प्रमुख संविधान संशोधन 

–  संविधान के भाग XX के अनुच्छेद-368 में संसद को संविधान एवं इसकी व्यवस्था में संशोधन की शक्ति का उल्लेख है। इसमें यह प्रावधान है कि संसद अपनी संवैधानिक शक्ति का प्रयोग, करते हुए इस संविधान के किसी उपबंध का परिवर्धन, परिवर्तन या निरसन के रूप में संशोधन कर सकती है। हालाँकि संसद उन व्यवस्थाओं को संशोधित नहीं कर सकती, जो संविधान के मूल ढाँचे से संबंधित हो।

संशोधन प्रक्रिया

अनुच्छेद 368 में संशोधन की प्रक्रिया का निम्नलिखित तरीकों से वर्णन किया गया हैं:

1.संविधान के संशोधन का आरंभ संसद के किसी सदन में इस प्रयोजन के लिए विधेयक पुन: स्थापित करके ही किया जा सकेगा और राज्य विधानमण्डल में नहीं।

2.विधेयक को किसी मंत्री या गैर-सरकारी सदस्य द्वारा पुन: स्थापित किया जा सकता है और इसके लिए राष्ट्रपति की पूर्व स्वीकृति आवश्यक नहीं है।

3.विधेयक को दोनों सदनों में विशेष बहुमत से पारित कराना अनिवार्य है। यह बहुमत सदन की कुल सदस्य संख्या के आधार पर सदन में उपस्थित सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत या मतदान द्वारा होना चाहिए।

4.प्रत्येक सदन में विधेयक को अलग-अलग पारित कराना अनिवार्य है। दोनों सदनों के बीच असहमति होने पर दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में विधेयक को पारित कराने का प्रावधान नहीं है।

5.यदि विधेयक संविधान की संघीय व्यवस्था के संशोधन के मुद्दे पर हो तो इसे आधे राज्यों के विधानमंडलों से भी सामान्य बहुमत से पारित होना चाहिए। यह बहुमत सदन में उपस्थित सदस्यों के बीच मतदान के तहत हो।

6.संसद के दोनों सदनों से पारित होने एवं राज्य विधानमंडलों की संस्तुति के बाद जहाँ आवश्यक हो, फिर राष्ट्रपति के पास सहमति के लिए भेजा जाता है।

7.राष्ट्रपति विधेयक को सहमति देंगे। वे न तो विधेयक को अपने पास रख सकते हैं और न ही संसद के पास पुनर्विचार के लिए भेज सकते हैं।

8.राष्ट्रपति की सहमति के बाद विधेयक एक अधिनियम बन जाता है (संविधान संशोधन अधिनियम) और संविधान में अधिनियम की तरह इसका समावेश कर लिया जाएगा।

संशोधनों के प्रकार

–  अनुच्छेद 368 दो प्रकार के संशोधनों की व्यवस्था करता है। ये हैं : संसद के विशेष बहुमत द्वारा और आधे राज्यों द्वारा साधारण बहुमत के माध्यम से संस्तुति द्वारा। लेकिन कुछ अन्य अनुच्छेद संसद के साधारण बहुमत से ही संविधान के कुछ उपबंध संशोधित हो सकते हैं, यह बहुमत प्रत्येक सदन में उपस्थित एवं मतदान (साधारण विधायी प्रक्रिया) द्वारा होता है। हालांकि ये संशोधन अनुच्छेद 368 के अंतर्गत नहीं आते है।

इस तरह संविधान संशोधन तीन प्रकार से हो सकता है :

i.संसद के साधारण बहुमत द्वारा संशोधन।

ii.संसद के विशेष बहुमत द्वारा संशोधन।

iii.संसद के विशेष बहुमत द्वारा एवं आधे राज्य विधानमंडलों की संस्तुति के उपरांत संशोधन।

संसद के साधारण बहुमत द्वारा

–  संविधान के अनेक उपबंध संसद के दोनों सदनों द्वारा साधारण बहुमत से संशोधित किए जा सकते हैं। ये व्यवस्थाएँ अनुच्छेद 368 की सीमा से बाहर हैं। इसके अंतर्गत-

1.नए राज्यों का प्रवेश या गठन।

2.नए राज्यों का निर्माण और उसके क्षेत्र, सीमाओं या संबंधित राज्यों के नामों का परिवर्तन।

3.दूसरी अनुसूची- राष्ट्रपति, राज्यपाल, लोकसभा अध्यक्ष, न्यायाधीशों आदि के लिए परिलब्धियाँ, भत्ते, विशेषाधिकार आदि।

4.राज्य विधानपरिषद् का निर्माण या उसकी समाप्ति।

5.संसद में गणपूर्ति।

6.संसद सदस्यों के वेतन एवं भत्ते।

7.संसद, इसके सदस्यों और इसकी समितियों को विशेषाधिकार।

8.संसद में प्रक्रिया नियम।

9.संसद में अंग्रेजी भाषा का प्रयोग।

10. राजभाषा का प्रयोग।

11. उच्चतम न्यायालय के न्यायक्षेत्र को ज्यादा महत्त्व प्रदान करना।

12. उच्चतम न्यायालयों में अवर न्यायाधीशों की संख्या।

13. नागरिकता की प्राप्ति एवं समाप्ति।

14. संसद एवं राज्य विधानमंडल के लिए निर्वाचन।

15. निर्वाचन क्षेत्रों का पुनर्निर्धारण

16. केन्द्रशासित प्रदेश।

17. पाँचवीं अनुसूची- अनुसूचित क्षेत्रों एवं अनुसूचित जनजातियों का प्रशासन।

18. छठी अनुसूची- जनजातीय क्षेत्रों का प्रशासन।

संसद के विशेष बहुमत द्वारा

–  संविधान के ज्यादातर उपबंधों का संशोधन संसद के विशेष बहुमत द्वारा किया जाता है अर्थात् प्रत्येक सदन के कुल सदस्यों का बहुमत और प्रत्येक सदन के उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई का बहुमत।

