
● थॉर्नडाइक, किंग और हालिंगवर्थ ने।
● किशोर में शारीरिक, मानसिक और संवेगात्मक परिवर्तन निरन्तर व क्रमश: होते हैं न कि अकस्मात।
● किंग :- “जिस प्रकार एक ऋतु का आगमन दूसरी ऋतु के अन्त में होता है, पर जिस प्रकार पहली ऋतु में ही दूसरी ऋतु के आगमन के चिह्न दिखाई देने लगते हैं, इसी प्रकार बाल्यावस्था में किशोरावस्था के लक्षण प्रकट हो जाते हैं।”
● ‘एडोलेसेन्स’ शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के एडोलेसियर (Adolescere) से हुई है जिसका अर्थ है- परिपक्वता की ओर/परिपक्व रूप में विकसित होना।

 काल्पनिक श्रोता (Imaginary audiance) :- किशोर को भ्रम होता है कि दूसरे लोग भी उतने ही ध्यान आकर्षित है जितना कि वे स्वयं कल्पना करते हैं कि लोग उनकी ओर ध्यान दे रहे हैं।

 व्यक्तिगत दन्त कथा (Personal Fabal) :- स्वयं को सबसे अलग समझने अर्थात् स्वयं को विशिष्ट एवं अद्वितीय समझना। (अपने तरह का अकेला व्यक्ति)

1. शारीरिक विकास
(Physical Development)

शारीरिक ढाँचे, आंतरिक व बाह्य अवयवों में परिवर्तन, शरीर के आकार, भार, ऊँचाई, अनुपात में होने वाले विकास को शारीरिक विकास कहते हैं।

भार (Weight) :- जन्म के समय बालक 7.15 पौंड
बालिका – 7.13 पौंड
● शैशवावस्था :- 80-95 पौंड

लम्बाई (Length) :- जन्म के समय बालक – 20.5 इंच
बालिका – 20.3 इंच
● जन्म के समय की अपेक्षा एक वर्ष के बालक की लम्बाई लगभग 2 गुनी होती है।

सिर  मस्तिष्क :- जन्म के समय शिशु के मस्तिष्क का भार 350 ग्राम होता है।
● बाल्यावस्था में मष्तिष्क का 90% विकास हो जाता है।
● किशोरावस्था में मस्तिष्क का वजन 1200-1400 ग्राम होता है।

हडि्डयाँ (Bones) :- जन्म के समय – 270
● बाल्यावस्था में अस्थिकरण की प्रक्रिया से यह बढ़कर 350 हो जाती है।
● किशोरावस्था में अस्थिकरण की प्रक्रिया पूर्ण हो जाती है और हडि्डयों की संख्या- 206

दाँत (Teeth) :- दाँतों का निर्माण गर्भकाल के पाँचवें महीने से शुरू हो जाता है परन्तु जन्म के बाद 5/6 माह की आयु में बाहर दिखाई देना शुरू होते हैं।
● 4-5 वर्ष के बालक में लगभग 20 दाँत निकल आते हैं जिन्हें अस्थायी/दूध के दाँत कहते हैं।

मांसपेशियाँ :- जन्म के समय शरीर के कुल भार की 23% भाग मांसपेशियाँ होती हैं जो बाल्यावस्था में 27-30% होती है एवं किशोरावस्था में 44/45% होती है।

Note :- 15-16 वर्ष की आयु में शारीरिक विकास की गति एक बार तीव्र हो जाती है। इसे ‘तारुण्य विकास लहर’ कहा जाता है।

विशेष शारीरिक क्रियाएँ-(प्रतिवर्त) (Refleyes) :-
1. रूटिंग :- गाल को छूने पर सिरे को घुमाना एवं मुख खोलना।

2. मोरो :- यदि तीव्र शोर होता है तो बच्चा अपनी कमर को मोड़ते हुए भुजा को आगे की ओर फेंकता है और फिर अपनी भुजाओं को एक साथ लाता है जैसे कुछ पकड़ रहा हो।

3. पकड़ना :- बच्चे की हथेली को यदि अँगुली अथवा किसी अन्य वस्तु से दबाया जाता है तो बच्चे की अँगुलियाँ उसके इर्द-गिर्द लिपट जाती है।

4. बेबिन्सकी :- यदि बच्चे के पैर के तलवे को ठोका जाता है तो पैर की अँगुलियाँ ऊपर की ओर जाती है और फिर आगे की ओर मुड़ जाती हैं।

Note :- जन्म के समय से 10-11 महीने की आयु तक शिशुओं में सहज क्रियाओं (Reflex Action) की प्रधानता रहती है।

● शारीरिक विकास को प्रभावित करने वाले कारक :-
● वंशानुक्रम
● वातावरण
● पौष्टिक भोजन
● निद्रा व विश्राम
● खेल व व्यायाम
● सुरक्षा
● अन्त: स्त्रावी ग्रंथियाँ
● रोग या दुर्घटना के कारण उत्पन्न विकृति
● अच्छी और खराब जलवायु
● माता का स्वास्थ्य (गर्भावस्था के समय)
● परिवार का रहन-सहन और आर्थिक स्थिति
● दोषपूर्ण सामाजिक परम्पराएँ, जैसे- बाल-विवाह
● चिकित्सा सुविधा
● शारीरिक दोष।
● जन्म की सामान्य व असामान्य परिस्थिति।

2. मानसिक विकास
(Mental Development)

● मानसिक शक्तियों के उदय तथा वातावरण के प्रति समायोजन की क्षमता का नाम मानसिक विकास है।
● मानसिक विकास की प्रक्रिया जन्म से पूर्ण परिपक्वता आने तक क्रमिक रूप से चलती रहती है।
● मानसिक विकास के पक्ष :- संवेदना, निरीक्षण, स्मरण, कल्पना, चिन्तन, बुद्धि, निर्णय, रुचि एवं अभिरुचि, प्रत्यक्षीकरण, अवबोध, अवधान, तर्क, सीखना, समस्या-समाधान, आदि।
● हरलॉक :- “दो बालकों में समान मानसिक योग्यताएँ एवं अनुभव नहीं होते हैं।”
● क्रो एवं क्रो :- “जब बालक लगभग 6 वर्ष का हो जाता है, तब उसकी मानसिक योग्यताओं का लगभग पूर्ण विकास हो जाता है।”
 जॉन लॉक :- “नवजात शिशु का मस्तिष्क कोरे कागज के समान होता है, जिस पर वह अनुभव लिखता है।”
● श्रीमती गुड एनएफ :- “लगभग तीन वर्ष की आयु तक बालक की बुद्धि का आधा विकास हो जाता है।”
● फ्रॉयड :- “4/5 वर्ष की अवस्था आते-आते बालक को जो बनना होता है, बन जाता है।”
● 2 वर्ष में बालक में उद्देश्यपूर्ण क्रिया का विकास हाता है।
● 3 वर्ष में रेखाएँ खींचना प्रारम्भ करता है।
● 4 वर्ष में छोटी-बड़ी रेखाओं में अन्तर, वस्तुओं को क्रम में रखता है।

बाल्यावस्था में मानसिक विकास :-
● दों वस्तुओं में अन्तर करने की शक्ति का विकास
● दिन, समय, तारीख, वर्ष, सिक्कों का ज्ञान।
● दो वस्तुओं में समानता-असमानता बता सकता है।
● बाल्यावस्था के अन्त में तर्क (ठोस/मूर्त वस्तु आधारित) का विकास।

किशोरावस्था में मानसिक विकास :-
● बुद्धि का अधिकतम विकास।
● सोचने, समझने, विचार करने, अन्तर करने और समस्या-समाधान की योग्यता का विकास।
● अमूर्त चिन्तन का विकास।
● तर्क-शक्ति का विकास।
● कल्पना शक्ति का विकास।
● रुचियों का विकास।
● तथ्यों को सामान्यीकरण करने की क्षमता।

Note :- थॉर्नडाइक के अनुसार लगभग 19 वर्ष, स्पीयरमैन के अनुसार 14-16 वर्ष, जीन पियाजे के अनुसार 15-16 वर्ष की आयु तक व्यक्ति की बुद्धि का उच्चतम स्तर तक विकास हो जाता है।

मानसिक विकास को प्रभावित करने वाले कारक :-
● वंशानुक्रम
● वातावरण – परिवार का वातावरण
विद्यालय का वातावरण
समाज का वातावरण
● परिवार की सामाजिक – आर्थिक/स्थिति।
● माता-पिता की शिक्षा।
● उचित शिक्षा।
● विद्यालयी परिस्थितियाँ
● शिक्षक
● शारीरिक स्वास्थ्य
● परिपक्वता व अधिगम।

प्रमुख मानसिक संक्रियाएँ :-

I. अवधान (Attention) :- अवधान मानव जीवन की महत्त्वपूर्ण क्रिया है। छात्रों में ध्यान विकसित करके उनको अध्ययन तथा अधिगम के लिए तैयार किया जा सकता है। अधिगम की क्रिया ध्यान तथा रुचि के कारण ही सक्रिय होती है।
● चेतना के किसी वस्तु पर केन्द्रित होने को अवधान (Attention) कहते हैं। अर्थात् “अवधान एक चयनात्मक प्रक्रिया है, जिसमें व्यक्ति एक विशेष शारीरिक मुद्रा बनाकर किसी वस्तु को चेतना के केंद्र में लाने के लिए तत्पर रहता है।”
● डमविल :- “किसी दूसरी वस्तु के बजाय एक ही वस्तु पर चेतना का केन्द्रीकरण अवधान है।”
● रॉस :- “अवधान, विचार की किसी वस्तु को मस्तिष्क के सामने स्पष्ट रूप से उपस्थित करने की प्रक्रिया है।”
● भाटिया :- “अवधान-ज्ञानात्मक, क्रियात्मक और भावनात्मक होता है।”

विशेषताएँ :-
1. अवधान एक चयनात्मक प्रक्रिया है।
2. अवधान की प्रक्रिया में विशेष शारीरिक मुद्रा होती है। 
3. अवधान में सिर्फ कुछ ही उद्दीपक या वस्तुएँ चेतना के केंद्र में आती हैं।
4. अवधान का स्वरूप प्रेरणात्मक होता है।
5. अवधान उद्देश्यपूर्ण होता है।
6. अवधान का विस्तार सीमित होता है।

● अवधान को केन्द्रित करने वाली बाह्य दशाएँ :- गति, अवधि स्थिति, तीव्रता, विषमता, नवीनता, आकार, स्वरूप, परिवर्तन, प्रकृति, पुनरावृत्ति, रहस्य आदि।

● अवधान को केन्द्रित करने वाली आन्तरिक दशाएँ :- रुचि, ज्ञान, लक्ष्य, आदत, जिज्ञासा, प्रशिक्षण, मनोवृत्ति, आवश्यकता, मूल- प्रवृत्तियाँ, पूर्व-अनुभव आदि।

अवधान के प्रकार
अवधान के मुख्यत: तीन प्रकार हैं-
1. ऐच्छिक अवधान, 2. अनैच्छिक अवधान, 3. आभ्यासिक अवधान

Note :- चयनात्मक अवधान तथा संधृत अवधान, अवधान के दो अन्य प्रमुख प्रकार हैं।

II. संवेदना (Sensation) :- ‘संवेदना’ सबसे साधारण मानसिक अनुभव और मानसिक प्रक्रिया है।
● यह ज्ञान-प्राप्ति की पहली सीढ़ी है।
● संवेदना को ज्ञान का द्वार कहा जाता है।
● संवेदना का पूर्व ज्ञान/पूर्व अनुभव से कोई संबंध नहीं होता है।
● ज्ञानेन्द्रियों द्वारा किसी वस्तु/उद्दीपक का प्रारंभिक व सरल अनुभव संवेदना कहलाता है।
● जलोटा :- “संवेदना एक साधारण ज्ञानात्मक अनुभव है।”
● विलियम जेम्स :- संवेदनाएँ ज्ञान के मार्ग में पहली वस्तुएँ हैं।

● संवेदना के प्रकार :-
1. दृष्टि-संवेदना :- सब प्रकार के रंग-रूप आदि।
2. ध्वनि-संवेदना :- आवाज, ध्वनियाँ आदि।
3. घ्राण-संवेदना :- सब प्रकार की गन्ध।
4. स्वाद-संवेदना :- सब प्रकार के स्वाद।
5. स्पर्श-संवेदना :- स्पर्श, दबाव आदि।
6. मांसपेशी-संवेदना :- मांसपेशियों की गति से संबंधित।
7. शारीरिक-संवेदना :- शारीरिक अंगों द्वारा प्राप्त अनुभव।

