क्रियात्मक अनुसंधान, शिक्षा जगत में व्यावहारिक एवं निदानात्मक अनुसंधान का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है। दैनिक जीवन में उत्पन्न शैक्षिक समस्याओं के समाधान के लिए क्रियात्मक अनुसंधान का सहारा लिया जाता है।
क्रियात्मक अनुसंधान का सूत्रपात करने का श्रेय अमेरिका को दिया जाता है। क्रियात्मक अनुसंधान शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग कोलियर द्वारा द्वितीय विश्व युद्ध के समय किया गया।
सन् 1946 में कुर्त लेविन ने मानव-संबंधों को अच्छा करने के लिए सामाजिक-विज्ञान के क्षेत्र में क्रियात्मक अनुसंधान पर जोर दिया। शिक्षा के क्षेत्र में क्रियात्मक अनुसंधान का विकास सन् 1926 से माना जाता है। जब बकिंघम ने अपनी पुस्तक ‘रिसर्च फॉर टीचर्स’ में क्रियात्मक अनुसंधान का उल्लेख किया।

क्रियात्मक अनुसंधान का प्रतिपादन
स्थायी रूप से क्रियात्मक अनुसंधान का प्रतिपादन सन् 1953 में कोलम्बिया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर स्टीफन एम. कोरे द्वारा किया गया।

पुस्तक – विद्यालय की कार्य पद्धति में सुधार करने के लिए क्रिया अनुसंधान। क्रियात्मक अनुसंधान का जनक – स्टीफन एम. कोरे।

क्रियात्म्क अनुसंधान का अर्थ
विद्यालय से संबंधित व्यक्तियों द्वारा अपनी और विद्यालय की समस्याओं का वैज्ञानिक अध्ययन करके अपनी क्रियाओं और विद्यालय की गतिविधियों में सुधार करना।
●क्रियात्मक अनुसंधान वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा व्यावहारिक कार्यकर्ता वैज्ञानिक ढंग से अपनी समस्याओं का अध्ययन, अपने निर्णय और क्रियाओं का निर्देशन, सुधार और मूल्यांकन करते हैं। अत: क्रियात्मक अनुसंधान वास्तविक क्रिया में सुधार लाने का एक सफल प्रयास है।

परिभाषाएँ
स्टीफन एम. कोरे :- “शिक्षा में क्रिया अनुसंधान कार्यकर्ताओं द्वारा किया जाने वाला अनुसंधान है ताकि वे अपने कार्यों में सुधार कर सकें।”

गुड :- “क्रिया-अनुसंधान शिक्षकों, निरीक्षकों और प्रशासकों द्वारा अपने निर्णयों और कार्यों की गुणात्मक उन्नति के लिए प्रयोग किया जाने वाला अनुसंधान है।”

मोले :- “शिक्षक के समक्ष उपस्थित होने वाली समस्याओं में से अनेक तत्काल ही समाधान चाहती हैं। मौके पर किए जाने वाले ऐसे अनुसंधान, जिसका उद्देश्य तात्कालिक समस्या का समाधान होता है, शिक्षा में साधारणत: क्रिया-अनुसंधान के नाम से प्रसिद्ध है।”

मुनरो :- “क्रियात्मक अनुसंधान समस्याओं के अध्ययन की एक विधि है, जिसमें दिए गए सुझाव आंशिक या पूर्ण रूप से तथ्यों पर आधारित होते हैं।”

Note :- हिंदी में क्षमता प्रसाद पाण्डे ने 1965 में शिक्षा में क्रियात्मक अनुसंधान पुस्तक की रचना की।

क्रियात्मक अनुसंधान व मौलिक अनुसंधान में अंतर
(Difference Between Action & Fundamental Research)

