न्यायालय द्वारा कार्यपालिका और व्यवस्थापिका के कार्यों की वैधता की जाँच करना अर्थात् न्यायालय द्वारा कानूनों तथा प्रशासनिक निर्णयों की संवैधानिकता की जाँच तथा ऐसे कानूनों एवं नीतियों को असंवैधानिक घोषित करना जो संविधान के किसी प्रावधान का अतिक्रमण करती हैं।

–     भारत में न्यायिक पुनरवलोकन की शक्ति अमेरिकी संविधान से ग्रहण की गई है। न्यायिक पुनरवलोकन के माध्यम से सरकार के अंगों में शक्ति संतुलन को बनाये रखा जाता है। भारत में न्यायिक पुनरवलोकन की शक्ति उच्चतम तथा उच्च दोनों न्यायालयों के पास हैं।

न्यायिक पुनरवलोकन– आशय

–     न्यायपालिका, विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों की संवैधानिकता की जाँच करती है।

–     कार्यपालिका द्वारा किए गए कार्यों की वैधानिकता का परीक्षण है।

विवाद

–     कुछ लोगों के अनुसार, न्यायिक पुनरवलोकन की शक्ति सीधे अनुच्छेद-13, (2) से मिलती है।

–     जबकि कुछ लोग न्यायिक पुनरवलोकन की शक्ति को संविधान में परोक्ष रूप में निहित मानते हैं। क्योंकि भारतीय शासन व्यवस्था में संविधान सर्वोच्च है। शासन का कोई अंग सर्वोच्च नहीं है। अतः विधि का निर्माण संविधान के अनुरूप होना चाहिए।

–     शासन के प्रत्येक अंग पर प्रतिबंध आरोपित हैं, जिसकी जाँच न्यायपालिका द्वारा की जाती है। अतः लिखित संविधान में न्यायिक पुनरवलोकन का सिद्धांत अंतर्निहित होता है।

न्यायिक पुनरवलोकन पर प्रतिबंध

–     निम्नलिखित का न्यायिक पुनरवलोकन नहीं किया जा सकता है

      (i) सांसदों के विशेषाधिकार (अनुच्छेद-105)

      (ii) विधायकों के विशेषाधिकार (अनुच्छेद-194) 

      (iii) निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन।

      (iv) मंत्रिपरिषद् द्वारा राष्ट्रपति और राज्यपाल को दी गई सलाह।

न्यायिक सक्रियता

–     न्यायिक पुनरवलोकन का आरंभ अमेरिका से माना जाता है। अमेरिका में न्यायिक पुनरवलोकन से संबंधित महत्वपूर्ण मामला सन् 1803 का मार्बरी बनाम मेडीसन का है जिसमें न्यायमूर्ति जॉन मार्शल ने न्यायिक पुनरवलोकन की व्याख्या की। वर्तमान में लोकतांत्रिक देशों में न्यायपालिका का लक्ष्य व्यक्तिगत न्याय के साथ सामाजिक न्याय की स्थापना करना है। भारत में न्यायिक सक्रियता के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका न्यायमूर्ति पी.एन. भगवती की है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा एस.पी. गुप्ता बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया, 1982 के मामले में दिए फैसले ने न्यायिक सक्रियता की संकल्पना को संवैधानिक आधार प्रदान किया।

न्यायिक सक्रियता क्या है?