III. प्रत्यक्षीकरण (Perception) :- प्रत्यक्षीकरण एक मानसिक प्रक्रिया है। संवेदना द्वारा प्राप्त ज्ञान में अर्थ नहीं होता जबकि प्रत्यक्षीकरण में अर्थ निहित होता है।
● प्रत्यक्षीकरण पूर्व अनुभव के आधार पर संवेदना की व्याख्या करता है अर्थात् उसमें अर्थ जोड़ता है।
● पूर्व ज्ञान/अनुभव के संबंध।
● रायबर्न :- “अनुभव के आधार पर संवेदना व्याख्या की प्रक्रिया को प्रत्यक्षीकरण कहते हैं।”
● एटकिन्सन तथा हिलगार्ड के अनुसार – “प्रत्यक्षण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा हम लोग वातावरण में उपस्थित उद्दीपकों की व्याख्या करते हैं तथा उसे संगठित करते हैं।”
● सेन्ट्रोक के अनुसार – “संवेदी सूचनाओं को अर्थ प्रदान करने के लिए मस्तिष्क द्वारा उसे संगठित एवं व्याख्या करने की प्रक्रिया को ही प्रत्यक्षण कहा जाता है। ”

संवेदना व प्रत्यक्षीकरण में अंतर :-
● संवेदना में मस्तिष्क निष्क्रिय रहता है जबकि प्रत्यक्षीकरण में सक्रिय रहता है।
● संवेदना ज्ञान प्राप्ति की पहली सीढ़ी है और प्रत्यक्षीकरण दूसरी सीढ़ी है।
● संवेदना का पूर्व अनुभव से संबंध नहीं होता है जबकि प्रत्यक्षीकरण पूर्व अनुभव से संबंधित होता है।
● संवेदना द्वारा प्राप्त ज्ञान अस्पष्ट और अनिश्चित होता है जबकि प्रत्यक्षीकरण द्वारा प्राप्त ज्ञान स्पष्ट और निश्चित होता है।
● संवेदना किसी वस्तु का तात्कालिक अनुभव है और प्रत्यक्षीकरण पूर्व ज्ञान पर उसकी व्याख्या करता है।

IV. प्रत्यय (Conception) :-
● किसी देखी गई वस्तु की मानसिक प्रतिमा बनाना प्रत्यय निर्माण कहलाता है।
● बालक एक कुत्ते को जब पहली बार देखता है तो उसे एक विशेष कुत्ते का ज्ञान होता है लेकिन अनेक बार कुत्तों को देखने पर उसके मस्तिष्क में कुत्ते के बारे में एक विचार, प्रतिमा बन जाती है उसे ही प्रत्यय (Concept) कहते हैं।
● ज्ञान की तीसरी सीढ़ी।
● पूर्व अनुभवों, पूर्व-संवेदनाओं और पूर्व-प्रत्यक्षीकरण से संबंध।
● वुडवर्थ :- “प्रत्यय वे विचार हैं, जो वस्तुओं, घटनाओं, गुणों आदि का उल्लेख करते हैं।”
● क्रो एवं क्रो :- “प्रत्यय किसी वस्तु का सामान्य अर्थ होता है, जिसे शब्द या शब्द-समूह द्वारा व्यक्त किया जाता है।”

प्रत्यय निर्माण के चरण :-
1. निरीक्षण/देखना। 2. तुलना करना।
3. पृथक्करण करना। 4. सामान्यीकरण करना।
5. परिभाषा निर्माण (प्रत्यय)

V. स्मृति व स्मरण (Memory & Remembering)
● अर्थ :- स्मृति एक मानसिक क्रिया है, स्मृति का आधार अर्जित अनुभव है एवं इनका पुनरुत्पादन परिस्थिति के अनुसार होता है।
● पूर्व अनुभवों को अचेतन मन में संचित रखने और आवश्यकता पड़ने पर चेतन मन में लाने की शक्ति को स्मृति कहते हैं।
● स्मृति का मुख्य कार्य है – पूर्व अनुभव का स्मरण करवाना।
● रायबर्न :- “अपने अनुभवों को संचित रखने और उनको प्राप्त करने के कुछ समय बाद चेतना के क्षेत्र में पुन: लाने की शक्ति हम में होती है, उसी को स्मृति कहते हैं।”
● स्टाउट :- “स्मृति एक आदर्श पुनरावृत्ति है।”

Note :- स्मृति का वैज्ञानिक अध्ययन 1880 के दशक में हरमान इबिंगहास द्वारा किया गया।

स्मृति का स्वरूप/उपक्रियाएँ :-
1. सीखना (Learning)
2. धारण (सीखी गई बात को मस्तिष्क में संचित रखना) (Retaining)
3. पुन: स्मरण (सीखी बात को चेतन मन में लाना) (Recalling)
4. पहचान (Recognizing)

स्मृति की अवस्थाएँ/तत्त्व :-
1. कूट संकेतन/कूट लेखन (Encoding) – कूटलेखन एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके सहारे सूचनाओं को एक ऐसा आकार या रूप में परिवर्तित कर दिया जाता है कि वे स्मृति में प्रवेश पा सकें। इस अवस्था को पंजीकरण भी कहा जाता है।

2. भंडारण/संचयन (Storage) – भण्डारण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा सूचना कुछ समय सीमा तक धारण की जाती है।

3. पुनरुद्धार/पुन:प्राप्ति (Retrieval) – स्मृति में संचित सूचना को पुन: चेतना में लाया जाता है तो इस प्रक्रिया को पुनरुद्धार कहते हैं।

Note :- स्मृति की विफलता इनमें से किसी भी अवस्था में हो सकती है।

(1) संवेदी/तात्कालिक स्मृति (Sensory Memory) :- कोई भी नई सूचना पहले संवेदी स्मृति में आती है। संवेदी स्मृति की संचयी क्षमता तो बहुत होती है लेकिन इसकी अवधि बहुत कम हाती है। (एक सेकंड से भी कम)यह दो प्रकार की होती है-
(i) प्रतिचित्रात्मक स्मृति (ii) प्रतिध्वन्यात्मक स्मति

(2) अल्पकालिक/लघुकालीन स्मृति (Short-term-Memory) STM :- विलियम जेम्स ने इसे प्राथमिक स्मृति कहा है। STM में किसी सूचना को अधिक से अधिक 20-30 सेकण्ड तक संचित रखा जा सकता है तथा इसमें प्रवेश पाने वाली सूचनाएँ कमजोर प्रकृति की होती है क्योंकि उन्हें व्यक्ति मात्र एक-दो प्रयास में ही सीख लेता है। इसे सक्रिय स्मृति भी कहते हैं।

(3) दीर्घकालिक स्मृति (Long-term-memory) :- विलियम जेम्स ने इसे गौण स्मृति (Secondary Memory) SM कहा है। इसमें सूचनाओं को काफी लम्बी अवधि के लिए व्यक्ति संचित रख पाता है। इस अवधि की न्यूनतम समय सीमा 20-30 सेकण्ड से अधिक तथा अधिकतम सीमा कुछ भी निश्चित नहीं होती है। इसे असक्रिय स्मृति के नाम से भी जाना जाता है।

इसके दो प्रकार है
(i) घोषणात्मक/स्पष्ट स्मृति
(a) प्रासंगिक स्मृति (b) अर्थगत स्मृति
(ii) अघोषणात्मक/प्रक्रियात्मक स्मृति

● अन्य प्रकार :- व्यक्तिगत, अव्यक्तिगत, सक्रिय, निष्क्रिय, स्थायी, यान्त्रिक स्मृति आदि।

Note :- स्मृति का अवस्था मॉडल :- एटकिन्सन व शिफरीन (1968)

VI. विस्मृति (Forgetting) :-
● विस्मृति भी एक मानसिक क्रिया है।
● जब हम कोई नया अनुभव प्राप्त करते हैं, सीखते हैं उसे स्मृति में संचित करते हैं लेकिन कभी-कभी उसे वापस चेतना में लाने में असफल हो जाते हैं उसे विस्मृति कहते हैं।
● भूतकाल के किसी अनुभव को वर्तमान चेतना में लाने की असफलता को ‘विस्मृति’ कहते हैं।
● मन :- “सीखी हुई बात को स्मरण रखने या पुन:स्मरण करने की असफलता को विस्मृति कहते हैं।”
● फ्रॉयड :- “विस्मृति वह प्रवृत्ति है जिसके द्वारा दुखद् अनुभवों को स्मृति से अलग कर दिया जाता है।”

विस्मृति के कारण :-
1. बाधा 2. दमन
3. अनाभ्यास 4. रुचि, ध्यान व इच्छा का अभाव
5. विषय का स्वरूप 6. समय का प्रभाव
7. सीखने की दोषपूर्ण विधि 8. मानसिक द्वन्द्व
9. मादक वस्तुओं का प्रयोग।

विस्मृति का महत्त्व :-
1. क्षणिक महत्त्व की बातों को भूलना।
2. अनुपयोगी बातों को भूलना।
3. दु:खद अनुभवों का भूलना।
4. अस्त-व्यस्तता से बचाव।
5. पुरानी बातों को भूलकर नई बातें सीखना।

रिबट :- “स्मरण करने की एक शर्त है कि हमें विस्मरण करना चाहिए।”

VII. तर्क (Reasoning) :-
● तर्क एक प्रकार का वास्तविक चिंतन है। व्यक्ति तर्क के माध्यम से अपने चिंतन को क्रमबद्ध बनाता है तथा एक निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचता है।
● तर्क में क्रमबद्धता पाई जाती है।
● तर्क, चिन्तन का उत्कृष्ट रूप और जटिल मानसिक प्रक्रिया है।
● गेट्स  अन्य :- “तर्क, फलदायक चिन्तन है, जिसमें किसी समस्या का समाधान करने के लिए पूर्व अनुभवों को नई विधियों से पुनर्संगठित या सम्मिलित किया जाता है।”

तर्क के सोपान :-
तर्क में निम्नलिखित पाँच सोपान होते हैं-
1. समस्या की पहचान (Recognization of Problem)
2. आँकड़ों का संग्रहण (Collection of Data)
3. अनुमान पर पहुँचना (Drawing Inference)
4. अनुमान के अनुसार प्रयोग करना (To do experiment according to inference)
5. निर्णय करना (Decision Making)

तर्क के प्रकार :-
1. आगमन तर्क (Inductive Reasoning) :- इस तर्क में व्यक्ति दिए गए तथ्यों में अपनी ओर से नए तथ्य जोड़कर एक निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचता है। इसमें व्यक्ति अपने अनुभवों या अपने संकलित तथ्यों के आधार पर किसी सामान्य नियम या सिद्धांत का निरूपण करता है। प्रयोगात्मकता एवं निरीक्षण इस तर्क का आधार है।
● अत: आगमन तर्क में विशिष्ट तथ्यों के आधार पर सार्वभौमिक तथ्य निकाले जाते हैं। (विशिष्ट से सामान्य) जैसे- मोहन नाशवान है, करीम नाशवान है, इसलिए सभी मनुष्य नाशवान है।

2. निगमन तर्क (Deductive Reasoning) :- इसमें व्यक्ति पहले से ज्ञात नियमों एवं तथ्यों के आधार पर एक निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचने की कोशिश करता है। इसमें व्यक्ति पूर्व निर्धारित नियमों सिद्धांतों के आधार पर सत्य का परीक्षण करता है। (सामान्य के विशिष्ट की ओर)
● इसमें सार्वभौमिक तथ्यों को विशिष्ट समस्याओं के समाधान में प्रयोग करते हैं।
जैसे :-

  • सभी मनुष्य नाशवान है, मैं भी एक मनुष्य हूँ इसलिए मैं भी नाशवान हूँ।
  • जहाँ-जहाँ धुआँ होता है, वहाँ आग होती है, पहाड़ पर धुआँ है, इसलिए वहाँ आग है।
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3. आलोचनात्मक तर्क (Evaluative Reasoning) :- इस तर्क में व्यक्ति किसी वस्तु, घटना के बारे में सोचते समय या किसी समस्या के समाधान के समय प्रत्येक उपाय के गुण एवं दोष की परख करता है। प्रत्येक विचार की प्रभावशीलता को ठीक ढंग से जाँच करके ही अंतिम निर्णय लेता है।

4. सादृश्यवाची तर्क (Analogical Reasoning) :- इस तर्क में व्यक्ति उपमा के आधार पर तर्क-वितर्क करते हुए किसी निष्कर्ष पर पहुँचता है।

VIII. समस्या-समाधान (Problem-Solving) :-
● यदि हम किसी निश्चित लक्ष्य पर पहुँचना चाहते हैं, पर किसी कठिनाई के कारण नहीं पहुँच पाते हैं, तब हमारे समक्ष एक समस्या उपस्थित हो जाती है यदि हम समस्या पर विजय प्राप्त कर लेते हैं तो अपनी समस्या का समाधान कर लेते हैं अर्थात् कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करके लक्ष्य को प्राप्त करना।