मानव की वैज्ञानिक चेतना के साथ-साथ मौलिक या परम्परागत अनुसंधान (Fundamental or Traditional Research) का भी विकास हुआ है। इसी अनुसंधान की एक नवीनतम शाखा है- क्रिया-अनुसंधान। इन दोनों के आधारभूत अंतर को स्पष्ट करते हुए बेस्ट ने लिखा है- “मौलिक अनुसंधान वैज्ञानिक विधि से विश्लेषण और सामान्यीकरण करने की औपचारिक और व्यवस्थित प्रक्रिया है। क्रिया-अनुसंधान ने मौलिक अनुसंधान के वास्तविक अभिप्राय को अपनाते हुए सिद्धांतों के प्रतिपादन की बजाय समस्याओं के समाधान पर अपना ध्यान केंद्रित किया है।”

मौलिक अनुसंधान और क्रिया अनुसंधान के अन्य अंतर दृष्टव्य हैं-

 मौलिक अनुसंधानक्रिया अनुसंधान
1.इसका विकास भौतिक विज्ञानों के साथ हुआ है।इसका विकास सामाजिक विज्ञानों के साथ हुआ है।
2.इसका उद्देश्य नए सिद्धांतों की खोज करना है।इसका उद्देश्य विद्यालय की कार्यप्रणाली सुधार करना है।
3.इसकी समस्या का क्षेत्र व्यापक है।इसकी समस्या का क्षेत्र संकुचित है।
4.इसकी समस्या का संबंध किसी सामान्य परिस्थिति से होता है।इसकी समस्या का संबंध किसी विशेष परिस्थिति में होता है।
5.इसके लिए विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता है।इसके लिए विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं है।
6.इसमें सत्यों और तथ्यों की स्थापना की जाती है।इसमें वास्तविक समस्याओं का व्यावसायिक हल खोजा जाता है।
7.इसमें अनुसंधान की रूपरेखा में परिवर्तन नहीं किया जा सकता है।इसमें अनुसंधान की रूपरेखा में परिवर्तन किया जा सकता है।
8.इसमें सामान्यीकरण का विशेष महत्त्व होता है।इसमें सामान्यीकरण का विशेष महत्त्व नहीं होता है।
9.इसमें अनुसंधानकर्ता विशेषज्ञ होते हैं।इसमें अनुसंधानकर्ता विद्यालय शिक्षक, प्रबंधक आदि होते हैं।
10.इसमें अनुसंधानकर्ता, विशेषज्ञ होते हैं और उनका समस्याओं से प्रत्यक्ष संबंध नहीं होता है।इसमें अनंसधानकर्ता का विद्यालय और उसकी समस्याओं से प्रत्यक्ष संबंध होता है।


क्रिया-अनुसंधान का क्षेत्र या समस्याएँ
(Scope or Problems of Action Research)

क्रिया-अनुसंधान का मुख्य कार्य- विद्यालय की समस्याओं का समाधान करके उसकी गुणात्मक उन्नति करना है। अत: इसका क्षेत्र बहुत व्यापक है और इसमें अधोलिखित समस्याओं को स्थान दिया जा सकता है-
1. बाल-व्यवहार से संबंधित समस्याएँ – इन समस्याओं का संबंध केवल छात्रों से है, जैसे- चोरी करना, विद्यालय न आना, देर से आना या भाग जाना, विद्यालय की सम्पत्ति को हानि पहुँचाना, कक्षा में शोर मचाना, शरारत करना, यौन अपराध करना, एक-दूसरे से लड़ना, झगड़ना या मारपीट करना इत्यादि।

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2. शिक्षण से संबंधित समस्याएँ – इन समस्याओं का संबंध छात्रों और शिक्षकों दोनों से है, जैसे- छात्रों का पाठ्य-विषयों को न समझना या उनमें रुचि न लेना, गृह-कार्य या लिखित कार्य न करना, वाचन-उच्चारण आदि की ओर ध्यान न देना, अपने विचारों को व्यक्त करने का अवसर न पाना, शिक्षकों का उपयुक्त शिक्षण-विधियों को न अपनाना, शिक्षण के लिए पूरी तैयारी न करना, शिक्षण के लिए उपयुक्त वातावरण का निर्माण न कर पाना, छात्रों और शिक्षकों में अच्छे संबंध न होना इत्यादि।