इसके अंतर्गत-

(i) मूल अधिकार

(ii) राज्य की नीति के निदेशक तत्त्व, और

(iii) वे सभी उपबंध, जो प्रथम एवं तृतीय श्रेणियों में शामिल नहीं है।

संसद के विशेष बहुमत एवं राज्यों की स्वीकृति द्वारा

–  नीति के संघीय ढाँचे से संबंधित संविधान के उपबंधों को संसद के विशेष बहुमत द्वारा संशोधित किया जा सकता है और इसके लिए यह भी आवश्यक है कि आधे राज्य विधानमंडलों में साधारण बहुमत के माध्यम से उनको मंजूरी मिली हो। यदि एक, कुछ या बचे राज्य विधेयक पर कोई कदम नहीं उठाते तो इसका कोई फर्क नहीं पड़ता। आधे राज्य उन्हें अपनी संस्तुति देते हैं, तो औपचारिकता पूरी हो जाती है। विधेयक को स्वीकृति देने के लिए राज्यों के लिए कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं है।

इसके अंतर्गत-

1.राष्ट्रपति का निर्वाचन एवं इसकी प्रक्रिया।

2.केन्द्र एवं राज्य कार्यकारिणी की शक्तियों का विस्तार।

3.उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय।

4.केन्द्र एवं राज्य के बीच विधायी शक्तियों का विभाजन।

5.वस्तु और सेवा कर परिषद्

6.सातवीं अनुसूची से संबद्ध कोई विषय।

7.संसद में राज्यों का प्रतिनिधित्व।

8.संविधान का संशोधन करने की संसद की शक्ति और इसके लिए प्रक्रिया (अनुच्छेद 368 स्वयं)।

संविधान संशोधन प्रक्रिया की आलोचना

–  विशेषज्ञों व आलोचकों ने संविधान संशोधन प्रक्रिया की निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की है :

1.संविधान-संशोधन की शक्ति संसद में निहित है। इस तरह अमेरिका के विपरीत राज्य विधानमंडल राज्य, विधानपरिषद् के निर्माण या समाप्ति के प्रस्ताव के अतिरिक्त कोई विधेयक या संविधान संशोधन का प्रस्ताव नहीं ला सकता। यहाँ भी संसद इसे या तो पारित कर सकती है या नहीं या इस पर कोई कार्यवाही नहीं कर सकती।

2.संविधान संशोधन के लिए किसी विशेष निकाय, जैसे- सांविधानिक सभा (अमेरिका) या सांविधानिक परिषद्, हेतु कोई उपबंध नहीं है। संसद को संविधायी शक्ति व्यापक रूप से प्राप्त है, कुछ मामलों में राज्य विधानमंडलों को।

3.संविधान ने राज्य विधानमंडलों द्वारा संशोधन संबंधी मंजूरी या उसके विरोध को प्रस्तुत करने की समय सीमा निर्धारित नहीं की है। वह इस मुद्दे पर मौन है कि अपनी संस्तुति के बाद क्या राज्य इसे वापस ले सकता है।

4.संविधान के बड़े भाग को अकेले संसद ही विशेष बहुमत या साधारण बहुमत द्वारा संशोधित कर सकती है। सिर्फ कुछ मामलों में राज्य विधानमंडल की संस्तुति भी आवश्यक होती है, वह भी उनमें से आधे की, जबकि अमेरिका में यह तीन-चौथाई राज्यों के द्वारा अनुमोदित होना आवश्यक है।

5.संशोधन की प्रक्रिया विधानमंडलीय प्रक्रिया के समान है। केवल विशेष बहुमत वाले मामले के अतिरिक्त संविधान संशोधन विधेयक को संसद से उसी तरह पारित कराया जा सकता है, जैसे- साधारण विधेयक।

6.संशोधन प्रक्रिया से संबद्ध व्यवस्था बहुत अपर्याप्त है अत: इन्हें न्यायपालिका को संदर्भित करने के व्यापक अवसर होते हैं।

7.किसी संविधान संशोधन अधिनियम के संदर्भ में गतिरोध हो तो संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक का कोई प्रावधान नहीं हैं, दूसरी तरफ एक साधारण विधेयक के मुद्दे पर संयुक्त बैठक आहूत की जा सकती है।

READ MORE about  भारतीय संविधान का निर्माण एवं संविधान सभा : भारत का संविधान

इन कमियों के बावजूद यह नकारा नहीं जा सकता कि प्रक्रिया साधारण व सरल है और परिस्थिति और आवश्यकता के अनुसार है।

भारतीय संविधान में हुए संशोधनों का संक्षिप्त विवरण

पहला संविधान संशोधन (1951)