–     न्यायपालिका संवैधानिक प्रणाली के तहत संवैधानिक मूल्यों और नैतिकता को बनाए रखने के लिये सक्रिय भूमिका निभाती है।

–     नागरिक दुविधाओं को संबोधित करने और कानूनों के सकारात्मक और मानक पहलूओं के बीच अंतर को भरने के लिये न्यायपालिका अपने स्वविवेक और रचनात्मकता का प्रयोग कर न्याय निर्गमन करती है परिणामतः न्यायिक सक्रियता का उद्भव होता है।

–     ‘न्यायिक सक्रियता’ शब्द न्यायाधीशों के निर्णय को संदर्भित करता है। न्यायिक समीक्षा को एक सिद्धांत के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जिसके तहत न्यायपालिका द्वारा विधायिका और कार्यपालिका के कार्यों की समीक्षा की जाती है।

–     उल्लेखनीय है कि न्यायिक समीक्षा को विधायी कार्यों की समीक्षा, न्यायिक फैसलों की समीक्षा और प्रशासनिक कार्रवाई की समीक्षा के तीन आधारों पर तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है।

–     न्यायालय, न्यायिक समीक्षा द्वारा कार्यपालिका और विधायिका दोनों को नियंत्रित कर सकते हैं।

न्यायिक सक्रियता के पक्ष में तर्क

–     न्यायिक सक्रियता न्यायाधीशों को उन मामलों में अपने व्यक्तिगत ज्ञान का उपयोग करने का अवसर प्रदान करती है जहाँ कानून संतुलन प्रदान करने में विफल रहा।

–     कई बार सार्वजनिक शक्ति लोगों को नुकसान पहुँचाती है, इसलिए न्यायपालिका के लिये सार्वजनिक शक्ति के दुरुपयोग को जाँचना आवश्यक हो जाता है।

–     यह अन्य सरकारी शाखाओं में चेक और शेष राशि की एक प्रणाली प्रदान करती है। न्यायिक सक्रियता रचनात्मकता से युक्त एक नाजुक अभ्यास है। यह न्याय-निर्णयन में आवश्यक नवाचार लाती है।

–     इसके अतिरिक्त न्यायिक सक्रियता भी मुद्दों में अंतर्दृष्टि प्रदान करती है, यही कारण है कि यह स्थापित न्याय प्रणाली और उसके निर्णयों में त्वरित विश्वास कायम करती है।

–     यह तेज़ी से उन विभिन्न मुद्दों पर समाधान प्रदान करने का एक अच्छा विकल्प है, जहाँ विधायिका बहुमत के मुद्दे पर फँस जाती है।

न्यायिक सक्रियता के विपक्ष में तर्क

–     अदालतों के बार-बार हस्तक्षेप के कारण लोगों का विश्वास सरकारी संस्थानों की गुणवत्ता, अखंडता और दक्षता के प्रति कम हो जाता है।

–     न्यायाधीश किसी भी मौजूदा कानून को ओवरराइड कर सकते हैं। इसलिए यह स्पष्ट रूप से संविधान द्वारा तैयार की गई सीमा रेखा का उल्लंघन करता है।

–     न्यायाधीशों की न्यायिक राय अन्य मामलों पर शासन करने के लिये मानक बन जाती है। इसके अतिरिक्त निर्णय निजी या स्वार्थी उद्देश्यों से प्रेरित हो सकते हैं जो जनता को बड़े पैमाने पर नुकसान पहुँचा सकते हैं।

 जनहित याचिका

–     जनहित याचिका की अवधारणा अमेरिका से ली गई है। इसका तात्पर्य यह है कि कोई भी व्यक्ति या सामाजिक संगठन किसी भी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूहों के अधिकार दिलाने के लिए न्यायालय जा सकता है। लोकहित वाद की उत्पत्ति अनुच्छेद-226 के तहत हुई है। जनहित वाद सार्वजनिक हित से जुड़े हुए वाद हैं जिनमें समाज के शोषित, निर्धन व असहाय लोगों के हितों की रक्षा की जाती है। भारत में लोकहित वाद न्यायिक सक्रियता का लक्षण है। जनहित वाद संविधान के अनुच्छेद-39A में अंतर्निहित सामाजिक न्याय के उद्देश्य की प्राप्ति में सहायक महत्वपूर्ण उपकरण है। हुसैन आरा खातून बनाम बिहार राज्य से प्रथम जनहित याचिका की शुरुआत हुई है, लेकिन एस.पी. गुप्ता बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया-1982 मामले में इसे आधिकारिक मान्यता दी गई।