3. परीक्षा से संबंधित समस्याएँ – इन समस्याओं का संबंध मुख्यत: छात्रों से है, जैसे- परीक्षा-प्रणाली का विश्वसनीय, प्रामाणिक और वस्तुनिष्ठ न होना, निबंधात्मक प्रकार की परीक्षाओं के कारण छात्रों की वास्तविक उपलब्धियों का मूल्यांकन न हो पाना, निदानात्मक परीक्षणों का निर्माण और प्रयोग न किया जाना, उपलब्ध परीक्षणों के प्रयोग की सुविधा न होना, छात्रों द्वारा चयन किए जाने के लिए प्रश्न-पत्रों में अधिक प्रश्न न होना, परीक्षा और शिक्षण में समन्वय न होना इत्यादि।

4. पाठान्तर क्रियाओं से संबंधित समस्याएँ – इन समस्याओं का संबंध छात्रों, शिक्षकों और प्रधानाचार्य से है, जैसे- पाठान्तर-क्रियाओं के लिए पर्याप्त साधन न होना, इन क्रियाओं का विधिवत आयोजन न किया जाना, इन क्रियाओं और पाठ्यक्रम में उचित संबंध और संतुलन न होना, इन क्रियाओं को विद्यालय के लिए भार और आडम्बर समझा जाना, इन क्रियाओं के लिए प्रधानाचार्य द्वारा पर्याप्त समय न दिया जाना, इन क्रियाओं के प्रति शिक्षकों का उदासीन रहना, इन क्रियाओं को छात्रों के समय का अपव्यय समझना, उत्साही छात्रों को अपनी रुचियों के अनुसार विभिन्न प्रकार की पाठान्तर क्रियाओं में भाग लेने के अवसर न मिलना इत्यादि।

5. विद्यालय-संगठन व प्रशासन से संबंधित समस्याएँ – इन समस्याओं का संबंध मुख्यत: विद्यालय-प्रबंधक और प्रशासक से है, जैसे- विद्यालय में भावात्मक एकता का अभाव होना, विद्यालय-स्तर का उन्नयन करने में असफल होना, विद्यालय के कक्षों का स्वच्छ और हवादार न होना, कक्षा में स्थान और फर्नीचर का अभाव होना, शिक्षण, परीक्षाओं और पाठ्यक्रम-क्रियाओं में उचित समन्वय न होना, कला, विज्ञान, भूगोल, इतिहास आदि सके शिक्षण के लिए पर्याप्त और उपयुक्त उपकरणों का अभाव होना, पुस्तकालय, वाचनालय और प्रयोगशाला की उत्तम व्यवस्था न होना, शिक्षकों में पारस्परिक सहयोग और सहानुभूति की भावना का अभाव होना, छात्रों का अनुशासनहीन होना, छात्र-संघ और अध्यापक के कार्यों पर नियंत्रण न होना इत्यादि।

क्रिया-अनुसंधान के पद (Steps of Action Research)
एण्डरसन (Anderson) के अनुसार – क्रिया अनुसंधान की प्रणाली में सात सोपानों का होना आवश्यक है, यथा –
1. समस्या का ज्ञान।
2. कार्य के प्रति प्रस्तावों पर विचार-विमर्श।
3. योजना का चयन व उपकल्पना का निर्माण।
4. तथ्य-संग्रह करने की विधियों का निर्माण।
5. योजना का कार्यान्वयन व प्रमाणों का संकलन।
6. तथ्यों पर आधारित निष्कर्ष।
7. दूसरों को परिणामों की सूचना।

1. पहला सोपान : समस्या का ज्ञान :- क्रिया-अनुसंधान का पहला सोपान है- विद्यालय में उपस्थित होने वाली समस्या का भली-भाँति समझना। यह तभी संभव है, जब विद्यालय के शिक्षक, प्रधानाचार्य आदि उसके संबंध में अपना विचार व्यक्त करें। ऐसा करके ही वे वास्तविक समस्या को समझकर अपने कार्य को आगे बढ़ा सकते हैं।