–  इस संशोधन द्वारा नौवीं अनुसूची को जोड़ा गया, जिसके अंतर्गत भूमि संबंधी विधियों को संरक्षण प्रदान किया गया और इन विधियों को न्यायिक पुनरवलोकन से बाहर रखा गया।

–  इसके लिए अनुच्छेद-31 (अ) और 31 (ब) जोड़ा गया।

–  रोमेश थापर बनाम स्टेट ऑफ मद्रास (1951) एस.सी. के मामलों में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय से उत्पन्न परिस्थितियों को दूर करने के लिए यह संविधान संशोधन पारित किया गया।

–  इससे स्वतंत्रता, समानता एवं संपत्ति से संबंधित मूल अधिकारों को लागू किए जाने संबंधी कठिनाइयों को दूर करने का प्रयास किया गया।

–  वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर उचित प्रतिबंध लगाया गया।

–  अनुच्छेद-19(2) में प्रतिबंध के तीन नए आधारों को जोड़ा गया- लोक व्यवस्था, विदेशी राज्य से मैत्री संबंध और अपराध हेतु उत्प्रेरित करना।

चौथा संविधान संशोधन (1955)

–  बेला एनर्जी मामले में सर्वोच्च न्यायालय के विनिश्चय से उत्पन्न हुई कठिनाई को दूर करने के लिए यह संशोधन किया गया।

–  इसके अनुसार व्यक्तिगत संपत्ति को लोकहित में राज्य द्वारा छीने जाने की स्थिति में न्यायालय क्षतिपूर्ति राशि का पुनर्निरीक्षण नहीं कर सकता।

सातवाँ संविधान संशोधन (1956)

–  इसके द्वारा संविधान के अनुच्छेद-1 एवं प्रथम सूची में संशोधन करके राज्यों को 14 राज्यों तथा 6 संघ-राज्य क्षेत्रों में पुनर्गठित किया गया।

–  अनुच्छेद-230 एवं 231 संशोधित करके उच्च न्यायालयों के क्षेत्राधिकार को संघ-राज्य क्षेत्रों पर बढ़ा दिया गया।

–  इसके तहत दो से अधिक राज्यों के लिए एक उच्च न्यायालय का उपबंध किया गया।

नौवाँ संविधान संशोधन (1960)

–  भारत एवं पाकिस्तान के मध्य भूमि हस्तांतरण के लिए किए गए समझौते को कार्यान्वित करने के लिए भारत के भू-भाग को हस्तांतरित करने का अधिकार दिया गया।

–  इसके द्वारा बेरुबाड़ी, खुलना आदि क्षेत्रों को पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) को दे दिया गया।

दसवाँ संविधान संशोधन (1961)

–  भारत में पुर्तगाली क्षेत्रों दादर एवं नगर हवेली को भारत में शामिल कर उन्हें केन्द्र शासित प्रदेश का दर्जा दिया गया।

ग्यारहवाँ संविधान संशोधन (1961)

–  इसके माध्यम से प्रावधान किया गया कि राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति के चुनाव को इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती कि निर्वाचक मंडल अपूर्ण है।

–  उपराष्ट्रपति के चुनाव के लिए संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक बुलाना आवश्यक है।

बारहवाँ संविधान संशोधन (1962)

–  इसके द्वारा गोवा, दमन तथा दीव को भारत का संघ-राज्य क्षेत्र घोषित किया गया।

तेरहवाँ संविधान संशोधन (1962)

–  इसके द्वारा नागालैंड को राज्य की श्रेणी में रखकर संविधान के प्रथम अनुसूची में शामिल किया गया और अनुच्छेद-271(क) को संविधान में जोड़कर नागालैंड के संबंध में विशेष प्रावधान किया गया।

चौदहवाँ संविधान संशोधन (1962)

–  पुडुचेरी को भारत का अंग तथा संघ-राज्य क्षेत्र में विधानसभा तथा मंत्रिपरिषद् की स्थापना का अधिकार दिया गया।

–  अनुच्छेद-239(क) जोड़कर पुडुचेरी के लिए विधानसभा तथा मंत्रिमंडल के गठन हेतु प्रावधान किया गया।

सत्रहवाँ संविधान संशोधन (1964)

–  नौवीं अनुसूची में 44 अधिनियम जोड़े गए तथा संपत्ति के अधिकार को स्पष्ट किया गया।

–  केरल और मद्रास राज्य द्वारा पारित भूमि सुधार अधिनियमों को सांविधानिक संरक्षण प्रदान किया गया।

अठारहवाँ संविधान संशोधन (1966)

–  अनुच्छेद-3(क) जोड़कर यह व्यवस्था की गई कि संसद किसी राज्य या संघ-राज्य क्षेत्र के एक भाग का गठन कर सकती है।

–  पंजाब को पुनर्गठित करके पंजाब एवं हरियाणा राज्य और हिमाचल संघ-राज्य क्षेत्र की स्थापना की गई।

–  अनुच्छेद-3 में यह स्पष्टीकरण जोड़ा गया कि ‘राज्य’ शब्द के अंतर्गत संघ-राज्य क्षेत्र भी आते हैं।

21वाँ संविधान संशोधन (1967)

–  संविधान की आठवीं अनुसूची में सिंधी भाषा को 15वीं भाषा के रूप में शामिल किया गया।