विटिंग एवं विलियम्स :- “समस्या समाधान का अर्थ होता है बाधाओं को दूर करने तथा लक्ष्यों की ओर पहुँचने के लिए चिंतन प्रक्रियाओं का उपयोग करना।”

समस्यासमाधान के सोपान :-
1. समस्या को समझना।
2. जानकारी/तथ्यों का संग्रह।
3. सम्भावित समाधानों का निर्माण (परिकल्पना निर्माण)
4. उचित परिकल्पना का चयन
5. सम्भावित समाधानों का परीक्षण
6. निष्कर्ष/निर्णय
7. समाधान का प्रयोग।

समस्या समाधान की विधियाँ

1. यादृच्छिक अन्वेषण विधि (Rendom Search Method) :- इसमें व्यक्ति समस्या समाधान के लिए प्रयास व त्रुटि का सहारा लेता है अर्थात् वह समस्या समाधान के लिए एक तरह का यादृच्छिक अन्वेषण (Rendom Search) करता है। यादृच्छिक अन्वेषण में व्यक्ति सभी तरह की संभावित अनुक्रियाओं को करता है। यह क्रमबद्ध या अक्रमबद्ध भी हो सकता है।

2. स्वत:शोध अन्वेषण विधि (Heuristic Search Method) :- इस विधि में व्यक्ति समस्या-समाधान करने के लिए सभी विकल्पों को नहीं ढूँढ़ता है बल्कि सिर्फ उन्हीं विकल्पों का चयन करके समस्या-समाधान करने की कोशिश करता है जो उन्हें संगत प्रतीत होते हैं। इसके तहत निम्न तीन प्रविधियाँ आती हैं-
(i) साधन-साध्य विश्लेषण, (ii) पश्चगामी अन्वेषण, (iii) योजना विधि

IX. चिन्तन (Thinking) :-
● चिन्तन मनुष्य की वह शक्ति है जिसके द्वारा वह किसी भी कार्य/व्यवहार को पूर्णता तक ले जाता है। यह एक मानसिक गत्यात्मक प्रक्रिया है।

सृष्टि के जितने भी कार्य होते हैं, वे सभी अपने आप में समस्या के रूप में होते हैं और समस्या के समय प्राणी को समाधान की आवश्यकता होती है इसलिए वह उस समस्या पर सोचता है, विचारता है और उसको समझता है जिससे समाधान की प्राप्ति हो जाती है। सोचने, समझने और विचारने की इसी प्रक्रिया को मनोविज्ञान में चिन्तन कहते हैं, अर्थात् व्यक्ति समस्या के समय ही चिंतन करता है।
● रॉस :- चिन्तन, मानसिक क्रिया का ज्ञानात्मक पहलू है या मन की बातों से संबंधित है।

● गैरेट :- “चिंतन एक प्रकार का अव्यक्त एवं अदृश्य व्यवहार होता है जिसमें सामान्य रूप से प्रतीकों का प्रयोग होता है।

● हम्प्रै – चिन्तन का जन्म, समस्या के समय होता है क्योंकि समस्या के समय प्राणी को लक्ष्य का रास्ता नजर नहीं आता।

● कागन  हैवमैन – “प्रतिमाओं, प्रतीकों, संप्रत्ययों, नियमों एवं अन्य मध्यस्थ इकाइयों के मानसिक जोड़-तोड़ को चिंतन कहा जाता है।”

चिंतन की विशेषता/स्वरूप
● चिंतन में प्रतीकों, प्रतिमाओं आदि का मानसिक जोड़-तोड़ होता है।
● चिंतन एक प्रकार का अप्रकट व्यवहार है।
● चिंतन एक मध्यस्थ क्रिया है।
● चिंतन की शुरुआत समस्या से होती है।
● चिंतन में गत अनुभूति सम्मिलित होती है।
● चिंतन एक उद्देश्यपूर्ण प्रक्रिया है।
● चिंतन सदैव लक्ष्य-निर्देशित होता है।

चिंतन के प्रकार :-
● मुख्य रूप से चिंतन के 2 प्रकार हैं- (जिम्बार्डो व रूक ने, 1977 में)
1. स्वली चिंतन 2. यथार्थ चिंतन

1. स्वली चिंतन (Autistic Thinking) :- यह काल्पनिक होता है इसमें व्यक्ति अपनी काल्पनिक विचारों एवं इच्छाओं की अभिव्यक्ति करता है। यह अवास्तविक होता है। स्वली चिंतन से सकारात्मक परिणामों की प्राप्ति नहीं होती हैं। अर्थात् समस्या-समाधान नहीं होता है।

2. यथार्थवादी चिंतन (Realistic Thinking) :- यह सत्य, वास्तविक होता है। इससे व्यक्ति किसी समस्या का समाधान करता है अर्थात् इसमें सकारात्मक परिणामों की प्राप्ति होती है।
● यथार्थ चिंतन 3 प्रकार का होता है-

(i) अभिसारी/मूर्त/निगमनात्मक चिन्तन :- इसमें व्यक्ति दिए गए तथ्यों के आधार पर सही निष्कर्ष पर पहुँचने की कोशिश करता है।
● जब व्यक्ति किसी प्रत्यक्ष/ठोस वस्तु के संदर्भ में सोचता है तो मूर्त चिन्तन कहलाता है।
● इस चिंतन द्वारा जिस समस्या का समाधान होता है, उसका एक निश्चित उत्तर होता है।

(ii) अपसारी/अमूर्त/आगमनात्मक/सृजनात्मक चिन्तन :- इसमें व्यक्ति दिए गए तथ्यों में अपनी ओर से नया तथ्य जोड़कर एक निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचता है। जब तक व्यक्ति अपनी ओर से नए तथ्यों का सर्जन (Create) नहीं करता, समस्या का समाधान नहीं हो पाता है। इसमें व्यक्ति अमूर्त परिस्थितियों को भी समझ सकता है। इसे मौलिक चिन्तन भी कहते हैं।
● ब्रूनर “सृजनात्मक चिंतन” को प्रभावी आश्चर्य कहते हैं।
● इस चिंतन को एडवर्ड डी बोनो ने पार्श्विक चिंतन कहा।
● इस चिंतन द्वारा जिस समस्या का समाधान होता है, उसका कोई एक निश्चित उत्तर नहीं होता है।

(iii) आलोचनात्मक/विश्लेषणात्मक चिन्तन :- इस प्रकार के चिन्तन में व्यक्ति किसी वस्तु, घटना या तथ्य की सच्चाई को स्वीकार करने से पहले उसके गुण-दोष की समीक्षा करता है। क्या सही है, क्या गलत है, क्या करना चाहिए, क्या नहीं आदि को समझते हुए विचार अभिव्यक्त करता है। यह सर्वोच्च प्रकार का चिन्तन है।

चिन्तन के साधन :-
1. बिम्ब/प्रतिमा (Image)
2. सम्प्रत्यय (Concepts)
3. प्रतीक एवं चिह्न (Symbols and sign)
4. भाषा (Language)
5. प्रतिज्ञप्ति (Proposition)

बालक में चिन्तन विकास के उपाय :-
● ज्ञान एवं अनुभूतियों की पर्याप्तता।
● अभिप्रेरणा और लक्ष्य की निश्चितता।
● उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य सौंपना।
● भाषा, चिन्तन के माध्यम और अभिव्यक्ति की आधारशिला है। अत: शिक्षक को बालकों के भाषा-ज्ञान में वृद्धि करनी चाहिए।
● तर्क, वाद-विवाद और समस्या-समाधान, चिन्तनशक्ति को प्रयोग करने का अवसर देते हैं अत: शिक्षक को इन सब को अवसर देना चाहिए।
● रुचि और जिज्ञासा को जाग्रत करना।
● सृजनात्मक कौशल का विकास।

बालक में पाए जाने वाले चिन्तन :-

1. प्रत्यक्षात्मक चिंतन :- पूर्व अनुभवों या किसी व्यवहार की आवृत्ति के कारण व्यक्ति/वस्तु के प्रत्यक्ष होने पर आने वाला चिंतन।
● इसमें भाषा व नाम का महत्त्व नहीं है।

2. सजीव चिंतन :- पियाजे के अनुसार एक 2 वर्ष की आयु के बाद का बालक कुछ वर्षों तक प्रत्येक वस्तु को सजीव समझता है।
जैसे :
i. सूर्य मेरे साथ चल रहा है।
ii. किसी तस्वीर को देखकर कहता है कि यह तस्वीर वाला व्यक्ति मुझे देख रहा है।
iii. खिलौनों (गुड्‌डा-गुड्‌डी) के चोट लग गई।

3. काल्पनिक चिंतन :- एक बालक के द्वारा किसी पूर्व व्यवहार के कारण कोई विचार/प्रत्यय मस्तिष्क में पैदा होता है तथा वह उसके अनुसार व्यवहार करता है। जैसे – अकस्मात दादा को देखकर बोलने लगता है – दादा।

4. तार्किक चिंतन :- लगभग 9-11वर्ष की आयु में बालक में तार्किक चिंतन की शुरुआत होने लगती है।
● जॉन डीवी ने तार्किक चिंतन को विचारात्मक चिंतन कहा।

X. कल्पना (Imagination)
कल्पना एक प्रमुख मानसिक प्रक्रिया है, जिसके द्वारा अतीत की अनुभूतियों को पुनर्संगठित कर एक नया रूप दिया गया है अर्थात् गत अनुभूतियों की यादों और गत प्रतिमाओं को पुनर्गठित कर एक नई संरचना करने की प्रक्रिया कल्पना कहलाती है।
● इसमें व्यक्ति पूर्व अनुभूति के आधार पर कुछ नए विचारों का सृजन करता है। यह सृजन या निर्माण सृजनात्मक (Creative) भी हो सकता है तथा अनुकूल (Imitative) भी।
● जब व्यक्ति अपनी ओर से किसी नए विचार की रचना करता है तो इस कल्पना को सृजनात्मक कल्पना कहा जाता है और जब व्यक्ति किसी ऐसे विचार को सामने प्रस्तुत करता है जिसे वह वास्तव में दूसरे व्यक्तियों से प्राप्त किए होता है तो इस तरह की कल्पना को अनुकूल कल्पना कहा जाता है।

विशेषताएँ
● कल्पना लक्ष्य निर्देशित नहीं होती है।
● कल्पना में कोई तर्क व क्रमबद्धता नहीं होती है।
● कल्पना का संबंध वास्तविक वस्तुओं एवं घटनाओं से कम तथा अवास्तविक वस्तुओं या घटनाओं से अधिक होता है।
● कल्पना का संबंध किसी निश्चित समस्या से नहीं होता है।

कल्पना के प्रकार
(A) विलियम मैक्डूगल का वर्गीकरण – मैक्डूगल ने कल्पना को मुख्यत: दो भागों में बाँटा है-

1. उत्पादनात्मक कल्पना (Productive Imagination) –
इसमें व्यक्ति अपनी गत अनुभूतियों को इस ढंग से सुसज्जित करता है कि उससे किसी नई अनुभूति का जन्म होता है।

इसके दो प्रकार हैं-
(i) रचनात्मक कल्पना (Constructive Imagination)–
वह कल्पना जिसका उपयोग भौतिक वस्तुओं के निर्माण में किया जाता है; जैसे- एक इंजीनियर का मकान बनाने से पहले कल्पना के आधार पर नक्शा बनाना।

(ii) सृजनात्मक कल्पना (Creative Imagination) –
वह कल्पना जिसके आधार पर अभौतिक वस्तुओं का निर्माण करता है; जैसे – कविता लिखना, कहानी लिखना आदि।

2. पुनरुत्पादनात्मक कल्पना (Reproductive Imagination)
वह कल्पना जिसमें व्यक्ति अपनी बीती हुई अनुभूतियों को प्रतिमाओं के रूप में सामने लाता है; जैसे- कोई छात्र परीक्षा समाप्त होने के बाद परीक्षा हॉल की अनुभूतियों को याद करता है।

(B) जेम्स ड्रेवर का वर्गीकरण – जेम्स ड्रेवर ने भी कल्पना को मैक्डूगल के समान मुख्यत: दो भागों में बाँटा है-

1. पुनरुत्पादनात्मक कल्पना –
2. उत्पादनात्मक कल्पना – इसके दो प्रकार हैं-

(i) ग्राही कल्पना (Receptive Imagination) – जब हम दूसरे की कही हुई बातों को ग्रहण करके उसके अनुसार अपने-आप ही कल्पना करने लगते हैं, तो उसे ग्राही कल्पना कहते हैं; जैसे- शिक्षक द्वारा लाल किले का कक्षा में वर्णन किए जाने पर छात्र उस किले की कल्पना अपने आप करना प्रारम्भ कर देते हैं।