2. दूसरा सोपान : कार्य के लिए प्रस्तावों पर विचारविमर्श :- क्रिया-अनुसंधान का दूसरा सोपान है समस्या को भली-भाँति समझने के बाद इस बात पर विचार करना कि उसके कारण क्या हैं और उसका समाधान करने के लिए कौन-से कार्य किए जा सकते हैं। शिक्षक, प्रधानाचार्य, प्रबंधक आदि इन कार्यों के संबंध में अपने-अपने प्रस्ताव या सुझाव देते हैं। उसके बाद वे अपने विश्वासों, सामाजिक मूल्यों, विद्यालयों के उद्देश्यों आदि को ध्यान में रखकर उन पर विचार-विमर्श करते हैं।

3. तीसरा सोपान : योजना का चयन व उपकल्पना का निर्माण :-
क्रिया-अनुसंधान का तीसरा सोपान है- विचार-विमर्श के फलस्वरूप समस्या का समाधान करने के लिए एक योजना का चयन और उपकल्पना का निर्माण करना। इसके लिए विचार-विमर्श करने वाले सब व्यक्ति संयुक्त रूप से उत्तरदायी होते हैं।

उपकल्पना में तीन बातों का सविस्तार वर्णन किया जाता है-
(i) समस्या का समाधान करने के लिए अपनाई जाने वाली योजना।
(ii) योजना का परीक्षण।
(iii) योजना द्वारा प्राप्त किया जाने वाला उद्देश्य।

उदाहरणार्थ, एक उपकल्पना इस प्रकार हो सकती है- “यदि प्रत्येक कक्षा में विभिन्न प्रकार की शिक्षण सामग्री का प्रयोग किया जाए, तो बालकों को अधिक और अच्छी शिक्षा दी जा सकती है।”
यही समस्या है- बालकों को अधिक और अच्छी शिक्षा किस प्रकार दी जा सकती है? इसका समाधान करने के लिए अपनाई जाने वाली योजना है- प्रत्येक कक्षा में विभिन्न प्रकार की शिक्षण-सामग्री का प्रयोग। योजना बनाने वालों को इस बात का विश्वास है कि शिक्षण-सामग्री के प्रयोग से अधिक अच्छी शिक्षा दी जा सकती है। अत: वे इस योजना का परीक्षण करना चाहते हैं। योजना द्वारा प्राप्त किया जाने वाला उद्देश्य है- बालकों को अधिक और अच्छी शिक्षा देना।

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4. चौथा सोपान : तथ्य संग्रह करने की विधियों का निर्माण :- क्रिया-अनुसंधान का चौथा सोपान है- योजना को कार्यान्वित करने के बाद तथ्यों या प्रमाणों का संग्रह करने की विधियाँ निश्चित करना। इन विधियों की सहायता से जो तथ्य संग्रह किए जाते हैं, उनसे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि योजना का क्या प्रभाव पड़ रहा है। उदाहरणार्थ, विभिन्न प्रकार की शिक्षण-सामग्री का प्रयोग किए जाने के समय निम्नलिखित चार विधियों का प्रयोग करके यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि पढ़ाई पहले से अधिक और अच्छी हो रही है या नहीं-
(i) शिक्षक द्वारा प्रत्येक घण्टे में पढ़ाई जाने वाली विषय-सामग्री का लेखा (Record) रखा जाना।
(ii) प्रश्नावली (Questionnaire) का प्रयोग करके छात्रों के उत्तर प्राप्त करना।
(iii) विभिन्न छात्रों के साक्षात्कार (Interview) करना।
(iv) विभिन्न कक्षाओं के छात्रों का मत-संग्रह (Collection of Opinion) करना।

5. पाँचवाँ सोपान : योजना का कार्यान्वयन व प्रमाणों का संकलन :- क्रिया अनुसंधान का पाँचवाँ सोपान है- निश्चित की गई योजना को क्रियान्वित करना और उसकी सफलता या असफलता के संबंध में प्रमाणों या तथ्यों का संकलन करना। योजना से संबंधित सभी व्यक्ति चौथे सोपान में निश्चित की गई विधियों की सहायता से तथ्यों का संग्रह करते हैं। वे समय-समय पर एकत्र होकर इन तथ्यों के विषय में विचार-विमर्श करते हैं। इसके आधार पर वे योजना के स्वरूप में परिवर्तन करते हैं, ताकि उद्देश्य की प्राप्ति संभव हो सके। उदाहरणार्थ, प्रत्येक कक्षा में प्रयोग की जाने वाली शिक्षण-सामग्री को वे कम, अधिक या परिवर्तित कर सकते हैं।