24वाँ संविधान संशोधन (1971)

–  गोलकनाथ वाद में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय से उत्पन्न कठिनाइयों को दूर करने के लिए यह संविधान संशोधन किया गया।

–  इसके द्वारा अनुच्छेद-13 और अनुच्छेद-368 में संशोधन किया गया।

–  अनुच्छेद-368 में यह स्पष्ट किया गया कि इसके अंतर्गत संविधान संशोधन की प्रक्रिया और शक्ति दोनों शामिल हैं।

–  अनुच्छेद-13(2) में उल्लिखित कोई बात संविधान संशोधन विधि को लागू नहीं होगी।

–  एक नया अनुच्छेद-13(4) जोड़ा गया और स्पष्ट किया गया कि अनुच्छेद-368 के अधीन संवैधानिक संशोधन ‘विधि’ नहीं है।

–  केशवानंद भारतीय बनाम केरल राज्य वाद में सुप्रीम कोर्ट ने 24वें संविधान संशोधन को विधि मान्य घोषित किया।

25वाँ संविधान संशोधन (1971)

–  इसके द्वारा अनुच्छेद-31 के खंड-2 का संशोधन किया गया तथा अनुच्छेद-31(ग) जोड़ा गया।

26वाँ संविधान संशोधन (1971)

–  यह संशोधन माधव राव सिंधिया बनाम भारत संघ (प्रीवी पर्स मामले) वाद में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय की कठिनाइयों को दूर करने के लिए किया गया।

–  संविधान से अनुच्छेद-291 और 362 को निकाल दिया गया, जो इन विषयों से संबंधित थे।

–  एक नया अनुच्छेद-263(क) जोड़कर भूतपूर्व राजाओं के प्रीवीपर्स तथा विशेषाधिकार को समाप्त कर दिया गया।

31वाँ संविधान संशोधन (1973)

–  अनुच्छेद-81 में संशोधन करके लोकसभा सदस्यों की संख्या को 525 से बढ़ाकर 545 कर दिया गया।

33वाँ संविधान संशोधन (1974)

–  इसके द्वारा संविधान के अनुच्छेद-101 तथा 190 में संशोधन करके यह व्यवस्था की गई कि संसद या राज्य विधानमंडलों के सदस्यों से बलपूर्वक त्यागपत्र नहीं दिलवाया जा सकता।

35वाँ संविधान संशोधन (1974)

–  सिक्किम को सह राज्य का दर्जा प्रदान किया गया।

36वाँ संविधान संशोधन (1975)

–  सिक्किम को पूर्ण राज्य का दर्जा प्रदान किया गया और भारत के 22वें राज्य के रूप में संविधान की प्रथम अनुसूची में शामिल किया गया।

–  अनुच्छेद-371(च) के अंतर्गत सिक्किम के लिए विशेष प्रावधान किया गया।

38वाँ संविधान संशोधन (1975)

–  अनुच्छेद-352 के अधीन आपात स्थिति की घोषणा करने में राष्ट्रपति के समाधान को किसी न्यायालय में प्रश्नगत नहीं किया जा सकता।

–  अनुच्छेद-352 में दो नए खंड-4 और 5, अनुच्छेद-356 खंड-5 और अनुच्छेद-359 में खंड-क और अनुच्छेद-360 में खंड-5 जोड़े गए।

–  राष्ट्रपति, राज्यपाल और उप-राज्यपालों द्वारा अध्यादेश जारी करने के मामले को न्यायालय के अधिकार क्षेत्र से बाहर कर दिया गया।

42वाँ संविधान संशोधन (1976)

–  यह संविधान अभी तक पारित सभी संशोधनों से अधिक व्यापक एवं विस्तृत था।

–  इसके द्वारा संविधान में दो नए अध्याय-4(क), 14(क) और नौ नए अनुच्छेदों को शामिल किया गया।

–  52 अनुच्छेदों में संशोधन किया गया।

–  42वें संविधान संशोधन को लघु संविधान भी कहा जाता है। इसके प्रमुख संशोधन इस प्रकार से हैं-

–  संविधान की उद्देशिका में ‘पंथनिरपेक्ष समाजवादी तथा अखंडता’ शब्दों को जोड़ा गया।

READ MORE about  निवार्चन आयोग : भारत का संविधान

–  अनुच्छेद-31(ग) जोड़कर यह प्रावधान किया गया कि नीति निदेशक तत्त्वों को प्रभावी करने के लिए मूल अधिकार में संशोधन किया जा सकता है।

–  नीति निदेशक तत्त्वों में तीन नए निदेशक तत्त्वों को शामिल किया गया-

i.समान न्याय और नि:शुल्क विधिक सहायता, (अनुच्छेद-39(क)।

ii.उद्योगों के प्रबंध में कार्मिकों की भागीदारी, (अनुच्छेद-43(क)।

iii.पर्यावरण की रक्षा और सुधार एवं वन व वन्य जीव की सुरक्षा, (अनुच्छेद-48(क)।

–  भाग-4(क) तथा अनुच्छेद-51(क) जोड़कर नागरिकों के 10 मूल कर्तव्यों का उल्लेख किया गया।

–  अनुच्छेद-74 में यह व्यवस्था की गई कि राष्ट्रपति, मंत्रिपरिषद् की सलाह मानने के लिए बाध्य होगा।