(ii) सृजनात्मक कल्पना (Creative Imagination) – इसके आधार पर हम अभौतिक तत्त्वों का निर्माण; जैसे- कविता लेखन करते हैं। इसके भी निम्न दो प्रकार हैं-
(a) परिणामवादी कल्पना (Pragmatic Imagination) – वह कल्पना जिसका एक उपयोगी परिणाम व्यक्ति के सामने आता है; जैसे- कहानीकार द्वारा कहानी लिखने से पहले कहानी की भूमिका की जो कल्पना की जाती है, वह एक परिणामवादी कल्पना है। इसके भी दो प्रकार हैँ-
(क) सैद्धांतिक कल्पना (Theoretical Imagination) – जिसके आधार पर किसी महान सिद्धांत या नियम का प्रतिपादन किया जाता है।

(ख) व्यावहारिक कल्पना (Practical Imagination) – इस कल्पना के आधार पर ऐसी वस्तुओं का निर्माण किया जाता है, जिसका व्यावहारिक उपयोग हो; जैसे- नहर निर्माण या भवन निर्माण के लिए की गई कल्पना।

(b) सौंदर्यबोधी कल्पना (Aesthetic Imagination) – इस कल्पना द्वारा व्यक्ति को एक सौंदर्य की अनुभूति होती है; जैसे- किसी सुंदरी का वर्णन करने से पहले कवि द्वारा कल्पना करना। इसके भी दो प्रकार हैं-

(क) कलात्मक कल्पना (Artistic Imagination) – इसके आधार पर कलात्मक उत्पादन किया जाता है; जैसे- नाटक करने से पहले कल्पना करना।

(ख) अनोखी कल्पना (Fantastic Imagination) – यह ऊटपटांग कल्पना होती है और इसमें व्यक्ति का कोई मतलब सिद्ध नहीं होता; जैसे- छात्र द्वारा बैठे-बैठे हवाई जहाज से सैर की कल्पना करना, प्रधानमंत्री से हाथ मिलाने की कल्पना करना, लाल किले पर झण्डा फहराने की कल्पना आदि।

परिणामवादी व सौंदर्यबोधी कल्पना में अंतर
● परिणामवादी कल्पना का आधार भौतिक होता है तथा सौंदर्यबोधी कल्पना का आधार अभौतिक होता है।
● परिणामवादी कल्पना में कार्य के परिणाम के बाद आनंद की अनुभूति होती है जबकि सौंदर्यबोधी कल्पना में कल्पना प्रारंभ करते ही व्यक्ति को आनंद की अनुभूति होने होने लगती है।

कल्पनाशक्ति विकसित करने के उपाय
1. बालकों को उचित एवं मनमोहक कहानियाँ सुनानी चाहिए।
2. शिक्षकों को चाहिए कि बालकों में उत्सुकता उत्पन्न करने वाले तथ्य को सामने रखें।
3. बालकों को छोटे-छोटे अभिनय आदि में भाग लेने के लिए प्रोत्साहन देना चाहिए।
4. बालकों की रुचि एवं रुझान साहित्य, कला, संगीत आदि की ओर बढ़ाना चाहिए।
5. बालकों में परिणामवादी कल्पना अधिक हो इसके लिए शिक्षकों को चित्रकारी, रंगसाजी आदि में विशिष्ट अभिरुचि दिखाने का प्रयास करना चाहिए।
6. यथासंभव बालकों को शिक्षकों एवं माता-पिता द्वारा अनोखी कल्पना से बचाना चाहिए, क्योंकि ऐसी कल्पना की प्रबलता हो जाने से मानसिक रोग उत्पन्न होने का भय बन जाता है।

Note :- जेम्स ड्रेवर ने इस बात पर बल डाला है कि परिणामवादी कल्पना छात्रों के मस्तिष्क को अधिक अच्छे ढंग से प्रशिक्षित करता है।

जीन पियाजे का संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत
(Cognitive Development Theory of Jean Piaget)

प्रस्तुतकर्ता :- जीन पियाजे (स्विट्जरलैण्ड निवासी) (1896-1980)

पुस्तक :

  • The Language and Thought of the child
  • The Moral Judgment of the Child
  • The Child Conception of the world
  • The Psychology of the Child
  • Play, Dreams and Imitation in Childhood

प्रयोग :– स्वयं के बच्चों पर (लॉरेन्स, ल्यूसीन व जेक्लीन पर)

● स्विट्जरलैण्ड के विद्वान जीन पियाजे ने बॉयोलाजी (जीव विज्ञान) के क्षेत्र में अपना अध्ययन किया और वर्ष 1922 से लेकर 1932 के बीच अपने ही बालक का अध्ययन करते हुए एक बालक का संज्ञानात्मक विकास किस प्रकार से होता है इसको स्पष्ट करने का प्रयास किया और संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत दिया।

● जीन पियाजे को विकासात्मक मनोविज्ञान का जनक कहा जाता है। (संज्ञानात्मक मनोविज्ञान का जनक)

● इन्होंने ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त होने वाली संवेदना के आधार पर होने वाले बालक के संज्ञानात्मक विकास की 4 अवस्थाओं का वर्णन किया, जो निम्न प्रकार है-

संज्ञानात्मक विकास की अवस्थाएँ :-
1. संवेदी-पेशीय/क्रियात्मक अवस्था (Sensory Motor Stage) (जन्म से 2 वर्ष तक) (इन्द्रियजनित गामक अवस्था)
● इस अवस्था में बालक की मानसिक क्रियाएँ उनकी इन्द्रियगामक-क्रियाओं के रूप में सम्पन्न होती है। इसमें बालक दृश्य (आँख) श्रवण (कान), स्पर्श (त्वचा), गंध (नाक), स्वाद (जीभ) के माध्यम से प्राप्त संवेदनाओं के माध्यम से सीखता है।
● इस अवस्था में बालक अनुकरण के माध्यम से सीखता है और भाषा का विकास होने लगता है।
● इस अवस्था में बालक प्रतिवृत्तक्रियाएँ करता है।
● स्वयं को वातावरण से अलग समझता है।
● इसमें बालक का चिन्तन प्रतिवृत्तात्मक से प्रति बिम्बात्मक हो जाता है।
● इस अवस्था में बालक संवेदना एवं शारीरिक क्रियाओं के माध्यम से सीखता है।

इस अवस्था को छह उपअवस्थाओं में विभक्त किया गया है-
(i) प्रतिवर्त क्रियाओं की अवस्था (Stage of reflex activities)

  • जन्म से 30 दिन तक।
  • इस अवस्था में बालक मात्र प्रतिवर्त क्रियाएँ करता है।
  • इन प्रतिवर्त क्रियाओं में चूसने का प्रतिवर्त (Sucking reflex) सबसे प्रबल होता है।

(ii) प्रमुख वृत्तीय प्रतिक्रियाओं की अवस्था (Stage of Primary Circular Reactions)

  • 1 माह से 4 माह तक
  • इस अवस्था में शिशुओं की प्रतिवर्त क्रियाएँ उनकी अनुभूतियों द्वारा कुछ हद तक परिवर्तित होती है, दुहराई जाती हैं और एक-दूसरे के साथ अधिक समन्वित हो जाती है।

(iii) गौण वृत्तीय प्रतिक्रियाओं की अवस्था (Stage of Secondary Circular Reactions)

  • 4 माह से 8 माह तक
  • इस अवधि में शिशु वस्तुओं को उलटने-पुलटने तथा छूने पर अपना अधिक ध्यान देता है न कि अपने शरीर की प्रतिवर्त क्रियाओं पर।

(iv) गौण स्कीमैटा के समन्वय की अवस्था (Stage of Coordination of Secondary Schemata)

  • 8 माह से 12 माह तक।
  • इस अवस्था में बालक उद्देश्य तथा उस पर पहुँचने के साधन में अंतर करना प्रारम्भ कर देता है; जैसे- यदि किसी खिलौने को छिपा दिया जाता है तो वह उसके लिए वस्तुओं को इधर-उधर हटाते हुए खोज जारी रखता है।
  • इस अवस्था में शिशु वयस्कों द्वारा किए जाने वाले कार्यों का अनुकरण करना प्रारम्भ कर देता है।
  • शिशु सीखी गई स्कीमा का एक परिस्थिति से दूसरी परिस्थिति में सामान्यीकरण करना भी प्रारम्भ कर देता है।

(v) तृतीय वृत्तीय प्रतिक्रियाओं की अवस्था (Stage of Tertiary Circular Reactions)

  • 12 से 18 माह तक।
  • इस अवस्था में बालक वस्तुओं के गुणों को प्रयास व त्रुटि विधि से सीखने की कोशिश करता है।
  • बालक की शारीरिक क्रियाओं में रुचि कम हो जाती है तथा उत्सुकता अभिप्रेरक अधिक प्रबल हो जाता है।

(vi) मानसिक संयोग द्वारा नए साधनों की खोज की अवस्था (Stage of the invention of New means through Mental Combination)

  • 18 माह से 24 माह।
  • इस अवस्था में बालक उन वस्तुओं के प्रति भी अनुक्रिया करना प्रारंभ कर देता है जो सीधे दृष्टिगोचर नहीं होती हैं। इस गुण को वस्तु स्थायित्व (Object Permanence) कहा जाता है। अर्थात् 3-4 माह की उम्र में बालक सोचते थे कि जब कोई वस्तु उनके सामने से हट जाती है तब उसका अस्तित्व भी खत्म हो जाता है, परंतु अब बालक सोचता है कि जब वस्तु उसके सामने नहीं भी होती है तो भी उसका अस्तित्व बना रहता है, उसे ही वस्तु स्थायित्व का गुण कहा जाता है। इस पर ‘ब्लैंकेट एण्ड बॉल स्टडी’ अध्ययन किया गया।

2. पूर्व-संक्रियात्मक अवस्था (pre-Operational Stage) :- (2 वर्ष से 7 वर्ष)
● पियाजे के अनुसार 2 वर्ष का बालक परिवार का सक्रिय सदस्य बन जाता है और छोटे-छोटे कार्यों में हाथ बँटाने लगता है।
● पियाजे ने इस अवस्था को दो भागों में विभाजित किया है।

(i) प्राक्-संक्रियात्मक अवधि (2-4 वर्ष) :- यह प्रारंभिक विचारों का काल होता है, इसमें बालक के मस्तिष्क में छोटे-छोटे विचार पैदा होने लग जाते हैं जिनके कारण वह कई प्रकार के सवाल-जवाब करने लगता है इसलिए इस काल को प्रबल जिज्ञासुकाल कहते हैं।

● इस अवधि में बालक में संकेत (Symbol) तथा चिह्न (Sign) के रूप में सूचकता का विकास होता है। इस अवस्था में बालकों को इन सूचकता का अर्थ समझना होता है तथा साथ ही साथ उसे अपने चिंतन एवं कार्य में उसका प्रयोग करना सीखना होता है। इसे पियाजे ने लाक्षणिक कार्य (Semiotic Function) की संज्ञा दी है।

● प्राक् संक्रियात्मक अवस्था की दो मुख्य परिसीमाएँ/दोष हैं-

(a) जीववाद (Animism) (सजीववाद) :- शुरू में सजीव-निर्जीव वस्तुओं में भेद करने की क्षमता नहीं होती है, वह निर्जीव वस्तुओं में भी सजीव गुण मानता है जैसे :- चोट खाने या गिर जाने पर दरवाजे/फर्श को मार कर चुप हो जाना कि उन्होंने उनको भी वापस इस तरह मारा।
● एक बालिका को लगता है कि गुड़िया खिलौना को भी सर्दी-गर्मी लगती है।

(b) आत्मकेन्द्रिता (Egocentrism) :- उनका विश्वास होता है कि संसार में जो कुछ विद्यमान है वह सब उनके लिए ही है, दूसरे भी वैसा सोचते एवं अनुभव करते हैं जैसा वे सोचते, अनुभव करते हैं। इसको तीन पर्वतों की समस्या से दर्शाया गया है। इसमें बालक सिर्फ अपने ही विचार को सही मानता है। उसे लगता है कि दुनिया की अधिकतर वस्तुएँ उसके इर्द-गिर्द घूमती हैं; जैसे- वह तेजी से दौड़ता है तो सूर्य भी तेजी से चलना प्रारम्भ करता है, उसकी गुड़िया वही देखती है जो वह देखता है।