–     एस.पी. गुप्ता अन्य बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया-1982 केस को न्यायाधीशों का मुकदमा कहा जाता है। जनहित वाद अथवा लोकहित वाद के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका न्यायमूर्ति वी.आर. कृष्णा अय्यर और न्यायमूर्ति पी.एन. भगवती ने निभाई।

जनहित याचिका (PIL)- आशय

–     जनहित याचिका को सामाजिक हित याचिका तथा पत्र अधिकारिता भी कहा जाता है। जनहित याचिका के द्वारा वादी-प्रतिवादी न्याय की संकल्पना को बदल दिया गया।

–     समूह के अधिकारों की रक्षा के लिए तीसरा व्यक्ति भी न्यायपालिका में जा सकता है।

–     न्याय प्राथमिक है, प्रक्रिया नहीं। व्यापक समाज को न्याय दिलाने के लिए प्रक्रियाओं में परिवर्तन भी किया जा सकता है। स्वतः संज्ञान (सू-मोटो एक्शन) में भी न्यायपालिका स्वयं पीड़ित व्यक्ति या समूह तक पहुँचकर उसे न्याय प्रदान कर सकती है। एक पत्र द्वारा भी याचिका दायर की जा सकती है।

–     जनहित याचिका में मामला सामूहिक अधिकारों का होना चाहिए, न कि व्यक्ति विशेष के व्यक्तिगत हितों से संबंधित। जनहित याचिका में न्यायपालिका ने कार्यपालिका एवं प्रशासन को निर्देश दिया है।

–     जनहित याचिका के द्वारा विधायिका को सामान्य निर्देश नहीं दिया जाता।

–     जब जनहित याचिकाओं के सुनवाई के क्रम में न्यायपालिका ने प्रशासन और कार्यपालिका को अत्यधिक निर्देशित करना शुरू किया। इसी के साथ न्यायिक सक्रियता का विवाद गहरा हुआ।

जनहित याचिका का आरंभ

–     इसका आरंभ 1980 के दशक में जस्टिस बी. आर. कृष्णा एय्यर और जस्टिस पी. एन. भगवती द्वारा किया गया।

–     जनहित याचिका को औपचारिक रूप में न्यायपालिका ने मान्यता एस. पी. गुप्ता बनाम भारत संघ वाद में दी (1982)। इसे ही ‘प्रथम जजेजवाद’ (Judges I Case) भी कहा जाता है।

–     जनहित याचिका का उल्लेख संविधान में नहीं है, बल्कि इसका विकास न्यायपालिका द्वारा किया गया।

–     इससे पहले जनहित याचिका का प्रयोग अमेरिका में हो रहा था। जनहित याचिका के द्वारा न्यायपालिका की कार्यवाही

–     न्यायपालिका ने पीड़ित पक्षों को मुआवजा देने का भी निर्देश दिया। जैसाकि पहली बार रूदल शाह बाद में किया गया।

–     जनहित याचिका के द्वारा मौलिक अधिकारों की विस्तार से व्याख्या की गई और न्यायपालिका ने जीवन के अधिकार में स्वास्थ्य, आजीविका और विदेश यात्रा के अधिकार को भी सम्मिलित किया।

जनहित याचिका का उद्देश्य

–     अभाव ग्रस्त लोगों के मूल अधिकार की रक्षा करना।

–     त्वरित एवं सस्ता न्याय प्रदान करना।

–     आम लोगों के हितों अथवा जनहित की रक्षा करना। जनहित याचिका दायर करने का तरीका (केवल उच्च न्यायालय एवं उच्चतम न्यायालय में)

–     भारत के मुख्य न्यायाधीश या उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को रजिस्टर्ड पत्र लिखकर।

–     नि:शुल्क वैधानिक सहायता समिति के माध्यम से।

–     किसी गैर-सरकारी स्वैच्छिक संगठन या वकील के माध्यम से।

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