–  अनुच्छेद-368 में दो नए खंड-(4) और (5) शामिल किया गया। खंड-4 के अनुसार, संसद द्वारा किए गए संविधान संशोधनों को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकेगी तथा खंड-5 में यह व्यवस्था है कि संविधान संशोधन के संदर्भ में संसद की शक्ति असीमित है।

–  वन, संपदा, शिक्षा, जनसंख्या नियंत्रण तथा परिवार नियोजन, जानवर, पक्षियों की सुरक्षा, बाट तथा माप आदि विषयों को समवर्ती सूची के अंतर्गत कर दिया गया।

–  विधानसभा एवं लोकसभा की समयावधि को 5 वर्ष से बढ़ाकर 6 वर्ष कर दिया गया।

–  लोकसभा एवं विधानसभा की सभी सीटों की संख्या को वर्ष-2001 तक के लिए स्थिर कर दिया गया।

–  राष्ट्रपति, पूरे देश के साथ-साथ अब देश के किसी एक भाग में भी अनुच्छेद-352 के तहत आपात की उद्घोषणा कर सकता है।

–  अनुच्छेद-356 के तहत आपात उद्घोषणा के पश्चात् संसद द्वारा अनुमोदन के बाद छह महीने लागू रह सकती थी। लेकिन अब यह एक वर्ष तक लागू रह सकती है।

–  संविधान में एक नया भाग-14(क) जोड़ा गया, जिसके अंतर्गत 223(क) और 223(ख) अनुच्छेद आते हैं।

–  इस संशोधन द्वारा केन्द्र, राज्यों में केन्द्रीय सुरक्षा बलों को तैनात कर सकता है और संसद को यह अधिकार दिया गया कि वह निर्णय कर सकती है कि कौन-सा पद लाभ का पद है।

–  संसद तथा राज्य विधानमंडलों के लिए गणपूर्ति की आवश्यकता नहीं है।

44वाँ संविधान संशोधन (1978)

–  यह संशोधन भी अत्यंत महत्वपूर्ण है।

–  42वें संविधान संशोधन द्वारा किए गए अनावश्यक परिवर्तनों को समाप्त करने के लिए जनता दल की सरकार ने यह संशोधन किया था।

–  अनुच्छेद-352 में राष्ट्रीय आपात की उद्घोषणा का आधार ‘आंतरिक अशांति’ के स्थान पर ‘सशस्त्र विद्रोह’ शब्द को शामिल किया गया।

–  राष्ट्रपति, राष्ट्रीय आपात की उद्घोषणा तभी कर सकता है, जब उसे मंत्रिमंडल द्वारा लिखित सूचना दे दी जाए।

–  संपत्ति के मूल अधिकार को समाप्त करके अनुच्छेद-300(क) के अंतर्गत इसे विधिक अधिकार का दर्जा दिया गया और अनुच्छेद-31 तथा अनुच्छेद-19(1) को निरसित कर दिया गया।

–  अनुच्छेद-74 में राष्ट्रपति को अधिकार दिया गया कि वह मंत्रिमंडल की सलाह को एक बार पुनर्विचार के लिए वापस भेज सकता है। लेकिन मंत्रिमंडल द्वारा दुबारा दी गई सलाह को मानने के लिए बाध्य होगा।

–  44वें संविधान संशोधन द्वारा लोकसभा तथा राज्य विधानसभाओं की अवधि पुन: 5 वर्ष कर दी गई।

–  राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति के निर्वाचन संबंधी विवाद को हल करने की अधिकारिता पुन: सर्वोच्च न्यायालय को दी गई।

51वाँ संविधान संशोधन (1985)

–  मेघालय, नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश और मिजोरम की अनुसूचित जनजातियों को लोकसभा में आरक्षण प्रदान किया गया।

–  नागालैंड और मेघालय की विधानसभाओं में जनजातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई।

52वाँ संविधान संशोधन (1985)

–  अनुच्छेद- 101, 102, 190 तथा 191 में संशोधन करके संविधान में दसवीं अनुसूची को जोड़कर दल-बदल को रोकने के लिए कानून बनाया गया।

55वाँ संविधान संशोधन (1986)

–  अरुणाचल प्रदेश को राज्य का दर्जा दिया गया तथा अनुच्छेद-371(ज) के अंतर्गत विशेष व्यवस्था की गई।

56वाँ संविधान संशोधन (1987)

–  गोवा को राज्य की श्रेणी में तथा दमन और दीव को गोवा से अलग करके संघ राज्य क्षेत्र की श्रेणी में रखा गया।

61वाँ संविधान संशोधन (1989)

–  अनुच्छेद-326 में संशोधन करके लोकसभा तथा राज्य विधानसभाओं के चुनाव में मतदान करने की न्यूनतम आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी गई।

65वाँ संविधान संशोधन (1990)

–  अनुच्छेद-338 में संशोधन करके अनुसूचित जाति तथा जनजाति आयोग के गठन का प्रावधान किया गया।

69वाँ संविधान संशोधन (1991)

–  संविधान में 2 नए अनुच्छेद-239(क)(क) तथा 239(क)(ख) जोड़े गए, जिनके अंतर्गत संघ क्षेत्र दिल्ली को विशेष दर्जा प्रदान दिया गया औरा उसका नाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली रखा गया।