(ii) अन्तर्दर्शी अवधि/अन्तप्रज्ञकाल (Intuitive Period) (4 से 7 वर्ष) :- इस अवस्था में बालक अनुसरण करने लगता है तथा दूसरों के कहे अनुसार की बजाय स्वयं अपनी इच्छा से जो अच्छा लगता है उस कार्य को करता है।
● बालक कुछ साधारण रूप से जटिल मानसिक क्रियाओं जैसे- जोड़, घटाव, गुणा तथा भाग आदि कर लेता है परन्तु इन मानसिक प्रक्रियाओं के पीछे छिपे नियमों को नहीं समझ पाता है।
● चिन्तन में क्रमबद्धता नहीं होती है।
● पलटावी गुण (Trait of Reveribility) नहीं होता है (अपलटन का दोष)
● उदाहरण :- एक बच्चा बड़े गिलास में जूस पीने की जिद कर सकता है। एक छोटे चौड़े गिलास की तुलना में एक लंबे, पतले गिलास को वरीयता देता है जबकि दोनों ही गिलास में समान मात्रा में जूस रहता है।

3. ठोस/मूर्त संक्रियात्मक अवस्था (Concrete Operational Stage) (7 से 11 वर्ष तक)
● इस अवस्था में बालक ठोस/मूर्त वस्तुओं के आधार पर आसानी से मानसिक सक्रियाएँ करके किसी समस्या का समाधान कर लेता है। परन्तु उन वस्तुओं के स्थान पर शाब्दिक कथन तैयार करके समस्या उपस्थित की जाती है तो वे किसी निष्कर्ष पर पहुँचने में असमर्थ होते हैं। (मूर्त वस्तुओं पर तार्किक चिन्तन)
● इस अवस्था में बालक में पलटावी गुण विकसित हो जाता है।
● संरक्षण की समझ का विकास – संरक्षण से तात्पर्य वातावरण में परिवर्तन तथा स्थिरता दोनों को पहचानने एवं समझने की क्षमता तथा किसी वस्तु के रंग-रूप में परिवर्तन को उस वस्तु के तत्त्व में परिवर्तन से अलग करने की क्षमता से होता है।
● सम्बन्ध (Relation) तथा वर्गीकरण (Classification) का गुण विकसित।
● इस अवस्था को वैचारिक काल अवस्था कहते हैं।
● लगभग 9 वर्ष की आयु के बाद वह तार्किक विचारों की दिशा में आगे बढ़ता है।

उदाहरण :- बच्चों के सामने बिल्कुल एक जैसी चिकनी मिट्‌टी की दो गेंद प्रस्तुत की जाती हैं। प्रयोगकर्ता एक गेंद को बेल कर पतली पट्टी के रूप में बना देता है। दूसरी गेंद अपने मूल रूप में रहती है। यह पूछे जाने पर कि किसमें अधिक मिट्‌टी है। 7-8 साल के बच्चों द्वारा उत्तर होगा, दोनों में ही मिट्टी की मात्रा समान है।

4. अमूर्त/औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था (Formal-Operational-Stage) (11 वर्ष से 15/16 वर्ष) :-
● इस अवस्था में बालक में सभी प्रकार के सम्प्रत्ययों का समुचित विकास हो जाता है।
● विचारने, सोचने, तर्क करने, कल्पना करने, निरीक्षण अवलोकन परीक्षण, प्रयोग आदि के द्वारा उचित निष्कर्ष निकालने की पर्याप्त क्षमता विकसित हो जाती है।
● स्मरण शक्ति, तर्क एवं समझने पर आधारित होने लगती है।
● चिन्तन के लिए ठोस वस्तुओं की उपस्थिति होना अनिवार्य नहीं होता है। (अमूर्त चिन्तन का विकास)
● चिंतन में वस्तुनिष्ठता तथा वास्तविकता की भूमिका बढ़ जाती है।
● यह बालक के विकास की पूर्ण परिपक्वता की अवस्था होती है।
● पियाजे के अनुसार 15/16 वर्ष की आयु में बालक की बुद्धि का लगभग पूर्ण विकास हो जाता है।

● जीन पियाजे के अनुसार मानव विकास के तीन पक्ष हैं-
1. जैविक परिपक्वता
2. भौतिक वातावरण से प्राप्त अनुभव।
3. सामाजिक वातावरण से प्राप्त अनुभव।
● इन तीनों पक्षों में संतुलन स्थापित करने वाली शक्ति स्कीमा है।
● पियाजे ने अपने सिद्धांत में जीव विज्ञान के स्कीमा शब्द का प्रयोग किया है जिसका अर्थ है- क्रिया के समान्तर चलने वाली क्रिया है जिसके परिणामस्वरूप कोई एक क्रिया दूसरी क्रिया से संबंधित रहती है जो व्यक्ति को परिपक्वता की दिशा प्रदान करती है।
● स्कीमा (Schema) :- बालक-बालिकाओं की मानसिक संरचना में होने वाला व्यवहारगत परिवर्तन ‘स्कीमा’ कहलाता है।
● मानसिक प्रक्रिया का ज्ञानात्मक पैकेट्स स्कीमा कहलाता है।
● किसी व्यक्ति या वस्तु के प्रति व्यवहार का तरीका या ढंग स्कीमा है।

स्कीमा के रूप :-
(i) आद्य रूप :- किसी भी विषयवस्तु की नवीन परिभाषित करने की प्रक्रिया।
(ii) रूढ़ धारणा :- किसी वस्तु/समूह के संबंध में पूर्व निर्धारित धारणा को स्वीकार करना।

● स्कीम्स/मंतव्य :- व्यवहार का वह संगठित पैटर्न जिसे आसानी से दोहराया जा सकता है, स्कीम्स कहलाता है। जैसे- बालक का रोजाना विद्यालय जाने से पूर्व की तैयारी (ड्रेस पहनना, जूते पहनना)। स्कीम्स चिंतन के निर्माण के पत्थर हैं।

● अनुकूलन (Adapation) :- अपने वातावरण के साथ पारस्परिक क्रिया प्रतिक्रिया द्वारा सामंजस्य स्थापित करने की जन्मजात मूल-प्रवृत्ति को अनुकूलन कहते हैं।

● परिस्थिति के अनुसार अपने आप को ढालना।

अनुकूलन के तत्त्व :-

(i) आत्मसातीकरण (Assimilation) :- अपने पूर्व अनुभवों का प्रयोग कर सामंजस्य स्थापित करना। पूर्व ज्ञान में नवीन ज्ञान या विचार जोड़ना आत्मसातीकरण कहलाता है। मूल रूप से आत्मसातकरण एक नई वस्तु/घटना को वर्तमान स्कीमा में सम्मिलित करने की प्रक्रिया है।

(ii) समायोजन/संमजन/व्यवस्थापन (Accommodation) :- जब एक व्यक्ति अपने पुराने अनुभवों का परिमार्जन नए अनुभवों के अनुसार कर लेता है अर्थात् , पुरानी संज्ञानात्मक संरचना को संशोधित करके नई संरचना बनाना, समायोजन/संमजन कहलाती है। यह उपस्थित स्कीमा में बदलाव का संकेत देता है ताकि वह नई वस्तुओं को अपने में सम्मिलित कर सके।

(iii) साम्यधारण/संतुलनीकरण (Equilibration) :- अपनी समस्या का समाधान करने के लिए आत्मसातीकरण व समायोजन के मध्य संतुलन स्थापित करने की प्रक्रिया साम्यधारण कहलाती है। इसमें नई स्कीमा अथवा पुरानी स्कीमा में परिवर्तन करके असंतुलन को दूर किया जाता है।

3. सामाजिक विकास
(Social Development)

● जब मनुष्य समाज का सदस्य बनता है, उसके आदर्शों, नियमों, परम्पराओं, रीति-रिवाजों के अनुसार व्यवहार करता हुए सामाजिक परिस्थितियों में सामंजस्य स्थापित करता है, इस प्रक्रिया को समाजीकरण कहते हैं।
● सामाजिक विकास से तात्पर्य समाज के नियमों के अनुकूल व्यवहार करने की क्षमता के विकास से होता है।

परिभाषाएँ :-
1. सारे व टेलफोर्ड :- “समाजीकरण की प्रक्रिया दूसरे व्यक्ति के साथ शिशु के प्रथम सम्पर्क से आरम्भ होती है और जीवनपर्यन्त चलती है।”

2. हरलॉक :- “सामाजिक विकास का अर्थ सामाजिक संबंधों में परिपक्वता प्राप्त करना है।”

3. क्रो एण्ड क्रो :- “जन्म के समय, शिशु न तो सामाजिक होता है और न असामाजिक बल्कि उदासीन होता है।”

4. सोरेन्सन :- “सामाजिक वृद्धि और विकास से तात्पर्य अपने साथ और दूसरों के साथ भली-भाँति समायोजन करने की योग्यता से है।“

5. हरलॉक – सामाजिक विकास से तात्पर्य सामाजिक प्रत्याशों के अनुकूल व्यवहार करने की क्षमता सीखने से होता है।

शैशवावस्था में सामाजिक विकास :-
 शैशवावस्था में बालक न तो सामाजिक होता है और न ही असामाजिक, बल्कि उदासीन होता है।
● पहले माह में शिशु साधारण आवाजों और मनुष्यों की आवाज में अन्तर नहीं कर सकता है। 2 माह की आयु में मनुष्य की आवाज पहचानने लगता है।
● 3 माह का शिशु अपनी माँ को पहचान लेता है।
● 4/5 माह का शिशु अपना-पराया समझने लगता है।
● 3 वर्ष में वह दूसरे बालकों के साथ खेलने लगता है और सामाजिक संबंध स्थापित करता है।
● 2 वर्ष का बालक परिवार का सक्रिय सदस्य बन जाता है और छोटे-छोटे कार्यों में हाथ बँटाने लगता है।
● शैशवावस्था में शिशु में आत्मप्रेम पाया जाता है।
● शैशवावस्था में शिशु स्वकेन्द्रित होकर जीता है और अपने-आप से बातें करता रहता है साथ ही उसमें स्वार्थ का भाव पाया जाता है।
● उत्तर शैशवावस्था में जब वह विद्यालय जाने लगता है तो विद्यालय व्यवस्थाओं के अनुसार आचरण करने लगता है जो उसके सामाजिक विकास को दर्शाता हैं।

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बाल्यावस्था में सामाजिक विकास :-
● बाल्यावस्था के समय समाजीकरण की शुरुआत हो जाती है और यह सामाजिक आचरण करने लगते हैं।
● खेल भावना का विकास होता है, इससे अनुशासन व सहयोग का गुण पैदा होते हैं।
● टोली (समूह) का सदस्य बनने से आत्म-नियंत्रण, साहस, न्याय, नेतृत्व क्षमता, दूसरों के प्रति सद्भावना आदि गुणों का विकास होता है।
● बालकों में विभिन्न रुचियाँ पैदा होती है।
● इस अवस्था में बालक में सामाजिक चेतना का यथेष्ट विकास हो जाता है। उसकी सामाजिक दुनिया और विस्तृत हो जाती है।

किशोरावस्था में सामाजिक विकास :-
● इस अवस्था में किशोर अपने वय-समूह (Peer Group) के सक्रिय सदस्य बनते हैं। उनमें समूह के प्रति असीम भक्ति व श्रद्धा पाई जाती है।
● समूह का निर्माण किशोर भ्रमण, आनन्द, मनोरंजन हेतु करते हैं तथा स्पर्द्धा एवं प्रतियोगिता का विकास होता है।
● किशोरावस्था में विषमलिंगी आकर्षण उत्पन्न होने के कारण किशोर-किशोरियाँ स्वयं को आकर्षक बनाने का प्रयास करते हैं लेकिन उनमें लज्जा एवं संकोच का भी भाव बना रहता है।
● दबावसंघर्ष :- माता-पिता से किसी-न-किसी विचार के लेकर संघर्ष या मतभेद उत्पन्न हो जाता है। माता-पिता के दबाव से उनमें विद्रोह की भावना उत्पन्न होती है।
● भावी जीवन की चिन्ता :- किशोर को अपने व्यवसाय शिक्षा, विवाह, प्रगति आदि के प्रति चिंता रहती है ये समस्याएँ उसके सामाजिक विकास की गति को तीव्र या मंद, उचित या अनुचित दिशा प्रदान कर सकती है।

सामाजिक विकास को प्रभावित करने वाले कारक:-
1. वंशानुक्रम व वातावरण

2. शारीरिक, मानसिक व संवेगात्मक विकास

3. पालन-पोषण की विधि

4. सामाजिक व्यवस्था

5. खेल-कूद

6. परिवार

7. विद्यालय

8. समूह/टोली

9. शिक्षक, संगी-साथी

10. आर्थिक स्थिति

11. संस्कृति, सिनेमा, शिक्षा, पत्र-पत्रिकाएँ, समाचार-पत्र आदि।

12. सामाजिक वंचन

13. अतिनिर्भरता

समाजीकरण के साधन/माध्यम
1. परिवार – प्राथमिक साधन
2. साथियों का समूह (Peer group) – समाजीकरण के प्रमुख साधन के रूप में परिवार के बाद साथियों के समूह का स्थान आता है।
3. विद्यालय
4. आस-पड़ोस
5. जाति व वर्ग
6. भाषा