6. छठा सोपान : तथ्यों पर आधारित निष्कर्ष :- क्रिया-अनुसंधान का छठा सोपान है- योजना की समाप्ति के बाद संग्रह किए हुए तथ्यों या प्रमाणों से निष्कर्ष निकालना। उदाहरणार्थ, प्रत्येक कक्षा में विभिन्न प्रकार की शिक्षण-सामग्री का प्रयोग करने से बालकों को अधिक और अच्छी शिक्षा दी गई या नहीं। इस प्रकार निकाले जाने वाले निष्कर्ष उसी विद्यालय के लिए होते हैं, जहाँ क्रिया-अनुसंधान किया जाता है। कुछ निष्कर्ष ऐसे भी हो सकते हैं, जिनकी कल्पना भी नहीं की जाती है। उक्त उदाहरण में एक निष्कर्ष यह हो सकता है कि एक विशेष प्रकार की शिक्षण-सामग्री अधिक और अच्छी शिक्षा देने में विशेष उपयोगी सिद्ध हुई है।

7. सातवीं सोपान : दूसरों को परिणामों सूचना :- क्रिया-अनुसंधान का सातवाँ और अंतिम सोपान है- दूसरे व्यक्तियों को योजना के परिणामों की सूचना देना।

क्रिया अनुसंधान विशेषताएँ (Characteristics of Action Research)
एण्डरसन के अनुसार, क्रिया-अनुसंधान की प्रमुख विशेषताएँ दृष्टव्य हैं-
1. क्रिया-अनुसंधान, विद्यालय की वास्तविक परिस्थितियों का सामाजिक परिस्थितियों में किया जाता है।
2. क्रिया-अनुसंधान का ध्यान केवल एक परिस्थिति पर, न कि अनेक परिस्थितियों पर केंद्रित रहता है।
3. क्रिया-अनुसंधान का ध्यान संपूर्ण परिस्थिति पर, न कि उसके किसी विशेष अंग पर केंद्रित रहता है।
4. क्रिया-अनुसंधान अन्य परिस्थितियों के संबंध में किसी प्रकार का सामान्यीकरण स्थापित नहीं करता है।
5. क्रिया-अनुसंधान विभिन्न प्रकार की सामग्री और सूचनाओं को एकत्र करने के लिए साधनों का निर्माण करता है।
6. क्रिया-अनुसंधान करने वालों के मस्तिष्क में अपनी स्वयं की विधियों में सुधार करने का विचार सदैव विद्यमान रहता है।
7. क्रिया-अनुसंधान के परिणामों को कार्यान्वित करने वाले व्यक्ति उसमें आरम्भ से अंत तक सक्रिय रूप से भाग लेते हैं।
8. क्रिया-अनुसंधान उस समय की प्रगति की मात्रा को निश्चित करने का प्रयास करता है, जिसके संबंध में वह अध्ययन करता है।
9. क्रिया-अनुसंधान में विद्यालय में शिक्षक, प्रशासक और निरीक्षक एवं कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के अध्यापक साधारणत: एक-दूसरे के सहयोग से कार्य करते हैं।
10. क्रिया-अनुसंधान में विद्यालय के समय उद्देश्यों में परिवर्तन, नवीन उपकल्पनाओं का निर्माण और उनका परीक्षण किया जा सकता है।
अंत में, हम एण्डरसन के शब्दों में कह सकते हैं- “क्रिया-अनुसंधान की एक सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता है- प्रेरणा, जो यह शिक्षकों, निरीक्षकों और प्रशासकों को परिणामों का अधिक आत्मनिष्ठ और आकस्मिक मूल्यांकन का त्याग करने और विचारों का परीक्षण करने के लिए विभिन्न प्रकार के प्रमाणों का अधिक वस्तुनिष्ठ संग्रही करने के लिए देता है।”