–  दिल्ली के लिए 70 सदस्यीय विधानसभा तथा 7 सदस्यीय मंत्रिपरिषद् का प्रावधान किया गया।

73वाँ संविधान संशोधन (1992)

–  संविधान में भाग-9 तथा अनुच्छेद-243, 243(क) और ग्यारहवीं अनुसूची को जोड़कर संपूर्ण भारत में पंचायती राज की स्थापना का प्रावधान किया गया।

74वाँ संविधान संशोधन (1992)

–  संविधान में भाग-9(क) अनुच्छेद-243(त), 243(छ) और बारहवीं अनुसूची जोड़कर नगरीय स्थानीय शासन को संवैधानिक संरक्षण प्रदान किया गया।

80वाँ संविधान संशोधन (2000)

–  10वें वित्त आयोग के सिफारिश के आधार पर यह संशोधन किया गया।

–  इसके अंतर्गत कुछ केन्द्रीय करों तथा शुल्कों में से होने वाली आय से राज्यों को 29 प्रतिशत देने की सिफारिश की गई।

–  इस संशोधन के द्वारा अनुच्छेद-269 के खंड-1 और 2 के स्थान पर नया खंड तथा अनुच्छेद-370 के स्थान पर नया अनुच्छेद रखा गया है, जबकि अनुच्छेद-272 को समाप्त कर दिया गया है।

–  यह संशोधन 1 अप्रैल, 1996 से लागू माना गया है।

81वाँ संविधान संशोधन (2000)

–  अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों तथा अन्य पिछड़े वर्गों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण की 50 प्रतिशत सीमा जो सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित की गई थी, को समाप्त कर दिया गया।

–  अब एक वर्ष में न भरी जाने वाली बकाया रिक्तियों को एक पृथक् वर्ग माना जाएगा और अगले वर्ष में भरा जाएगा, भले ही उसकी सीमा 50 प्रतिशत से अधिक हो।

–  अनुच्छेद-16 में खंड-4(क) के बाद एक नया खंड-4(ख) जोड़ा गया।

82वाँ संविधान संशोधन (2000)

–  राज्यों की सरकारी नौकरियों में आरक्षित रिक्त पदों की भर्ती हेतु प्रोन्नतियों के मामले में अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के अभ्यर्थियों के लिए न्यूनतम प्राप्तांकों में छूट प्रदान करने की अनुमति दी गई।

–  उच्चतम न्यायालय के एक निर्णय के परिणामस्वरूप इसके पहले वर्ष-1997 में इस छूट को वापस ले लिया गया था।

84वाँ संविधान संशोधन (2001)

–  लोकसभा तथा विधानसभाओं की सीटों की संख्या में वर्ष-2026 तक कोई परिवर्तन न करने का प्रावधान किया गया है।

85वाँ संविधान संशोधन (2001)

–  अनुच्छेद-16 के खंड-4(क) में संशोधन करके शब्दावली ‘किसी वर्ग की प्रोन्नति के मामले में’ के स्थान पर ‘किसी वर्ग के प्रोन्नति के मामले में भूतलक्षी ज्येष्ठता’ रखी गई है।

–  इन वर्गों की प्रोन्नति भूतलक्षी (17 जून, 1995) प्रभाव से दी जाएगी।

86वाँ संविधान संशोधन (2002)

–  संविधान में अनुच्छेद-21(क) शामिल किया गया, जिसके तहत 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिए अनिवार्य एवं नि:शुल्क शिक्षा को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता देने की व्यवस्था की गई।

READ MORE about  संघीय विधायिका : भारत का संविधान

–  भाग-4 के अनुच्छेद-45 में परिवर्तन करके यह शामिल किया गया कि 0 से 6 वर्ष के बच्चों की सुरक्षा और देखभाल का दायित्व राज्य पर होगा।

–  अनुच्छेद-51(क) के द्वारा 11वाँ कर्तव्य जोड़ा गया, जिसके तहत माता-पिता या संरक्षक का यह कर्तव्य होगा कि 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिए शिक्षा की व्यवस्था करें।

87वाँ संविधान संशोधन (2003)

–  परिसीमन में जनसंख्या का आधार वर्ष-1991 के स्थान पर वर्ष-2001 कर दिया गया।

89वाँ संविधान संशोधन (2003)

–  अनुच्छेद-338(क) को संविधान में शामिल कर अनुसूचित जनजाति के लिए पृथक् राष्ट्रीय आयोग की स्थापना की व्यवस्था की गई।

91वाँ संविधान संशोधन (2003)

–  दसवीं अनुसूची में संशोधन करके दल-बदल व्यवस्था को और कठोर बनाया गया।

–  अब केवल संपूर्ण दल के विलय को मान्यता दी जाएगी।

–  अनुच्छेद-75 तथा 164 में संशोधन करके मंत्रिपरिषद् का आकार भी निश्चित किया गया।

–  केन्द्र तथा राज्य में मंत्रिपरिषद् की सदस्य संख्या लोकसभा तथा विधानसभा की कुल सदस्य संख्या का 15 प्रतिशत से अधिक नहीं होगी।

–  लेकिन जहाँ सदन की सदस्य संख्या-40 या उससे कम है, वहाँ यह संख्या अधिकतम-12 होगी।

92वाँ संविधान संशोधन (2003)

–  संविधान की आठवीं अनुसूची में बोडो, डोंगरी, मैथिली और संथाली भाषाओं का समावेश किया गया।