4. नैतिक/चारित्रिक विकास
(Moral Development)

● चरित्र निर्माण, शैक्षिक प्रक्रिया का मूल उद्देश्य है। चरित्र निर्माण में बालक में संकल्प शक्ति का विकास होता है और आदतें स्थायी रूप धारण कर लेती है। इन्हीं आदतों का पुंज ही चरित्र कहलाता है।

 परिभाषाएँ :-
1. सेमुअल स्माइल :- “चरित्र, आदतों का पुंज है।”

2. डमविल :- “चरित्र उन सब प्रवृत्तियों का योग है, जो एक व्यक्ति में होती है।”

● अच्छे चरित्र के लक्षण :- आत्मनियंत्रण, विश्वसनीयता, कार्य में दृढ़ता, कर्मनिष्ठता,, अंत:करण की शुद्धता, उत्तरदायित्व की भावना आदि।

शैशवावस्था में नैतिक विकास :-
शैशवावस्था में बालक में नैतिक आचरणों का अभाव होता है और पैदा भी नहीं किए जा सकते हैं। (नैतिक आचरण शून्यता की अवस्था) उत्तर शैशवावस्था में दण्ड या आज्ञापालन के भय से शिशु कभी-कभी नैतिक आचरणों की दिशा में कार्य करता है।

बाल्यावस्था में नैतिक विकास :-
● समूह का सदस्य बनने के कारण बालक का दूसरे बालकों से सम्पर्क होता है, जिससे उसके आचरण में परिवर्तन होता है।
● न्याय, ईमानदारी के प्रति प्रबल भावनाएँ जाग्रत होती हैं।
● इस अवस्था में सर्वाधिक नैतिक विकास होता है और उल्लंघन भी करता है।
● नैतिक सापेक्षता की शुरुआत हो जाती है।

किशोरावस्था में नैतिक विकास
● किशोर एक आदर्श व्यक्ति की कल्पना करके, उसके समान बनने का प्रयास करता है।
● किशोर धर्म की संकीर्णता को त्याग कर सहिष्णुता और मानव धर्म का समर्थन करता है।
● पैक  हैविगहर्स्ट :- “प्रौढ़ावस्था में प्रवेश करने के समय तक किशारे स्थायी नैतिक सिद्धांतों का निर्माण कर लेता है, जिनके आधार पर वह अपने स्वय के कार्यों का मूल्यांकन और निर्देशन करता है।”

चारित्रिक विकास में शिक्षा की भूमिका :-
● मूल-प्रवृत्तियों और संवेगों का उचित प्रशिक्षण।
● इच्छा या संकल्प शक्ति का प्रशिक्षण
● अच्छी आदतों का विकास
● उचित आदर्शों का विकास
● पुरस्कार व दण्ड का समुचित प्रयोग
● नैतिक और धार्मिक शिक्षा प्रदान करना।
● उचित वातावरण प्रदान करना।

कोहल बर्ग का नैतिक विकास सिद्धांत :-
● लॉरेन्स कोहलबर्ग ने।
● हिंज की नैतिक दुविधा की कहानी का अध्ययन।
● 10 से 16 वर्ष के 72 बच्चों पर प्रयोग किया और इन वर्षों को नैतिक तर्कणा वर्ष कहा।
● कोहलबर्ग ने बालक में होने वाले नैतिक विकास को लेकर (3) तीन स्तर और 6 सोपान (अवस्थाएँ) बताएँ।

पुस्तक :-
1. The Psychology of Moral Development
2. The Philosopy of Moral Development
3. Meaning and Measurement of Moral Development

(1) पूर्व परम्परागत/पूर्व रूढ़िगत/प्रीकन्वेशनल स्टेज (4 वर्ष से 10 वर्ष)
● कोहलबर्ग के अनुसार यह नैतिक विकास का सबसे निचला स्तर है, इस अवस्था में बालक का नैतिक विकास दण्ड एवं आज्ञा से नियंत्रित होता है तथा बालक दूसरों के मानकों के अनुसार व्यवहार करता है।
● इस स्तर में नैतिक तर्कणा दूसरे लोगों के मानकों से निर्धारित होती है।
● इस अवस्था में नैतिक आचरणों का अभाव पाया जाता है। इस स्तर के अन्तर्गत 2 चरण हैं-

(i) आज्ञा एवं दण्ड की अवस्था (Punishment and Abedience Orientation) :- इस अवस्था में बालक नैतिकता का पालन आज्ञा एवं दण्ड के आधार पर करता है, बालक को भय रहता है कि आज्ञापालन नहीं करने पर दण्ड मिल सकता है। बालक इस अवस्था पर अपनी आवश्यकताओं की ओर ध्यानशील होता है, किन्तु यह समझ लेता है कि दूसरे के भी अधिकार होते हैं। इस कारण वह कभी-कभी ऐसा समझौता करने को तैयार हो जाता है, जो उसकी आवश्यकताओं को पूरा करने की ओर प्रयास है।

(ii) साधनात्मक/यांत्रिक सापेक्ष/पुरस्कार उन्मुखता (अदलाबदली की अवस्था) (Instrumental Relavitist Orientation) :- इस अवस्था में बालक किसी पुरस्कार की प्राप्ति के लिए साधनात्मक (निमित्त) होकर नैतिक आचरण करता है। नैतिक तर्कणा आवश्यकता पूर्ति के लिए होती है। बालक केवल हित देखता है। किसी भी कार्य या व्यवहार की नैतिकता को यहाँ भौतिक परिणामों से परिभाषित किया जाता है।

(2) परम्परागत/रूढ़िगत/कन्वेशनल स्टेज (10 वर्ष से 13 वर्ष) :– कोहलबर्ग के अनुसार बालक इस अवस्था में नैतिकता का पालन सामाजिक मापदण्डों व नियमों के आधार पर करता है और सामाजिक नियमों को स्वीकृत करता है। इसके भी 2 सोपान हैं-

(i) अच्छा लड़काअच्छी लड़की अवस्था (प्रशंसा) : सुनहरा नियम (Good boy – Nice Girl Orientation) :- इस अवस्था में बालक नैतिक व्यवहार प्रशंसा प्राप्ति के लिए करता है। बालक वहीं काम करना पसन्द करता है जिसको करने से प्रशंसा प्राप्त होती है।

(iii) सामाजिक व्यवस्था निर्माण उन्मुखता (कानून  विधि सम्मत उन्मुखता) (Social-order Maintaining Orientation) :- इस अवस्था में बालक का नैतिक आचरण समाज के कानून व नियमों के अनुसार होता है इसमें बालक समाज के नियमों के पालन पर बल देता है।

(3) उत्तर-परम्परागत/उत्तर(पश्च)रूढ़िवादी/पोस्ट कन्वेंशनल स्टेज (13 वर्ष से ऊपर)
● कोहलबर्ग के अनुसार इस अवस्था में बालक रूढ़ि से ऊपर उठकर व्यक्तिगत नैतिक व्यवहार का निर्माण करता है।
● नैतिक आचरण पूर्णत: आंतरिक नियंत्रण में रहता है।
● इसमें बालक स्वयं के नियमों व सिद्धांतों को अंगीकृत करता है।
● इसमें बालक का नैतिक विकास आन्तरिक नियंत्रण में होता है। इस अवस्था के भी 2 सोपान है।

(i) सामाजिक अनुबंध उन्मुखता/सामाजिक ठेका निर्धारण (Social Contract Orientation) :- इस अवस्था में बालक का नैतिक आचरण या व्यवहार सामाजिक परम्परा व नियमों के अनुरूप होता है। बालक उन सभी नियमों का पालन करता है जो समाज के कल्याण के लिए बने हुए हैं तथा बहुसंख्यकों की इच्छाओं को महत्त्व देते हैं। एक उचित विधि द्वारा इन नियमों को बदला जा सकता है अर्थात् लचीले होते हैं।

(ii) सार्वत्रिक नीति उन्मुखता/विवेक की अवस्था/सार्वभौमिक नैतिक विकास (Universal Ethical Principle Orientation) :- इस अवस्था में बालक गलत नियमों का विरोध करता है और विवेक के अनुसार स्वयं नियम बनाता है। बालक उस आचरण को करता है जो सम्पूर्ण समाज के लिए नीतिगत हो।
● इस प्रकार से कोहलबर्ग ने हिंज की नैतिक दुविधा की कहानी के आधार पर इन नैतिक विकास के 3 स्तरों और 6 अवस्थाओं का उल्लेख किया।

जीन पियाजे का नैतिक विकास का सिद्धांत :-
● जीन पियाजे स्वीट्जरलैण्ड के एक मनोवैज्ञानिक थे। इन्होंने नैतिक विकास का अध्ययन 1928 से प्रारंभ किया।
● 1932 में अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘दी मोरल जजमेंट ऑफ दी चाइल्ड’ में सिद्धांत का प्रतिपादन किया।
● पियाजे के अनुसार बच्चों के नैतिक निर्णय के विकास में एक निश्चित क्रम एवं तार्किक पैटर्न होता है।
● जीन पियाजे ने नैतिक विकास की दो अवस्थाएँ बताई हैं-

(i) परायत्त नैतिकता की अवस्था (Stage of Heteronomous Morality)

  • 2 वर्ष से 8 वर्ष तक।
  • इसे नैतिक वास्तविकता की अवस्था भी कहा जाता है।
  • इसे दबाव की नैतिकता की अवस्था भी कहा जाता है।
  • इस अवस्था में बच्चों में नैतिक नियम का जो सम्प्रत्यय विकसित होता है, वह निरपेक्ष, अपरिवर्तनशील तथा दृढ़ होता है।
  • इस अवस्था में बच्चे यह समझते हैं कि कोई भी नियम बाह्य प्राधिकार, जैसे माता-पिता की ओर से आते हैं जिसे हर हालत में उन्हें स्वीकार करना है और वे निर्विवाद होते हैं तथा समय के साथ परिवर्तनशील नहीं है अर्थात् वे आज भी रहेंगे और कल भी।
  • इस अवस्था में बालक पूर्ण रूप से नैतिक निरपेक्ष बना रहता है।
  • इस अवस्था में बच्चे किसी व्यवहार का मूल्यांकन परिणाम के आधार पर करते हैं।

(ii) स्वायत्त नैतिकता की अवस्था (Stage of Autonomous Mortality)

  • 9 से 11 वर्ष की आयु तक।
  • इसमें बच्चों में एक विशेष तरह की नैतिकता विकसित होती है जिसमें तर्कसंगतता, लचीलापन तथा सामाजिक चेतना पाई जाती है।
  • इस अवस्था में बच्चे यह समझने लगते हैं कि सामाजिक नियम मनमाना अनुबंध होता है जिसके बारे में प्रश्न उठाया जा सकता है तथा परिवर्तन संभव है। प्राधिकार के प्रति अनुपालन दिखलाना न तो आवश्यक है और न ही हमेशा वांछनीय है। इसमें बच्चे किसी व्यवहार का मूल्यांकन व्यक्ति के इरादे के आधार पर करते हैं।

5. संवेगात्मक विकास
(Emotional Development)

● संवेग शब्द अंग्रेजी के इमोशन (Emotion) शब्द का हिन्दी रूपान्तर है।

● इमोशन (Emotion) शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के इमोवेयर (Emovere) से हुई है जिसका अर्थ है- उत्तेजित होना, उथल-पुथल उत्पन्न होना।

● गेल्डार्ड – “संवेग क्रियाओं का उत्तेजक है।”

● वुडवर्थ :- “संवेग व्यक्ति की उत्तेजित दशा है।”

● रॉस :- “संवेग चेतना की वह अवस्था है जिसमें रागात्मक तत्त्व की प्रधानता रहती है।”

● जरशील्ड :- “किसी भी प्रकार के आवेश आने, भड़क उठने तथा उत्तेजित हो जाने की अवस्था को संवेग कहते हैं।”

● वेलेन्टाइन :- “जब रागात्मक प्रकृति का वेग बढ़ जाता है तभी संवेग की उत्पत्ति होती है।”