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क्रिया-अनुसंधान के उद्देश्य व प्रयोजन
(Aims & Purposes of Action Research)

1. एण्डरसन के अनुसार- विद्यालय के वास्तविक वातावरण में शिक्षा के सिद्धातों का परीक्षण करना।
2. विद्यालय के संगठन और व्यवस्था में परिवर्तन करके सुधार करना।
3. विद्यालय की कार्य-पद्धति में प्रजातंत्रात्मक मूल्यों को अधिकतम स्थान देना।
4. विद्यालय की दैनिक समस्याओं का अध्ययन और समाधान करके उसकी प्रगति में योग देना।
5. विद्यालय के छात्रों, शिक्षकों आदि को उनके दोषों से अवगत करवाकर उनकी उन्नति को संभव बनाना।
6. विद्यालय के पाठ्यक्रम का वास्तविक परिस्थितियों में अध्ययन करके उसकी स्थानीय आवश्यकताओं के अनुकूल बनाना।
7. विद्यालय के प्रधानाचार्य, प्रबंधक, निरीक्षक और अध्यापकों को अपने कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों के प्रति जागरूक करना।
8. विद्यालय से संबंधित व्यक्तियों को अपनी समस्याओं का वैज्ञानिक अध्ययन करके अपनी विधियों को उत्तम बनाने का अवसर देना।
9. Best के अनुसार – शिक्षक की प्रगति, विचार-शक्ति, व्यावसायिक भावना और दूसरों के साथ मिलकर कार्य करने की योग्यता में वृद्धि करना।
10. Best के अनुसार – विद्यालय की क्रियाओं की उन्नति करना और इन क्रियाओं में उन्नति करने वालों की भी उन्नति करना।

क्रिया अनुसंधान का महत्त्व (Importance of Action Research)
क्रिया-अनुसंधान के महत्त्व के पक्ष में निम्नांकित तर्क प्रस्तुत किए जा सकते हैं-
1. यह विद्यालय की कार्य-प्रणाली में संशोधन और सुधार करता है।
2. यह विद्यालय में जनतंत्रात्मक मूल्यों की स्थापना पर बल देता है।
3. यह विद्यालय के यांत्रिक और परम्परागत वातावरण को समाप्त करने का प्रयत्न करता है।
4. यह विद्यालय के शिक्षकों और प्रधानाचार्य को अपने दैनिक अनुभवों को संगठित करने और उनसे लाभ उठाने के लिए प्रेरित करता है।
5. यह विद्यालय, प्रबंधकों, छात्रों, शिक्षकों, निरीक्षकों आदि की समस्याओं का व्यावहारिक समाधान करता है।
6. यह पाठ्यक्रम को समाज की माँगों, मूल्यों और मान्यताओं के अनुकूल बनाकर, विद्यालय को समाज का लघु रूप बनाने की चेष्टा करता है।
7. यह छात्रों की चतुर्मुखी उन्नति करने के लिए विद्यालय की क्रियाओं का प्रभावपूर्ण विधि से आयोजन करता है।
8. यह वैज्ञानिक, आविष्कारों के कारण उत्पन्न होने वाली नई परिस्थितियों का सामना करने में सहायता देता है।
9. यह शिक्षकों में पारस्परिक प्रेम, सहयोग और सद्भावना की भावनाओं का विकास करता है।
10. यह शिक्षकों, प्रधानाचार्यों, प्रबंधकों, प्रशासकों आदि को वैज्ञानिक और वस्तुनिष्ठ विधियों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित करके मूल्यांकन में परिवर्तन और सुधार करता है।

विद्यालय, शिक्षा और शिक्षा से संबंधित व्यक्तियों के लिए क्रिया-अनुसंधान का क्या महत्त्व है, इसकी पुष्टि करने के लिए कोरे के इन शब्दों को उद्धृत करना अनिवार्य है- “हमारे विद्यालय तब तक जीवन के अनुकूल कार्य नहीं कर सकते हैं, जब तक शिक्षक, छात्र, निरीक्षक, प्रशासक और विद्यालय –संरक्षक इस बात की निरंतर जाँच न करें कि वे क्या कर रहे हैं। इसी प्रक्रिया को मैं क्रिया-अनुसंधान कहता हूँ।”