–  इस प्रकार अब आठवीं अनुसूची में कुल 22 भाषाएँ हो गई हैं।

93वाँ संविधान संशोधन (2006)

–  शिक्षण संस्थानों में अनुसूचित जाति/जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों के नागरिकों के दाखिले के लिए सीटों के आरक्षण की व्यवस्था संविधान के अनुच्छेद-15 की धारा-4 के प्रावधानों के तहत की गई है।

96वाँ संविधान संशोधन (2011)

-आठवीं अनुसूची में संशोधन कर भाषा का नाम उड़िया (Oriya) के स्थान पर ओडिया (Odia) किया गया है।

97वाँ संविधान संशोधन (2011)

–  सहकारी समितियों को संवैधानिक संरक्षण प्रदान किया गया।

–  सहकारी समिति बनाने का अधिकार एक मौलिक अधिकार बना दिया गया। (अनुच्छेद-19)

–  राज्यों की नीतियों में एक नए नीति निदेशक सिद्धांत को सम्मिलित किया गया, जिससे सहकारी समितियों को बढ़ावा मिल सके। (अनुच्छेद-43ख)

–  भारतीय संविधान में एक नया भाग-9 ख को जोड़ा गया, जिसका नाम, ‘सहकारी समितियाँ’ है। (अनुच्छेद-243 य ज से (243) य न)

99वाँ संविधान संशोधन (2015)

–  इस संशोधन अधिनियम द्वारा न्यायाधीशों की नियुक्ति तथा स्थानांतरण के लिए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग का गठन किया गया। परंतु राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को सर्वोच्च न्यायालय ने निरस्त कर दिया।

100वाँ संविधान संशोधन (2015)

–  इस अधिनियम में भारत तथा बांग्लादेश के मध्य वर्ष-1974 से लंबित भूमि हस्तांतरण संभव हो सका है। इस अधिनियम से पश्चिम बंगाल, मेघालय, त्रिपुरा से लगभग 17,160 एकड़ भूमि बांग्लादेश को दी जाएगी तथा 7,110 एकड़ भूमि बांग्लादेश से भारत को मिलेगी और 111 अंत:क्षेत्र बांग्लादेश को व 51 अंत:क्षेत्र भारत को दिया जाएगा।

101वाँ संविधान संशोधन (2016)

–  इस संशोधन के जरिए केन्द्र तथा राज्य द्वारा लगाए जाने वाले सभी अप्रत्यक्ष करों को एकीकृत करने हेतु Goods and Services Tax (GST) को अधिनियमित किया गया।

102वाँ संविधान संशोधन (2018)

–  सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के अधीन गठित राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा दिया गया।

–  संविधान में अनुच्छेद 338 तथा 338(क) के साथ 338(ख) को भी शामिल किया गया जिनका संबंध राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग तथा राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग से है।

103वाँ संविधान संशोधन (2019)

–  स्वतंत्र भारत में पहली बार आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई।

–  अनुच्छेद-16 में संशोधन कर सार्वजनिक रोजगार में आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए 10% आरक्षण की व्यवस्था की गई।

104वाँ संविधान संशोधन (2019)

–  यह 126वाँ संविधान संशोधन विधेयक था। इसमें sc, st के आरक्षण को 10 वर्षों के लिए बढ़ाया गया। इसके अलावा आग्ल भारतीय कोटे को खत्म किया गया।

105वाँ संविधान संशोधन (2021)

–  यह 127वाँ संशोधन विधेयक था सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री विरेन्द्र कुमार के द्वारा यह विधेयक लोकसभा में 10 अगस्त, 2021 एवं राज्य सभा में 11 अगस्त, 2021 को पारित किया गया। राष्ट्रपति ने 18 अगस्त को इस पर हस्ताक्षर किए।

–  इसके द्वारा प्रावधान किया गया कि OBC श्रेणी को जोड़ने का अधिकार राज्यों को प्राप्त होगा।

आधारभूत ढाँचा

–  आधारभूत संरचना के सिद्धांत का अर्थआधारभूत ढांचे का अभिप्राय, संविधान के उन मूल और अपृथक् भाग से है, जो संविधान की आत्मा एवं उसका सार तत्त्व है, जिसे संशोधित करने का आशय एक नए संविधान बनाने जैसा होगा।

आधारभूत संरचना का अर्थ-

–  “आधारभूत संरचना” का सिद्धांत सर्वप्रथम जर्मनी के हीडलबर्ग विधि विश्वविद्यालय के प्रो. डायटरीच कनरॉड द्वारा दिया गया।

–  भारत में “आधारभूत संरचना” शब्द का प्रथम बार प्रयोग जे.आर. मधोलकर ने किया। भारत में यह शब्द सज्जनसिंह बनाम राजस्थान राज्य-1965 वाद के समय हुआ।

आधारभूत संरचना से संबंधित प्रमुख वाद व संविधान संशोधन-

(1) प्रथम संविधान संशोधन-1951

विपक्ष (वाद)अनुच्छेद-13(2) के अनुसारकिसी भी विधि के द्वारा यदि मूल अधिकारों की कटौती अथवा छीनने का प्रयत्न किया गया, तो यह विधि उच्चतम न्यायालय के द्वारा अवैध घोषित कर दी जाएगी, लेकिन संविधान के अन्य भागों हेतु ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं है।संसद द्वारा कार्यवाहीप्रथम संविधान संशोधन-1951 के तहत नौंवी अनुसूची जोड़ी गई तथा इसमें भूमि संबंधी कानूनों का प्रावधान किया गया। यह प्रावधान जमींदारी व्यवस्था को समाप्त करने के लिए था।