परिभाषाओं के आधार पर संवेग की निम्न विशेषताएँ प्रकट होती हैं:-
● संवेग की अवस्था में व्यक्ति सामान्य नहीं रहता है, उत्तेजित हो जाता है।
● संवेग की अनुभूति चेतन होती है और शारीरिक परिवर्तन होते हैं।
● संवेग एक आंगिक प्रतिक्रिया है। (दैहिक)
● संवेगात्मक अनुभूतियों के साथ कोई-न-कोई मूल प्रवृत्ति जुड़ी रहती है।
● संवेगों में स्थानान्तरण का गुण पाया जाता है।
● संवेग व बुद्धि में ऋणात्मक संबंध (Negitive) पाया जाता है।
● संवेग जाग्रत तुरन्त हो जाते हैं परन्तु उनका अन्त धीरे-धीरे होता है।
● संवेग संचयी होता है।
● प्राय: संवेग का स्वरूप अभिप्रेरणात्मक होता है।
● संवेग सतत् होता है।

संवेग के तत्त्व
(i) दैहिक तत्त्व (ii) संज्ञानात्मक तत्त्व (iii) व्यवहारात्मक तत्त्व

शैशवावस्था में संवेगात्मक विकास:-
● संवेगात्मक व्यवहार में अत्यधिक अस्थिरता होती है।
● शैशवावस्था में संवेगों में आरम्भ में तीव्रता होती है लेकिन धीरे-धीरे तीव्रता में कमी आती है।
● ब्रिजेज :- “जन्म के समय बालक में केवल उत्तेजना होती है।”
● जन्म से 2 वर्ष तक की अवस्था में बालक में लगभग सभी संवेग पैदा हो जाते हैं।

बाल्यावस्था में संवेगात्मक विकास :-
● बालक के संवेग निश्चित और कम शक्तिशाली हो जाते हैं।
● बालक के संवेगों में शिष्टता आ जाती है और उनका दमन करने की क्षमता उत्पन्न हो जाती है।
● बालक के संवेगात्मक विकास पर विद्यालय और शिक्षक का महत्त्वपूर्ण स्थान है।
● संवेगों को नियंत्रित ढंग से अभिव्यक्त करना सीख जाते हैं।

किशोरावस्था में संवेगात्मक विकास :-
● कॉल एवं बुस :- “किशोरावस्था के आगमन का मुख्य चिह्न संवेगात्मक विकास में तीव्र परिवर्तन है।”
● इस अवस्था में प्रेम, दया, क्रोध, सहानुभूति आदि संवेग स्थायी रूप धारण कर लेते हैं तथा वह इन पर नियंत्रण नहीं रख पाता है।
● संवेग अस्थिर व अनियंत्रित हो जाते हैं अर्थात् संवेगात्मक संतुलन बिगड़ जाता है। इसलिए इसे तूफान और तनाव का काल कहते हैं।

संवेगात्मक विकास को प्रभावित करने वाले कारक :-
● स्वास्थ्य एवं शारीरिक विकास
● बुद्धि
● पारिवारिक वातावरण व आपसी संबंध
● विद्यालय, समाज का वातावरण व शिक्षक
● थकान
● अभिलाषा
● माता-पिता का दृष्टिकोण
● निर्धनता, सामाजिक स्थिति
● अत्यधिक कार्य, अनावश्यक बाधा

वाटसन के अनुसार संवेगात्मक विकास
वाटसन ने 1919 में नवजात शिशुओं के संवेग का अध्ययन कर बताया कि शिशुओं में तीन जन्मजात तथा मौलिक संवेग होते हैं-
(i) भय (fear), (ii) क्रोध (anger), (iii) प्रेम (love)

भय के उत्पन्न होने की स्थिति
क्रोध के समान ही ‘भय’ उत्पन्न होने के लिए बहुत से कारण और परिस्थितियाँ होती हैं। इसमें भी सामान्य आशंका, भय और आतंक सभी सम्मिलित होते हैं और उन्हीं के अनुसार भय की मात्रा कम या अधिक होती है। भय आने वाली भीषण विपत्ति की आशंका से उत्पन्न होता है अथवा ऐसी परिस्थिति जिसका सामना व्यक्ति नहीं कर सकता, भय उत्पादन का कारण बनती है।
भय के उत्पन्न होने के कारण कभी-कभी प्रत्यक्ष परिस्थिति भी हो सकती है और कभी-कभी अस्पष्ट और अप्रत्यक्ष भी। जैसे- यदि एक बालक खेलते-खेलते गायों के झुण्ड के समीप पहुँच जाता है और उसे गायों से भय प्रतीत होता है। यह भय का कारण ‘प्रत्यक्ष परिस्थिति’ है, किंतु जब व्यक्ति मानसिक चिंताओं से परेशानी में डूबा हुआ है तो उसका मन भावी आशंका से, परिवार के अहित की कल्पना से सिहर उठता है, वह भयभीत होता है, यह अप्रत्यक्ष परिस्थिति है। किसी व्यक्ति की भय की मनोदशा केवल बाह्य कारणों पर ही आधारित नहीं है वरन् क्रोध की तरफ बाह्य और आभ्यंतर दोनों प्रकार के अनगिनत कारण और परिस्थितियों पर निर्भर होती है।

ब्रिजेज के अनुसार संवेगात्मक विकास :-
ब्रिजेज जो एक महिला मनोवैज्ञानिक थी, ने 1932 में संवेगों का अध्ययन कर बताया कि बालकों में भिन्न-भिन्न आयु में भिन्न-भिन्न प्रकार के संवेग विकसित होते हैं।
● ब्रिजेज के अनुसार जन्म के समय, शिशु में सामान्य आवेश (उत्तेजना) पाई जाती है।
● ब्रिजेज के अनुसार 24 माह (2 वर्ष) की आयु तक शिशुओं के सभी प्रमुख संवेग जैसे- भय, क्रोध, अनुराग आदि का विकास हो जाता है और बाद के वर्षों में संवेगों में सिर्फ तीक्ष्णता की प्रक्रिया होती है।

मूल प्रवृत्ति का सिद्धांत :
● प्रतिपादक :- विलियम मैक्डूगल (इंग्लैण्ड) ने 1908 में पुस्तक- एन इन्ट्रोडक्शन टू सोशियल साइकोलॉजी में।

● मैक्डूगल ने मूल प्रवृत्तियों को जन्मजात बताया है और अपने सिद्धांत में 14 मूल प्रवृत्ति जो संवेगों से संबंधित है का उल्लेख किया है-

मूल प्रवृत्ति – संवेग
1. पलायन – भय

2. युयुत्सा – क्रोध

3. निवृत्ति – घृणा

4. जिज्ञासा – आश्चर्य

5. संचय प्रवृत्ति/संग्रहण – स्वामित्व

6. भोजनान्वेषण – भूख

7. ह्रास – आमोद

8. कामवृत्ति – कामुकता

9. आत्मगौरव – आत्माभिज्ञान (श्रेष्ठता की भावना)

10. सामूहिकता – एकाकीपन

11. दैन्यता – आत्महीनता

12. शरणागति – करुणा

13. शिशुरक्षा – वात्सल्य/स्नेह

14. रचनात्मकता – कृतिभाव

संवेग के सिद्धांत

1. जेम्स – लांजे सिद्धांत
प्रतिपादक – विलियम जेम्स व कार्ल लांजे, 1880 में
● यह संवेग का एक जैविक/दैहिक सिद्धांत है। इसके अनुसार पहले संवेगात्मक अनुभूति होती है और उसके बाद संवेगात्मक व्यवहार होता है; जैसे- भालू को देखने पर पहले डर जाते हैं फिर भागते हैं।

2. कैनन बार्ड सिद्धांत
प्रतिपादक – कैनन, 1927 में
● इसके अनुसार संवेगात्मक व्यवहार व संवेगात्मक अनुभूति एक साथ होती है।

3. विरोधी प्रक्रिया सिद्धांत
प्रतिपादक – सोलोमन व कारविट
● इसके अनुसार संवेग उत्पन्न करने वाला उद्दीपक एक साथ दो तरह की प्रतिक्रियाएँ व्यक्ति में पैदा करता है। पहली प्रतिक्रिया को प्राथमिक प्रक्रिया तथा दूसरी को विरोधी प्रक्रिया कहा जाता है।

4. संज्ञानात्मक मूल्यांकन सिद्धांत
प्रतिपादक – लेजारस, 1984 में
Note: 1. प्लुचिंक के अनुसार आठ मूल या प्राथमिक संवेग होते हैं।
2. स्टैनली शैक्टर व जेरोम सिंगर ने संवेगों के द्विकारक सिद्धांत का प्रतिपादन किया, जिसके अंतर्गत संवेगों के दो अवयव हैं-
(i) शारीरिक उद्वेलन (ii) संज्ञानात्मक लेबल

संवेग व संज्ञान : – संवेग तथा संज्ञान दोनों में द्विदिशीय संबंध पाया जाता है। दोनों परस्पर रूप से एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं।

6. भाषा विकास
(Language Development)

● बालक में भाषा का विकास सबसे महत्त्वपूर्ण है क्योंकि भाषा ही भावी जीवन में व्यवहार का आधार है। इसी माध्यम से हम अपने विचारों का आदान-प्रदान करते हैं।

● स्वीट :- “भाषा विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम है।”

● प्लेटो :- “विचार आत्मा की मूक बातचीत होती है, होंठों से बाहर निकलते समय ध्वन्यात्मक रूप ले लेते हैं, इसे ही भाषा कहते हैं।”

भाषा की विशेषताएँ :-
● भाषा अर्जित सम्पत्ति है।
● भाषा वातावरण की उपज है।
● भाषा परिवर्तनशील है।
● भाषा सामाजिक उपागम है।

विशेष:-
● 10/11 माह में बालक पहला सार्थक शब्द बोलता है।
● 2 वर्ष की आयु में बालक में 272 शब्द तथा 5 वर्ष तक लगभग 2072 शब्द बोलता है।
● 2 वर्ष तक बालक उन्हीं शब्दों को बोल पाता है जिनका संबंध घर-परिवार, आसपास की वस्तुओं तथा परिजनों के नाम से संबंधित है।
● 10 वर्ष तक की आयु तक लगभग 5400 शब्द होते हैं।
18 से 24 माह में 2 शब्दों के वाक्य बनाकर बोलने लगता है।
● 18 से 24 माह में ट्रिक शब्दावली का विकास होता है।

ट्रिक शब्दावली – इस शब्दावली में वैसे शब्द आते हैं, जिन्हें बालक दूसरों द्वारा, विशेषकर माता-पिता द्वारा आग्रह करने पर बोलता है जैसे- माँ, रोटी, पानी, भूख आदि।

भाषा का विकास क्रमिक रूप से :-

(i) क्रन्दन/रुदन (Crying) :- भाषा विकास के दौरान सबसे पहले बालक क्रन्दन करते हुए अपने भावों को प्रकट करता है। (भाषा विकास की पहली अवस्था)

(ii) बलबलाना (Babbling) :- 5/6 माह की आयु में बालक बलबलाना शुरू करता है जिसमें केवल स्वरों की ध्वनि प्रकट होती है। जैसे- आं…., ऊं…., इं….. आदि।

(iii) हावभाव

(iv) सांवेगिक अभिव्यक्ति

भाषा की संरचना के प्रमुख तत्त्व :-
(i) ध्वनिग्राम (Phoneme) :- यह बोली जाने वाली भाषा की सबसे छोटी इकाई होती है। जैसे- t, k आदि।

(ii) रूपग्राम (morpheme) :- जब ध्वनिग्राम को आपस में शब्द, उपसर्ग बनाने के लिए संयोजित कर लिया जाता है।

(iii) वाक्यविन्यास :- व्याकरणिक नियमों से वाक्य बनाना।

(iv) अर्थ-विज्ञान :- यह बतलाता है कि वाक्यों से अर्थ कैसे निकलता है।

भाषा विकास के साधन
(i) अनुकरण
(ii) खेल
(iii) कहानी सुनना
(iv) वार्तालाप
(v) प्रश्नोत्तर

नॉम चॉमस्की का भाषा विकास का सिद्धांत (1959) :
 प्रसिद्ध विद्वान नॉम चॉमस्की ने अपना मनोभाषिक सिद्धांत (जेनेरेटिव ग्रामर) प्रस्तुत करते हुए बताया कि प्रत्येक बालक में भाषा अर्जन करने की जन्मजात प्रवृत्ति होती है जिसे “भाषा अर्जन तंत्र” (LAD) कहते हैं। चॉमस्की व्याकरण सीखने की अंतर्निहित तत्परता पर बल देते हैं।
● चॉमस्की के अनुसार बच्चे सर्वभाषा व्याकरण के साथ पैदा होते हैं जिसकी सहायता से व्याकरण के नियमों को समझ पाते हैं।

भाषायी सापेक्षता प्रावकल्पना :- बैंजामिन ली वोर्फ (Whorf) ने
 इनका मत था कि भाषा चिन्तन को निर्धारित करती है।
Note:- चिन्तन व भाषा में घनिष्ठ संबंध पाया जाता है।