क्रिया-अनुसंधान के गुण व दोष
(Merits & Demerits of a Action Research)

(अ)  गुण – रिसर्च इन एजुकेशन में क्रिया-अनुसंधान के अग्रांकित गुणों पर प्रकाश डाला गया है-
1. क्रिया-अनुसंधान में सिद्धांत की अपेक्षा प्रयोग पर अधिक बल दिया जाता है।
2. क्रिया-अनुसंधान में किया जाने वाला प्रयोग वास्तविक परिवर्तन पर आधारित होता है।
3. क्रिया-अनुसंधान निर्णय और कार्य करने में केंद्रीकरण की प्रवृत्ति का अंत करता है।
4. क्रिया-अनुसंधान करने वाला व्यक्ति समस्या का समाधान करके अनिवार्य रूप से अपनी उन्नति करता है।
5. क्रिया-अनुसंधान में सत्यों और तथ्यों पर बल दिया जाता है। अत: अध्ययन की जाने वाली परिस्थिति में वास्तविकता के अनुसार निरंतर परिवर्तन होता रहता है।
6. मौले के अनुसार – क्रिया-अनुसंधान, शिक्षक को समस्याओं के ऐसे समाधानों से अवगत करवाता है, जिनको सरलता से समझकर प्रयोग कर सकता है।
7. मौले के अनुसार – क्रिया-अनुसंधान, शिक्षक के व्यवहार और शिक्षण में परिवर्तन करने से पूर्व उसके विचार और दृष्टिकोण में परिवर्तन करता है।

(ब) दोष – मौले ने क्रिया-अनुसंधान में अधोलिखित मुख्य दोषों की ओर संकेत किया है-
1. क्रिया-अनुसंधान में श्रेष्ठता और उत्तम गुण का अभाव होता है, क्योंकि शिक्षक, निरीक्षक आदि को अनुसंधान करने का कोई अनुभव या प्रशिक्षण नहीं होता है।
2. क्रिया-अनुसंधान करने वाला शिक्षक, निरीक्षक आदि अनुसंधान की वैज्ञानिक विधि से अनभिज्ञ होने के कारण समस्या और उसके कारणों को पूर्ण रूप से नहीं समझ पाते हैं। अत: उसका वास्तविक हल खोजने में असमर्थ होते हैं।
3. क्रिया-अनुसंधान करने वाले शिक्षक, निरीक्षक आदि का विद्यालय की समस्याओं से इतना घनिष्ठ संबंध होता है कि उनका समाधान करते समय वे अपने को वैयक्तिक कारकों से पूर्णतया पृथक् करने में असफल होते हैं।
4. क्रिया-अनुसंधान के आधार पर एक विशेष विद्यालय की एक विशेष परिस्थिति में एक विशेष समस्या होती है। इस समस्या का हल खोजने वाला शिक्षक दूसरे विद्यालय में जाने के बाद वहाँ उसका प्रयोग नहीं कर सकता है।
5. क्रिया-अनुसंधान का भार उन शिक्षकों को वहन करना पड़ता है, जो पहले से ही शिक्षण के भार से दबे रहते हैं। परिणामत: वे अपना पूर्ण ध्यान न तो अनुसंधान के प्रति दे पाते हैं और न शिक्षण के प्रति।

निष्कर्ष रूप में, हम मौले के शब्दों में कह सकते हैं- “अपने दोषों के बावजूद भी क्रिया-अनुसंधान को निसंदेह रूप से प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। शिक्षकों को अपनी स्वयं की समस्याओं में भाग लेने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए। क्रिया-अनुसंधान के कारण कक्षा-कक्ष की अनेक समस्याओं का समाधान हुआ है और इसने विज्ञान के रूप में शिक्षा की प्रगति में योग दिया है।”

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