नोट:- प्रथम संविधान संशोधन को चुनौती: शंकरी प्रसादवाद 1951

कारण- इसमें मौलिक अधिकारों वाले भाग में उल्लिखित संपत्ति के अधिकार को सीमित किया गया।

निष्कर्ष- न्यायालय द्वारा कहा गया कि अनुच्छेद-368 में वर्णित प्रावधानों का प्रयोग करते हुए मौलिक अधिकारों में परिवर्तन किया जा सकता हैं।

(2) 17वाँ संविधान संशोधन-1964

प्रावधान(1) यदि भूमि का बाजार मूल्य बतौर मुआवजा न दिया जाए तो व्यक्तिगत हितों के लिए भू-अधिग्रहण प्रतिबंधित(2) नौंवी अनुसूची में 44 और अधिनियमों की बढ़ोतरीचुनौतीगोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य वाद-1967अनुच्छेद-14 व  अनुच्छेद-19 के आधार पर चुनौती दी गई।

निष्कर्ष- न्यायालय ने कहा कि संसद अनुच्छेद-368 के तहत संविधान संशोधन का प्रयोग करके भी मौलिक अधिकारों को नहीं छीन सकती।

नोट- मौलिक अधिकारों को कम या समाप्त करने के लिए पुन: संविधान सभा का गठन होगा।

(3) 24वाँ संविधान संशोधन-1971

प्रावधान(1) संसद को यह अधिकार है कि वह संविधान के किसी भी हिस्से का, चाहे वह मूल अधिकार हो, संशोधन कर सकती है।(2) संविधान के अनुच्छेद-368 में खंड (1) एवं खंड (3) जोड़ा गयाचुनौतीकेशवानंद भारती बनाम केरल राज्य वाद-1973इस वाद में 24वें , 25वें, 26वें, एवं 29वें संविधान संशोधन को चुनौती दी गई
अनुच्छेद 368 (1) संसद अपनी संविधायी शक्ति के द्वारा संविधन के किसी भी भाग में परिवर्तन कर सकती है, जोड़ अथवा घटा सकती है।अनुच्छेद 368 (3) संविधान संशोधन विधी शब्द की से पृथक है। 

निष्कर्ष- न्यायपालिका ने स्पष्ट रूप में कहा कि अनुच्छेद-368 की प्रक्रिया अपनाते हुए संसद विधान के किसी भी भाग का संशोधन कर सकती है। परंतु मूल ढांचे का संशोधन नहीं कर सकती।

आधारभूत ढांचा परिवर्तित करने का प्रयास– केशवानंद भारतीवाद के निर्णय को निरस्त करने के लिए पुन: श्रीमति इंदिरा गांधी की सरकार ने 42वें संविधान संशोधन-1976 को पारित किया। 42वें संविधान संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गई कि संसद मौलिक अधिकारों सहित संविधान के किसी भाग में परिवर्तित की शक्ति रखती है तथा कोई भी परिवर्तन कर सकती है साथ ही संविधान संशोधन न्यायिक पुनरावलोकन के दायरे में शामिल नहीं होगें।

–  पुन: चुनौती- वर्ष 1980 में उच्चतम न्यायालय ने मिनर्वा मिल्स वाद में इस संविधान संशोधन को निरस्त कर दिया।

महत्वपूर्ण तथ्य-

नोट-(1) “आधारभूत संरचना ढांचे”  के सिद्धांत का उल्लेख भारतीय संविधान में उल्लिखित नहीं है।

(2) आधारभूत ढांचे की व्याख्या की शक्ति को न्यायालय ने स्वत: धारण कर लिया है।

(3) केशवानंद भारती वाद में न्यायमूर्ति सीकरी ने निम्नलिखित तत्त्वों को संविधान का मूलभूत ढांचा माना। जैसे- संविधान की सर्वोच्चता, सरकार का लोकतांत्रिक व गणतांत्रिक स्वरूप संविधान की पंथनिरपेक्ष प्रकृति, शक्तियों का विभाजन या पृथक्करण एंव संघीय व्यवस्था।

(4) केशवानंद भारती बनाम केरल राज्यवाद-1973 में अब तक की सबसे बड़ी संवैधानिक पीठ का गठन किया गया। न्यायमूर्ति एस एम सिकरी सहित कुल 13 न्यायधीशों की पीठ थी।

1.2.3.4.5.6.7.8.9.10.11.12.13.न्यायामूर्ति एस. एम. सिकरी जे. एम. शेलटके. एस. हैगड़ेए. एन. ग्रोवरजगमोहन रेड्डीडी. जी. पालेकरएस. आर. खन्नाए. के. मुखर्जीवाई. वी. चंद्रचूडए. एन. रेके. के. मैथ्यूहामिदउल्ला बेगएस. एन. द्विवेदी

About the author

thenotesadda.in

Leave a Comment

Follow Me

Copyright © 2025. Created by Meks. Powered by WordPress.

You cannot copy content of this page