7. गामक विकास
(Motor Development)

● वे क्रियाएँ, जो नाड़ियों व पेशियों की सहायता से करता है। यह मांसपेशियों की गति, शक्ति व स्पष्टता का विकास है।
● क्रियात्मक विकास मांसपेशियों व तंत्रिकाओं के समन्वित कार्य द्वारा अपने शारीरिक क्रियाओं पर पूर्ण नियंत्रण करने से है।
● क्रियात्मक/गामक विकास मांसपेशियों तथा तंत्रिकाओं की परिपक्वता पर निर्भर करता है।
● क्रियात्मक विकास में एक पूर्वानुमेय पैटर्न होता है।
● क्रियात्मक विकास में वैयक्तिक भिन्नता होती है।
● गामक क्रियाएँ जैसे- उठना, बैठना, चलना, नाचना, पकड़ना, लिखना, तैरना, ब्लॉक बनाना, गेंद फेंकना, लपकना, टहलना आदि।
● शैशवावस्था में बालक घुटनों के बल चलना, खड़े होना, करवट बदलना आदि गामक क्रियाएँ करता है।
● बाल्यावस्था में विभिन्न अंगों में समन्वय बढ़ता है एवं क्रियाएँ शिशु की तुलना में अधिक उद्देश्यपूर्ण एवं स्पष्ट होती हैं।
● 3 वर्ष का बालक सरल रेखाएँ, ब्लॉक बनाना आदि कर लेता है।
● किशोरावस्था में शारीरिक वृद्धि के कारण गामक विकास तेजी से होता है। शरीर के सभी अंगों में समन्वय आ जाने से गामक विकास में बढ़ोतरी होती है।

गामक कौशल के प्रकार :-
(i) सूक्ष्म पेशीय कौशल (Fine Motor Skills) :- वह कौशल जिसमें शरीर की कुछ मांसपेशियाँ सक्रिय होती हैं या अँगुलियों की सहायता से होता है।

आयुसूक्ष्म पेशीय कौशल
3 वर्षब्लॉक बनाना, तर्जनी, अंगूठे की सहायता से वस्तुएँ उठाना
4 वर्षचित्रात्मक पहेली को भली-भाँति जोड़ना
5 वर्षहाथ, भुजा, शरीर के ये सभी आँख की गति के साथ समन्वित होते हैं।


(ii) स्थूल गामक कौशल (Gross Motor Skills) :- वह कौशल जिसमें शरीर की व्यापक मांसपेशियाँ सक्रिय रूप से क्रियाकलाप करती हैं।

आयुस्थूल पेशीय कौशल
3 वर्षउछलना, कूदना, दौड़ना
4 वर्षप्रत्येक पादान पर एक-एक पैर रखकर सीढ़ियों पर चढ़ना।
5 वर्षतेज दौड़ना, दौड़ प्रतिस्पर्द्धा का आनंद।


अन्य सिद्धांत :-

1. एरिक इरिक्सन का मनोसामाजिक विकास सिद्धांत
प्रतिपादक :- एरिक इरिक्सन ने 1963 में
– नव फ्रॉयडवादी विचारक
– एरिक इरिक्सन को ego (अहं) मनोवैज्ञानिक कहते हैं।
पुस्तक :- Childhood and Society
● इस सिद्धांत को जीवन-अवधि सिद्धांत भी कहा जाता है।
● मनोसामाजिक विकास की प्रत्येक अवस्था में 3 तत्त्व होते हैं, जिसे 3R कहा गया-
1. कर्मकांडता (Ritualization)
2. कर्मकांड (Ritual)
3. कर्मकांडवाद (Ritualism)
● इरिक्सन की मूल अभिरुचि इस बात में थी कि बालक अपनी स्व-पहचान कैसे बनाता है तथा समाज तथा परिवार में क्या योगदान देते हैं।
● व्यक्तित्व का विकास जैविक परिपक्वता तथा सामाजिक एवं ऐतिहासिक बलों के अंत:क्रिया के फलस्वरूप होता है।
● इरिक्सन ने अपने सिद्धांत में बालक की संवेगात्मक स्थिति, सामाजिक स्थिति तथा सांस्कृतिक स्थिति पर बल दिया।
● अपने सिद्धांत में इरिक्सन ने 8 अवस्थाओं का वर्णन किया। प्रत्येक मनोसामाजिक अवस्था में धनात्मक व ऋणात्मक दो तत्त्व होते हैं। जैविक परिपक्वता व सामाजिक माँग के कारण दोनों तत्त्वों में संघर्ष होता है। यदि इस संघर्ष को व्यक्ति संतोषजनक ढंग से समाधान कर लेता है तो उसमें एक विशेष मनोसामाजिक शक्ति या गुण उत्पन्न होता है।

 अवस्थाएँसमय-कालअहं शक्ति (गुण)
1.विश्वास बनाम अविश्वास(Trust v/s Mistrust)जन्म से 2 वर्षआशा/उम्मीद(Hope)
2.स्वायत्तता बनाम संदेह/लज्जाशीलता(Autonomy v/s Shame)2-3 वर्षइच्छाशक्ति/संकल्प(Willpower)
3.पहल बनाम अपराध बोध(Initiative v/s Guilt)3-5 वर्षउद्देश्य(Purpose)
4.परिश्रम बनाम हीनता(Industry v/s Inferiority)6-12 वर्षसामर्थ्य(Competency)
5.पहचान बनाम भूमिका संभ्रांति (द्वन्द्व की अवस्था)(Identity v/s Confusion)12 से 18 वर्षकर्तव्यनिष्ठता/नेतृत्व(Fidelity)
6.घनिष्ठता बनाम अलगाव अवस्था(Intimacy v/s Isolation)19 से 35 वर्षप्रेम/स्नेह(Love)
7.जननात्मकता बनाम स्थिरता (उत्पादकता बनाम निष्क्रियता)(Generativity v/s Stagnation)35 से 65 वर्षदेखभाल(Care)
8.अहं संपूर्णता बनाम निराशा(Integrity v/s Despair)65 वर्ष से ऊपरपरिपक्वता(Maturation) 


2. परिपक्वता का सिद्धांत :-
प्रतिपादक :- अरनोल्ड गैसेल ने वर्ष 1925 ई. (अमेरिका) (प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री, चिकित्सक, बाल मनोवैज्ञानिक)

● तंत्रिका तंत्र, वंशक्रम व वातावरण, सांस्कृतिक विरासत बालक के विकास को प्रभावित करते हैं।

● गैसेल ने एक बालक के विकास में परिपक्वता को विशेष महत्त्व दिया और कहा कि किसी भी बालक का विकास उसके तंत्रिका तंत्र पर निर्भर करता है तथा बालक के विकास पर वंशक्रम एवं वातावरण एवं सांस्कृतिक परिवेश का विशेष प्रभाव पड़ता है।

● यह सिद्धांत बालक के पढ़ने की आयु को भी निर्धारित करता है और माना जाता है कि एक निश्चित परिपक्वता के बाद ही कोई बालक सीख पाता है।

● गैसेल के अनुसार एक बालक जब गर्भकाल में होता है तो सबसे पहले सिर का निर्माण शुरू होता है तथा उसके बाद एक-एक करके पैरों तक निर्माण होता है तथा जन्म के बाद सबसे पहले वह सिर पर, फिर आँखों पर, फिर भुजाओं पर और अंत में पैरों पर नियंत्रण बनाते हुए संतुलन प्राप्त करता है।

● बालक में संतुलन विकास :-
1 माह – सिर ऊपर उठाना
2 माह – सीना ऊपर उठाना
4 माह – सहारे से बैठना
7 माह – बिना सहारे बैठना
9 माह – किसी वस्तु को पकड़कर खड़ा होना।
10 माह – घुटनों के बल चलना।
11 माह – पकड़कर चलना और बिना सहारे खड़ा होना।
1 वर्ष – स्वतंत्र चलना

गैसेल के महत्त्वपूर्ण सम्प्रत्यय :-
(1) रेसिप्रोकल इंटर विविंग (Reciprocal Inter Weaving) (परस्पर अंतर्गुम्फन) :- दो विपरीत परिस्थितियों में जब एक बालक विशेष प्रकार का संतुलन पैदा कर लेता है तो यह दो परिस्थितियों में परस्पर अंतर्गुफन कहलाता है।

(2) आत्म विनियमन (Self Regulation) :- एक बालक स्वयं के लिए सोने, जागने, खाने-पीने के लिए निश्चित नियम बना लेता है और उसी समय उन कार्यों के लिए अपना व्यवहार प्रकट करता है, इसे ही आत्म विनियमन कहते हैं।

परिपक्वता का अर्थ :-
गैसेल :- 
“आत्मसीमित जीवन चक्र में कार्यरत जीवाणु के समूचे स्वभाव को परिपक्वता कहते हैं।”
● जीवाणुओं का समूचा प्रभाव
● स्वचालित प्रक्रिया
● बुद्धि की पूर्णता
● आंतरिक सुधार प्रक्रिया
● विकास की सुदृढ़ता
● अभ्यास आवश्यक नहीं
● अधिगम को प्रभावित करती है।

क्रम विकास (Evolution) :-
● प्रजाति-विशिष्ट परिवर्तनों को कहते हैं।
● क्रम विकास अत्यंत धीमी गति से आगे बढ़ता है।
● प्राज्ञ मानव लगभग 50,000 वर्ष पहले अस्तित्व में आया।
● प्राकृतिक चयन विकासवादी प्रक्रिया है।

3. पारिस्थितिकी तंत्र सिद्धांत (जैव पारिस्थितिकी परक सिद्धांत):-
प्रतिपादक :- यूरी ब्रोनफेन ब्रेन्नर
– बालक के विकास की व्याख्या सामाजिक संदर्भ में की है।
 पर्यावरण की भूमिका को महत्त्व
 अमेरिका में हेड स्टार्ट प्रोग्राम चलाया।
● ब्रेन्नर ने बालक के विकास में उसके पारिस्थितिकी तंत्र का क्या योगदान होता है इसको स्पष्ट करते हुए कहा कि कोई भी बालक जिस परिवेश में जन्म लेता है और पालन-पोषण को प्राप्त करता है उस परिवेश की परिस्थितियाँ उसका पारिस्थितिकी तंत्र कहलाता है जो बालक के विकास में विशेष योगदान प्रदान करता है।
● पारिस्थितिकी तंत्र को उन्होंने 5 मण्डल/स्तर में विभाजित करते हुए अपना सिद्धांत दिया-

1. लघु मण्डल (Micro System) (सबसे प्रभावशाली मण्डल) :- वह क्षेत्र जिसमें बालक सीधा-सीधा सम्पर्क में रहता है और वह बालक पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालता है। जैसे- परिवार, मित्र मण्डली, विद्यालय, आस-पड़ोस।

2. मध्य मण्डल (Meso System) :- लघु मण्डल से संबंधित क्षेत्र के लोगों एवं उनमें आपस में पाए जाने वाले संबंध।
जैसे- माता-पिता के आपसी संबंध।
– विद्यालय के साथ बालक के संबंध।
– मित्र-मण्डली के साथ संबंध।
– परिवार व विद्यालय के संबंध

3. बाह्य मण्डल (Exo System) :- इसमें बालक स्वयं नहीं होता है। विभिन्न सार्वजनिक क्षेत्र, माता-पिता का कार्यस्थल, सामुदायिक परिवेश, धार्मिक संस्थान आदि। यह बालक पर अप्रत्यक्ष प्रभाव माना जाता है।

4. वृहद् मण्डल (Macro System) :- यह बालक का सबसे बड़ा और वह मण्डल होता है जो उसको एक नागरिक के रूप में स्थापित करता है। इसके माध्यम से बालक में सांस्कृतिक-सामाजिक मूल्य, सामाजिक प्रथाएँ, आर्थिक स्तर, मानवीय मूल्य आदि पैदा होते हैं।

5. घटक मण्डल (Chromo System) :- सामाजिक व ऐतिहासिक घटनाएँ
 एक बालक पर विकास के समय ऐतिहासिक व समसामयिक घटनाओं का भी प्रभाव पड़ता है। इन प्रभावों को घटक मण्डल में सम्मिलित किया जाता है।
● अत: ब्रेन्नर द्वारा वास्तविक पारिस्थितिकी तंत्र को समझने और बालक के विकास पर पड़ने वाले प्रभाव को बहुत आसान तरीके से स्पष्ट करने का प्रयास किया है।

Note :- दुर्गानंद सिन्हा (1977) ने भारतीय संदर्भ में बच्चों के विकास को समझने के लिए एक पारिस्थितिकी मॉडल प्रस्तुत किया।

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